यूपी: लव जिहाद और जाति उन्माद का पुलिस स्टेट

Estimated read time 1 min read

नए वर्ष में भी भाजपा सरकारों ने समाज को ऐसे कानूनों का तोहफा देने की जिद नहीं छोड़ी है जिनकी सम्बंधित तबकों को जरूरत नहीं है| स्वयं नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार इसी अंदाज में लेबर कोड और कृषि कानून थोपने के बाद दिल्ली सीमा पर एक अंतहीन दिखते जन आंदोलन से पार पाने में उलझी हुयी है| इसी तरह उत्तर प्रदेश में योगी सरकार द्वारा जबरी धर्मांतरण रोकने के नाम पर बना कानून टांय-टांय फिस्स सिद्ध होता दिख रहा है|

कानून का काम समाज में सुरक्षा की भावना भरना होना चाहिए जबकि पुलिस की कार्यवाही से इस भावना को बल मिलना चाहिए| लव जिहाद के नाम पर बना कानून ठीक इसका उलटा सिद्ध हुआ है| इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने सामने आये ऐसे मामलों में न सिर्फ पुलिस प्रशासन को लताड़ा है बल्कि एफआईआर तक भी रद्द कर दी है| सौ से अधिक पूर्व नौकरशाहों ने मुख्यमंत्री को खुला पत्र लिखकर इस कानून को जहरीला, साम्प्रदायिक और विभाजक ठहराया है|

मौजूदा रूप में, विधि विशेषज्ञों का मानना है, लव जिहाद कानून देर-सवेर अदालती स्क्रूटनी में असंवैधानिक करार दिए जायेंगे| लेकिन उनका सामाजिक आधार जो पितृसत्ता की ठोस जमीन पर टिका हुआ है, आसानी से नहीं कमजोर होने जा रहा| गए हफ्ते सासाराम, बिहार में विजातीय प्रेम प्रसंग में लड़के को पंचायत के सामने थूक कर चाटने की सजा दी गयी जिससे आहत होकर उसने आत्महत्या कर ली| जिस दिन लव जिहाद पर नौकरशाहों का पत्र मीडिया की सुर्खियाँ बटोर रहा था, रोहतक, हरियाणा में प्रेम विवाह से खार खाये लड़की के परिजनों ने लड़के और लड़की को सरे आम गोलियों से भून दिया| राजनीतिक / नौकरशाही हलकों में ऐसे मामलों पर रूटीन चुप्पी की ही परम्परा रही है|

पिछले दिनों यूपी पुलिस को एक और व्यर्थ कवायद में समय और ऊर्जा लगाते देखा गया| दिल्ली एनसीआर नोएडा में सड़क पर दौड़ते वाहनों पर लिखे जाट, गूजर, पंडित जैसे जातिसूचक शब्दों के लिए ट्रैफिक चालान काटने को जातिवाद विरोधी मुहिम से भी जोड़ा गया| जातिवाद की गहरी सामाजिक और राजनीतिक जड़ें सींचने वालों को जाति की ऐंठ के सार्वजनिक प्रदर्शन पर रोक लगाने के इस दिखावे से क्या मिलेगा? क्या आज लगभग हर व्यक्ति अपने नाम के आगे जातिसूचक शब्द नहीं लगा रहा? पुलिस को उपरोक्त ट्रैफिक मुहिम का माध्यम बनाना तो और भी विडम्बनापूर्ण कहा जाएगा| यूपी में लम्बे समय से चली आ रही प्रथा कि थानाध्यक्ष प्रायः मुख्यमंत्री की जाति-बिरादरी वाले ही लगते हैं, को योगी काल में भी पूरी हवा मिल रही है|

क्या मजबूत शासन का मतलब मजबूत के लिए शासन होता है? मोदी के लेबर कोड और किसान कानून इसी की बानगी हैं| कमोबेश तमाम सरकारों में इसके उदाहरण भरे मिलेंगे| भाजपा शासित राज्यों में से यूपी में यह धारणा सर्वाधिक काम करती दिखती है| वहां, ऐसे हाल में, रोजाना की सामाजिकता में भी पुलिस की दमनकारी भूमिका प्रमुख होती चली गयी है और कानून का शासन प्रायः पृष्ठभूमि में छिपता-छिपाता ही मिलेगा| यहाँ तक कि, आज यूपी में पुलिस के कंधों पर प्रेम और जाति प्रदर्शन की सीमा निर्धारित करने की समाजशास्त्रीय जिम्मेदारी तक डाल दी गयी है|

दरअसल, अपना राजनीतिक उल्लू साधने में भाजपा ने कानून व्यवस्था को संकुचित राष्ट्रवाद और साम्प्रदायिकता के पूरक स्तर पर इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है| इसके निहितार्थ गहरे हैं| दीर्घकालिक सन्दर्भ में, इन्हें सिर्फ रूटीन राजनीतिक पैंतरेबाजी, प्रशासनिक चेतावनी या जब-तब के अदालती दखल से निष्प्रभावी नहीं किया जा सकेगा| क्या वर्तमान किसान आन्दोलन जैसे जन उभार एक रणनीति हो सकते हैं? या तूफ़ान गुजर जाने के बाद इन्हें भी भुला दिया जाएगा| मत भूलिये, दांव पर बचा-खुचा लोकतंत्र है| पुलिस स्टेट की दस्तक जैसा है यह!

(विकास नारायण राय हैदराबाद पुलिस एकैडमी के निदेशक रह चुके हैं।)

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author