प्रतीकात्मक फोटो।

जो शुरू हुआ वह खत्म भी होगा: युद्ध हो, हिंसा या कि अंधेरा

कुरुक्षेत्र में 18 दिन की कठिन लड़ाई खत्म हो चुकी थी। इस जमीन पर अब मेरी भूमिका रह गई थी। यह अंधा युग की गांधारी है। मुझे सूचना मिल चुकी है कि मेरा सबसे बड़ा बेटा दुर्योधन मारा जा चुका है। मैं मंच पर गिरती हूं और विलाप करती हूं। ऑडिटोरियम के अंधेरे में देखा जा रहा है, गांधारी खुद को खड़ा करती है। वह अपनी तकलीफ को समेटती है और कृष्ण को तलब करती है। ‘‘यदि तुम चाहते तो यह युद्ध रुक सकता था।’’ वह रो रही है। इस नाटक को एम.के. रैना ने निर्देशित किया था। यह मंचन 1986 में हुआ था। विभाजन और दूसरे विश्वयुद्ध के बाद धर्मवीर भारती ने 1953 में यह नाटक लिखा था।

तीन साल की उम्र में मैं स्वतंत्रता को समझ नहीं सकी थी। इसे मैंने दूसरे युद्धों के दौरान समझना शुरू किया- 1962 में चीन और 1965 में पाकिस्तान के साथ हुआ युद्ध, तब ऊंची और चीखते सायरन चीन या पाकिस्तान के युद्धक विमानों के हमलों के बारे में आगाह करते। पूरा शहर अंधेरे में डूबा हुआ था। लोग बिस्तरों के नीचे एक दूसरे को जोर से पकड़े हुए छुपे हुए थे। सब कुछ चंद लम्हों में मिट सकता था। 

लेकिन जब सूरज उगा, हम बाहर निकल आये। बच्चे खेलने और बड़े लोग काम पर लग गये। आम लोगों जैसा हमारे पास और तरीका भी क्या था? हम बर्तोल्त ब्रेख्त के नाटक काकेशियन चाल्क सर्किल (1944) की सात साल की बच्ची ग्रुशा की तरह ही थे। इस नाटक को हमने नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा की रिपर्टरी कंपनी की ओर से 1968 में खेला था। उसे तख्तापलट के दौरान एक कुलीन परिवार की छोड़ दिया गया बच्चा मिलता है। पहाड़ों की ओर भागते हुए वह उसे उठा लेता है। वह बच्चा उस पर भार बन जाता है। ग्रुशा उसे छोड़ सकती थी लेकिन वह ऐसा नहीं करती है। बावजूद इसके वह उसको पालने-पोसने की चुनौती स्वीकार करती है जो उसकी पैदाइश के अनुरूप हो।

मैं दुनिया भर में फैले भारत के लोगों के बारे में बड़ी-बड़ी बातें सुनती हूं। अमेरिका के अग्रिम आईटी सेक्टर स्त्री-पुरुष काम कर रहे हैं। छात्र गरीबी और भूख पर काबू पाते हुए अपने सपने को साकार करने के लिए प्रयास कर रहे हैं। बहुत तरह की कमियों के बावजूद भारतीय लोग हर तरह की परिस्थिति में बेहतर जिंदगी के लिए प्रयासरत हैं। हमने अंधेरे दिनों को देखा है और उस अतीत से हम में से बहुत से लोगों ने सीखा है। दुर्भाग्य से नेताओं ने ऐसा नहीं किया। एक आम इंसान होकर हम उन्हें इस तरफ कैसे ले जा सकते हैं? हम उनकी सोच को कैसे बदल सकते हैं? महाभारत तो अब भी जारी है। वे लोग जो दुनिया भर में हमारे मुख्तार बने हुए हैं वे हमें तवज्जो ही नहीं दे रहे। वे अपनी सत्ता से क्या हासिल करना चाहते हैं? क्या हजारों हजार लोगों को वायरस से मर जाने देना है? 

रंगमंच अपने देश के जीवन का हिस्सा है। मैंने लगभग 50 नाटकों में अभिनय किया है। इस साल की शुरूआत में ही मैंने एक जर्मन उपन्यास पर आधारित नाटक ‘‘लेटर फ्राॅम एन अननोन वुमेन (1922)’’ में अभिनय किया। इसका दो मंचन जयपुर में और एक ग्वालियर में कोविड-19 के चलते जनता के आपसी मेलजोल पर पाबंदी के ठीक पहले हुआ था। यह नाटक एक ऐसी महिला के इर्द-गिर्द घूमता है जो एक लेखक के प्रेम में है जबकि वह लेखक के लिए वन नाइट स्टैंड की श्रृंखलाओं में से एक है। वह गर्भवती हो जाती है तब नाटक में जबरदस्त उफान सा आ जाता है। भारत एक रूढ़ और पितृ सत्तात्मक देश है लेकिन एक बेबाक महिला के बारे में खेला गया नाटक द्वितीयक शहरों में भी स्वीकृत हो जाता है। निश्चय ही, इतना तो कहा जा सकता है कि समाज में कुछ विकसित हुआ है। 

मैं मार्च से अपने घर के बाहर नहीं गई हूं। पिछली बार मैं 1984 में बंद हो गई थी। मैं नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में नाटक का रिहर्सल कर रही थी। यहीं पर मैंने रंगमंच का अध्ययन महान निर्देशक इब्राहीम अल्काजी के तत्वावधान में किया था। तब ख़बर आई कि इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई है। इसके तुरंत बाद से दंगे शुरू हो गये। एनएसडी मंडी हाउस में है। मेरा घर करोल बाग में था जहां से यह कई किमी दूर है। बसें नहीं चल रही थीं। मैं पैदल ही निकल पड़ी। लोग सड़कों पर दौड़ रहे थे। आग जल रही थी और हुजूम हिंसा की अफवाहें थीं। मैंने सुरक्षित घर पहुंच जाने पर खुद को केंद्रित किया और कुछ घंटों बाद में घर पहुंच गई। जब एक बार फिर एनएसडी खुला तब हम अपने काम में वापस आ गये। 

हम इस आपदा पर भी काबू पा लेंगे। क्योंकि जो शुरू होता है वह खत्म भी होता है। इस पूरी दुनिया में सब एक साथ हैं, खास कर आम लोग। हमें इंतजार करना होगा। हम इस महाभारत में जीतेंगे। 

(उत्तरा बावकर का यह लेख इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित हुआ था। इसका हिंदी अनुवाद लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता अंजनी कुमार ने किया है।)

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