अंतरधार्मिक विवाह अध्यादेश: गणतंत्र से कबीलों के देश में बदलता भारत

भारत के हर नागरिक (स्त्री-पुरुष) को अपनी मर्ज़ी से, किसी से भी विवाह करने की आज़ादी है। अपने ही धर्म के व्यक्ति से विवाह करे या किसी दूसरे धर्म के व्यक्ति से। संविधान के अनुसार हर नागरिक को किसी भी धर्म को मानने या ना मानने की स्वतंत्रता है। इसमें ‘धर्मांतरण’ का अधिकार भी शामिल है। दरअसल अपने ही धर्म में विवाह करने पर किसी को कोई परेशानी नहीं। मगर दूसरे धर्म के व्यक्ति से विवाह करने पर घर-परिवार, खाप पंचायत से लेकर राजसत्ता तक सबको हमेशा परेशानी ही परेशानी (रही) है। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में विवाह के उद्देश्य से ‘धर्मांतरण’ करने को लेकर एक अध्यादेश जारी किया गया है, जिस पर राष्ट्रीय बहस गर्म है। चौपाल से अदालत तक बहस जारी है कि विवाह के उद्देश्य से किया गया ‘धर्मांतरण’ दंडनीय अपराध घोषित करना संवैधानिक है या नहीं?

भारतीय हिन्दू (बौद्ध, सिक्ख, जैन) किसी हिन्दू स्त्री या पुरुष (भले ही अंतर्जातीय विवाह हो) से ही विवाह करे, तो भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है। लेकिन…! अंतरधार्मिक विवाह को संचालित करने वाले बुनियादी कानून (विशेष विवाह कानून,1954) में प्रावधान है कि अगर कोई हिंदू (बौद्ध, सिख, जैन) किसी अन्य धर्मावलंबी से शादी रचता-रचाता है, तो संयुक्त हिन्दू परिवार से उसके सारे संबंध समाप्त माने समझे जाएंगे। हां! अगर पुत्र-पुत्री का संयुक्त परिवार की संपत्ति में कोई हिस्सा बनता है तो मिल जाएगा। हिन्दू परिवार में ‘अधर्मी-विधर्मी’ (बहू या दामाद) का क्या काम!

भारतीय हिन्दू किसी हिन्दू बच्चे को ही गोद ले, तो भी भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है। लेकिन…. किसी और धर्म का बच्चा गोद नहीं ले सकता। (हिन्दू दत्तकता अधिनियम, 1956)

अनुसूचित जाति के नागरिक जब तक हिन्दू (बौद्ध, सिक्ख) बने रहेंगे, तो ‘आरक्षण का लाभ’ मिलता रहेगा और मानना पड़ेगा कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, लेकिन… किसी अन्य धर्म को स्वीकार करेंगे तो आरक्षण समाप्त। आरक्षण चाहिए तो बने रहो (हिन्दू) दलित और बनाये-बचाये रहो हिन्दू बहुमत (बाहूमत)।

अनुसूचित जनजाति के सदस्य हिन्दू माने-समझे जाते हैं, क्योंकि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है। लेकिन… हिन्दू विवाह, दत्तकता और अन्य हिन्दू कानून उन पर लागू नहीं होते। इसी तर्ज पर अगर मुस्लिम शरणार्थियों पर नागरिकता संशोधन अधिनियम (2019) लागू नहीं होता तो भी भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है…रहेगा। ‘धर्मांतरण’ के प्रायः सभी वैधानिक रास्ते पहले ही बंद (किये जा चुके) हैं। फिर किसी भी नए अध्यादेश की क्या जरूरत आन पड़ी! हाँ! कहना कठिन है कि धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में ‘नास्तिकों’ की वैधानिक स्थिति क्या है (होगी)! इन मुद्दे पर ‘सुप्रीमकोर्ट के फैसले सर्वमान्य’ है। और यही है ‘धर्मनिरपेक्षता’ की भाषा-परिभाषा… अर्थ (अनर्थ)!


यहाँ उल्लेखनीय है कि कोई भी हिंदू विवाह जो अधिनियम से पहले या बाद में सम्पन्न हुआ हो, पति या पत्नी की याचिका पर तलाक की डिक्री द्वारा विच्छेद हो सकता है- इस आधार पर कि विवाह होने के बाद दूसरा पक्ष कोई अन्य धर्म अपनाने के कारण अब हिंदू नहीं रहा। (हिंदू विवाह अधिनियम,1955 की धारा 13) याद रहे कि सिर्फ धर्म बदलने से स्वतः तलाक नहीं होगा या मिल जायेगा। विधिवत तलाक लिए बिना, दूसरा विवाह करना दंडनीय अपराध है, जिसके लिए सात साल की कैद और जुर्माना हो सकता है। यदि दूसरा विवाह (बिना तलाक लिए) करते समय पहले विवाह के तथ्य छुपाए तो सजा दस साल तक कैद और जुर्माना भी हो सकता है। बशर्ते दोनो विवाह विधिवत रूप से हुए हों। (भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 494-495)

कोलकाता उच्च न्यायालय के एक निर्णय (1891 आईएलआर 264) के अनुसार राम कुमारी ने हिंदू धर्म छोड़, मुस्लिम धर्म अपनाकर एक मुस्लिम से विवाह कर लिया, जबकि उसका हिंदू पति जीवित था। माननीय न्यायमूर्ति मकफर्सन और एम.ए.बनर्जी ने तब फैसला सुनाया था कि धर्म परिवर्तन करने से, पहले विवाह का अंत नहीं हो जाता। ऐसा स्वीकार करना हिंदू धर्म की आत्मा के विरूद्ध होगा। लिहाजा राम कुमारी को भारतीय दंड संहिता की धारा 494 के अंतर्गत दोषी पाने के कारण एक माह की सश्रम सजा हुई। मद्रास उच्च न्यायालय ने भी बुदमसा बनाम फातिमा बी (1914 इंडियन केसेस 697) के मामले में कोलकाता उच्च न्यायालय के उपरोक्त निर्णय को सही ठहराया। इस तरह के सैंकडों निर्णय बताने-गिनाने की आवश्यकता नहीं। 

सरला मुद्गल बनाम भारत सरकार (ए.आई.आर, 1995 सुप्रीम कोर्ट 1531) में न्यायमूर्ति श्री कुलदीप सिंह और आर.एम.सहाय ने कहा कि एक हिंदू पति द्वारा इस्लाम धर्म अपनाने के बाद दूसरा विवाह करना (पहले हिंदू पत्नी से तलाक लिये बिना) भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 494 के अनुसार शून्य (वायड) विवाह है और दंडनीय अपराध है। हिंदू विवाह अधिनियम के तमाम प्रावधानों से स्पष्ट है कि आधुनिक हिंदू कानून कठोरतापूर्ण-एकल विवाह (मोनोगेमी) को ही लागू करता है। विभिन्न धर्मों के अलग-अलग व्यक्तिगत कानूनों में ढेरों अंतर्विरोध और विसंगतियों पर विचार विमर्श के बाद न्यायमूर्तियों ने समान नागरिक संहिता बनाने के संदर्भ में भी आदेश-निर्देश जारी किये थे। लेकिन समान नागरिक संहिता बनाने के तमाम संकल्पों को ही जहरीला सांप डस गया। उस पर अलग से बहस करना बेहतर होगा। फिलहाल इसे ‘बीच बहस में’ ही छोड़ना पड़ेगा।

‘धर्मांतरण’ को ही ध्यान में रखते हुए यह प्रावधान भी किया गया है कि कोई भी व्यक्ति किसी नाबालिग का अभिभावक होने का अधिकारी नहीं होगा, अगर वह अब हिंदू नहीं रहा हो। (हिंदू अल्पवयस्कता और अभिभावकता अधिनियम,1956 की धारा 6) मतलब, हिंदू पिता ‘धर्मांतरण’ के फौरन बाद, अपने बच्चों का अभिभावक या प्राकृतिक संरक्षक नहीं रह सकता। पति द्वारा धर्म बदलने के साथ ही, पत्नी- बच्चों की अभिभावक मानी-समझी जाएगी और यह व्यवस्था भी कर दी गई है कि मां चाहे तो बच्चे को गोद दे सकती है, अगर बच्चे का पिता अब हिंदू नहीं रहा है। (हिंदू दत्तकता और भरण पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 6, उपधारा 3) यही नहीं, धर्मांतरण के बाद व्यक्ति माँ-बाप की संम्पति का उत्तराधिकारी भी नहीं रह सकता। बहुत से अंतर्विरोध और विसंगतियां हैं! इन्हें कौन…. कब देखेगा?


मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम, 1939 से पहले पत्नी को तो तलाक लेने का कोई अधिकार ही नहीं था। सो धर्मांतरण से भी स्वतः तलाक कैसे हो सकता है? लगभग यही स्थिति हिंदू स्त्रियों की हिंदू विवाह अधिनियम बनने से पहले तक थी। आज़ादी के बाद समय-समय पर सरकार, धर्मांतरण के विरूद्ध प्रायः ऐसे आदेश-अध्यादेश जारी करती रही (रहती) है। कभी मध्य प्रदेश में और कभी ओड़िसा में।

विशेष विवाह अधिनियम, 1954 (जिसके अंतर्गत दो अलग अलग धर्म के व्यक्ति बिना धर्म बदले विवाह कर सकते हैं) में भी प्रावधान किया गया है कि धर्मांतरण से स्वतः विवाह बंधन खत्म नहीं होगा। विलायत राज बनाम सुनीला (ए.आई.आर, 1983 दिल्ली 351) में न्यायमूर्ति श्रीमती लीला सेठ ने कहा था कि धर्म किसी भी व्यक्ति की अपनी आस्था या आत्मा का मामला है और संविधान धर्म की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्रदान करता है। किसी भी अधिनियम या कानून के अनुसार विवाहित व्यक्ति द्वारा ‘धर्मांतरण’ किये जाने पर कोई भी प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता। हालांकि अगर वह अपना धर्म बदलता है तो उसे इसके परिणामों के लिए भी तैयार रहना चाहिए। ऐसे में ‘धर्मनिर्पेक्षता’ और ‘धार्मिक स्वतंत्रता’ के क्या अर्थ?

मुस्लिम कानून के अनुसार कोई भी मुस्लिम मर्द एक से अधिक विवाह कर सकता है, इसलिए मुस्लिम मर्दों पर तो भारतीय दंड संहिता की धारा 494-495 लागू नहीं होती। लेकिन मुस्लिम स्त्रियों पर लागू होती है, क्योंकि स्त्रियां सिर्फ एक पति (व्रता) होनी चाहिए। 1955 से पहले हिंदू मर्द भी एक से अधिक पत्नियां रख सकते थे। इसलिए दूसरा विवाह करना कोई अपराध नहीं था। मर्दों के लिए अपराध नहीं था मगर हिंदू स्त्री के लिए अपराध माना जाता था। (बाल) विधवाओं तक को (एक समय तक) पुनर्विवाह की इजाजत नहीं थी।


प्रायः सभी धर्मों में स्त्री को एक से अधिक पति रखने की अनुमति नहीं और पति से तलाक लेना (असंभव नहीं) बेहद मुश्किल (रही) है। परिणाम स्वरूप जब-जब किसी हिंदू, ईसाई, मुस्लिम या पारसी स्त्री ने धर्मांतरण के बाद दूसरा विवाह किया, तब-तब कानून (धारा 494) के जाल-जंजाल में फंसकर अदालतों द्वारा दंडित होती रही है।

विभिन्न धर्मों के व्यक्तिगत कानूनों में अलग-अलग नियम होने की वजह से अनेक अंतर्विरोध और विसंगतियां हैं, जिसे समान नागरिक संहिता बनाकर ही सुधारा या समाप्त किया जा सकता है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के तमाम आदेशों-निर्देशों के बावजूद अभी भी, समान नागरिक संहिता बनने की कोई संभावना दूर-दूर तक नजर नहीं आ रही। राजसत्ता पर पुरुष वर्चस्व के रहते, न राजनीतिक निर्णय बदलेंगे और न न्यायिक निर्णयों से कोई आमूलचूल परिवर्तन होने वाला है। ‘धर्मांतरण’ पर मौजूदा (अतीत भी) राजनीति हिंदुओं को हिंदू, मुस्लिम को मुस्लिम, ईसाई को ईसाई, दलितों को (हिन्दू) दलित और स्त्रियों को विवाह संस्था की घरेलू गुलाम बनाए रखना चाहती है। हवाई राजनीतिक घोषणा पत्रों से, धर्मनिरपेक्ष समाज की स्थापना असंभव है और हिंसक साम्प्रदायिक समय में न्याय (आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक) की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

संविधान के अनुसार भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है। हम भारत के लोग (नागरिक!) ऐसा ही कहते-मानते रहे हैं। मगर अक्सर यह महसूस होता है कि आज़ादी के बाद धर्मनिरपेक्ष संविधान के बावजूद, हम भारत को दरअसल ‘हिन्दूस्थान’ ही बनाते रहे हैं। सब मिल कर धर्म और जाति की बेड़ियां तोड़ने की अपेक्षा, मज़बूत करते रहे हैं। ऐसे दहशतज़दा माहौल में फिलहाल तो यही लगता है कि इस मुद्दे पर समय रहते विचार-पुनर्विचार या गंभीर चिंतन के सभी रास्ते खोलने की जरूरत है, ना कि जानबूझ कर बंद करने की। रास्ता भटक जाएं तो ‘यू टर्न’ लेकर लौटना ही बेहतर (लाज़िम) है।

(अरविंद जैन सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील हैं। और महिला सवालों पर लिखते रहते हैं।)

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