प्रतीकात्मक फोटो।

सरकार न केवल नीतिगत रूप से कन्फ्यूज है, बल्कि प्रशासनिक रूप से अक्षम भी है

2014 में भाजपा का नारा था, मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस। यानी छोटी सरकार, और अधिकतम दक्ष सरकार। पर जब 2014 के बाद सरकार के कुछ नीतिगत निर्णयों को देखते हैं तो लगता है कि सरकार भले ही दृश्य हो पर सरकार का कार्य न तो धरातल पर दिख रहा है और न ही सरकारी आंकड़ों में। सरकारी आंकड़े जिन्हें मशहूर जनकवि अदम गोंडवी फाइलों में गुलाबी मौसम की उपमा देते थे, वे भी अब गुलाबी नहीं रहे बल्कि अब वे भी उतने ही डराने लगे, जितने कि वे हकीकतन डराते हैं। 

2014 से 2016 तक तो सब कुछ ठीक चला। पर 8 नवम्बर 2016 की रात 8 बजे जो निर्णय सरकार या यूं कहिये प्रधानमंत्री ने लिया, उससे देश की आर्थिक स्थिति में जो गिरावट आयी उससे अब तक देश की आर्थिकी उबर नहीं पाई। इसी बीच देश मे कोरोना आपदा ने दस्तक दे दी जिससे देश की अर्थव्यवस्था को गम्भीर क्षति पहुंची है। 2014 के बाद सरकार की कुछ प्रमुख नीतियों की यदि समीक्षा की जाय तो यह स्पष्ट होगा कि इन कार्यक्रमों में न केवल नीतिगत अंधता थी, बल्कि प्रशासनिक अक्षमता भी इतनी है कि कहीं कहीं वह अक्षम्य सी दिख रही हैं। 

जो महत्वपूर्ण निर्णय इस सरकार ने लिये वे हैं, विमुद्रीकरण यानी नोटबन्दी, गुड्स एंड सर्विस टैक्स यानी जीएसटी, कोरोना  संक्रमण से बचने के लिये लॉक डाउन जिसे सामान्य तौर पर देशबन्दी कहते हैं, और अब कोरोना न हो इसके लिये सघन  टीकाकरण अभियान या वैक्सिनेशन कार्यक्रम। नोटबन्दी और जीएसटी का प्रत्यक्ष प्रभाव, देश की अर्थ व्यवस्था पर पड़ा है जब कि कोरोना आपदा ने, एक स्वास्थ्य खतरा होने के कारण, देश की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह से तोड़ दिया है। नोटबन्दी और जीएसटी जहां घरेलू नीतियों का परिणाम है, वहीं कोरोना आपदा एक वैश्विक महामारी है जिसका असर दुनियाभर की आर्थिकी पर पड़ा है। 

यदि 2019 के 31 मार्च तक के जीडीपी के आंकड़े देखें तो, साल 2016 में देश की जीडीपी, 8.26%, 2017 में 7.04%, 2018 में, 6.12%, 2019 में 5.2%, 2020 में 3.1% और अब तो नवीनतम आंकड़े आये हैं, उनके अनुसार, जीडीपी माइनस 23.9% पर आ गई है। हालांकि माइनस 23.9 % पर जीडीपी के गिरने का मुख्य काऱण, कोरोना आपदा है। लेकिन अर्थव्यवस्था में ठहराव 2016 के नोटबन्दी, से ही शुरू हो गया था। आज सरकार भले ही अपनी नीतिगत और प्रशासनिक अक्षमता स्वीकार न करे, लेकिन जब भी भविष्य में देश के इस कालखंड का आर्थिक इतिहास लिखा जाएगा, यह तथ्य डॉ. मनमोहन सिंह के शब्दों में कहें तो सदैव याद किया जाएगा कि, यह कदम एक संगठित लूट और सरकार की ऐतिहासिक विफलता थी। 

इस एक मूर्खतापूर्ण और बिना पर्याप्त विचार विमर्श तथा प्रशासनिक तैयारी के इस आर्थिक निर्णय ने देश की आर्थिकी के हर पहलू को बीमार कर दिया। लघु मध्यम और सूक्ष्म उद्योग धंधों को नकदी की कमी के वजह से मंदी झेलनी पड़ी, असंगठित क्षेत्र जिसका लेनदेन नकदी पर अधिक चलता है, उस पर इतना असर पड़ा कि उससे जुड़े कामगार, बेरोजगार हो गए। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में ऋणात्मक विकास यानी गिरावट लगभग दो साल तक लगातार रही। रीयल एस्टेट सेक्टर पर जो नजला गिरा वह आज तक नहीं उबर सका। 2016 के बाद सरकार ने बेरोजगारी के आंकड़े देने बंद कर दिए। 

एक और महत्वपूर्ण सेक्टर है, बैंकिंग का जो अपनी ऋण वसूली न कर पाने से एनपीए ग्रस्त हो गए। यस बैंक जैसा एक बड़ा निजी बैंक दिवालिया होने के कगार पर आ गया। कई सरकारी बैंकों को मिला कर बैंकों की संख्या कम करके उनकी आर्थिक स्थिति को छुपाने की कोशिश की गयी, पर असलियत सरकार छुपा न सकी। आज भी बैंक अपने बढ़ते एनपीए से त्रस्त हैं, और सरकार उन्हें कहाँ से संभाले, सरकार को तो अपने खर्च के लिये आरबीआई का रिजर्व तक उठाना पड़ा। आरबीआई से सरकार द्वारा रिजर्व उठाना ही इस बात का प्रमाण है कि सरकार आर्थिक मोर्चे पर विफल तो है ही और साथ ही दिशाहीन भी। 

अब कुछ महत्वपूर्ण आर्थिक निर्णयों के सम्बंध में हुयी सरकार की प्रशासनिक अक्षमता की भी चर्चा कर लेते हैं। नोटबन्दी का निर्णय कब, हुआ, क्यों हुआ और इस पर कोई विचार विमर्श कैबिनेट में हुआ या नहीं, यह आज तक देश को पता नहीं हो पाया, लेकिन यह लागू पहले हुआ और फिर उससे जुड़ी सारी प्रशासनिक तैयारियां बाद में की जाती रहीं। इसी अव्यवस्था में घोर दुर्व्यवस्था हो गयी। 150 लोग लाइनों में खड़े खड़े या अवसाद से या अपनी जीवन भर की बचत लुट जाने के गम में मर गए। नोटबन्दी से क्या क्या प्रशासनिक समस्याएं, बैंकों, आरबीआई और जनता के सामने आ सकती हैं, इस पर कोई विचार किया ही नहीं गया। बस एक सनकी राजा के आदेश की तरह राजाज्ञा की घोषणा हो गयी और लोग लाइनों में लग गए। ₹ 1000 और ₹ 500 के नोट अचानक चलन से बाहर हो गए हों देश की सम्पूर्ण मुद्रा का 85% था। क्या सरकार ने यह सोचने की जहमत उठाई कि देश की 85% प्रचलित मुद्रा जब चलन से बाहर हो जाएगी तो केवल 15% प्रचलित मुद्रा के दम पर आरबीआई और बैंकिंग सेक्टर उससे आसन्न मौद्रिक संकट से पार पा सकेगा ? 

जब ₹ 1000 और ₹ 500 के नोट रद्द किए गए तो, सरकार ने ₹ 2000 के नए नोट छापे। ₹ 2000 का चूरन मार्का, तथाकथित चिप वाला नोट आरबीआई ने पहले छापा, और जब उस नोट के एटीएम से निकलने में दिक्कत सामने आयी तो सभी बैंकों को अपनी एटीएम ट्रे कैलिब्रेट करानी पड़ी। क्या इतनी भी सामान्य समझ आरबीआई के अफसरों में तब विकसित नहीं थी कि इस साइज़ की करेंसी ट्रे, एटीएम मशीनों में है भी ? जबकि चिप पर पूरा गोदी मीडिया इतना लहालोट था कि बेचारा गोएबेल भी कब्र में उठ बैठा होगा। आज तक सरकार ने चिप लगे होने की फर्जी खबर चलाने वाले टीवी चैनल्स ज़ी न्यूज़ और आजतक के खिलाफ न तो कोई कार्यवाही की और न ही उन्हें अफवाह फैलाने के लिये चेतावनी भी दी। 

नोटबन्दी के बाद प्रशासनिक बदइंतजामी का आलम इतना था कि 8 नवम्बर 2016 से 31 दिसंबर 2016 तक, आरबीआई और वित्त मंत्रालय को कुल 150 से अधिक आदेश निर्देश, भूल सुधार आदि जारी करने पड़े। कभी कभी, सुबह कुछ और शाम को कुछ और संशोधन सरकार जारी करती थी। और जब यह पूछा गया कि आखिर नोटबन्दी ही क्यों गयी, तो, उत्तर आया, नकदी प्रवाह बढ़ गया था, उसे रोकने के लिये नोटबन्दी ज़रूरी थी । जब याद दिलाया गया कि सारी नकदी तो बैंकों में वापस आ गयी, तो कह दिया गया कि नक़ली करेंसी के प्रसार को रोकने के लिये यह कदम ज़रूरी था । और फिर जब इसके आंकड़े दिए गए कि नक़ली करेंसी तो बहुत ही कम है तो, कह दिया गया कि, यह कदम कैशलेस या लेसकैश इकॉनमी के लिये उठाया गया। यह भी कहा गया कि इससे काले धन पर अंकुश लगेगा और आतंकी फंडिंग थमेगी। पर सरकार ने ऐसा कोई भी आंकड़ा जारी नहीं किया जिससे कालेधन और आतंकी फंडिंग पर रोक लगने की पुष्टि हुयी हो। सबसे महत्वपूर्ण है यह नायाब आइडिया न तो नीति आयोग ने सुझाया था और न ही रिजर्व बैंक ने। मीडिया में जो खबरें उस समय आयीं थीं, उनके अनुसार यह एक निजी अर्थविशेषज्ञ द्वारा दिया गया आइडिया था। उस समय संसद में बहस के दौरान राज्यसभा सांसद आनन्द शर्मा ने तो, यह कह दिया था कि, इस कदम की जानकारी तो, खुद वित्तमंत्री अरुण जेटली को भी नहीं थी। अब सच क्या है, क्या पता। 

अंत में, जब प्रधानमंत्री को इस पूरे प्रशासनिक हड़बोंग में, कुछ भी समझ में नहीं आया तो उन्होंने गुजरात में एक जनसभा में कह दिया कि, बस कुछ दिन का समय दीजिए, नहीं सुधार हुआ तो किसी भी चौराहे पर आ जाऊंगा, लात मार कर निकाल देना। यह बयान हताशा का था और आत्मविश्वास की कमी का भी। प्रधानमंत्री जी, हमने आप को लात मारने के लिये नहीं, बल्कि शासन करने के लिये चुना है। आप को जनता ने चुना है, आप ही के द्वारा किये गए वादों, जिन्हें आप संकल्प कहते हैं, को पूरा करने के लिये। यह अलग बात है कि आप की पार्टी द्वारा किये गए वादों को तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष और प्रधानमंत्री के बाद सबसे मजबूत नेता और गृहमंत्री अमित शाह, जुमला कह कर उड़ा दें। 

एक देश एक कर, जीएसटी, आधी रात आयी आज़ादी, बिल्कुल फ्रीडम एट मिडनाइट की तर्ज पर संसद के केन्द्रीय सभागार में, घंट घड़ियाल बजाकर लागू की गयी। लम्बे समय तक कभी इसका सिस्टम बैठ जाता था, तो कभी, व्यापारी उखड़ जाते थे, एक जबरदस्त कन्फ्यूजन तो सीए साहबान के मन में भी रहा। आज तक यह सिस्टम ठीक नहीं हो पाया। अब तक सुव्यवस्थित नहीं हो पाया। अब तो राज्य सरकारें भी इससे दुःखी हैं। आखिर वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने यह तक कह दिया कि जीएसटी में खामियां हैं और यह अपेक्षा पर खरा नहीं उतर सका। यह कानून लागू करते समय, व्यापारियों और राज्य सरकारों से सभी संभावित समस्याओं पर न तो बातचीत की गई और न ही विचार विमर्श किया गया। 

2020 के मार्च तक देश मे कोरोना आपदा ने दस्तक दे दी थी। दवा कोई थी नहीं और टीके का तो कुछ अतापता ही नहीं था। पूरी दुनिया मे सोशल डिस्टेंसिंग और लॉक डाउन के प्रयोग आजमाए जा रहे थे। लेकिन भारत में, लॉक डाउन पहले घोषित किया गया औऱ देश के विभिन्न शहरों में फंसे प्रवासी मजदूरों का विस्थापन बाद में हुआ। लॉक डाउन लगाया ही इसलिए गया था कि, लोग अकेले में ही रहें ताकि संक्रमण रुक जाय। पर कश्मीर से कन्याकुमारी तक जब सकल प्रवासी कामगार सड़कों पर पैदल, साइकिल और जो भी यातायात के साधन मिले, उससे सैकड़ों किलोमीटर का फासला पार कर अपने घर के लिए निकल आये तो, इस महान कुप्रबंधन को देख कर, सरकार को भले ही कोई शर्म न आयी हो, पर बेचारा कोरोना वायरस तो पसीज गया और उसने किसी को भी नहीं संक्रमित किया। 

विडंबना यह कि, जब यह सब महा पलायन सड़कों पर हो रहा था, तब सरकार, बजरिये सॉलिसिटर जनरल, सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर के कह रही थी कि, 

” मेरे आका, सड़कों पर कोई मज़दूर नहीं है । सब अपने अपने घरों में महफूज हैं।”

अदालत भी बेचारी क्या करे। उसने भी वही मान लिया जो सरकार ने कहा। आखिर सरकार की बात मानना, कार ए सर जो बन गयी है। 

अब आइए कोरोना के टीकाकरण अभियान पर। दो टीके देश मे विकसित हुए हैं। एक सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया द्वारा दूसरा भारत बायोटेक द्वारा। कहते हैं बेहद धूम धड़ाके से कोरोना टीकाकरण का काम शुरू हुआ। अब टीका विज्ञान तो ठहरा विज्ञान, कोई धर्मग्रंथ या ईश तो नहीं कि उस पर सवाल न उठाएं जाएं या उसकी भावनाएं आहत हो जाएं। जब सवाल उठा तो, टीका बनाने वाले वैज्ञानिकों के बजाय सरकार समर्थक मित्र अधिक असहज होने लगे। वे भी आखिर क्या करें। असहजता, उनका तो, अब स्थायी भाव बन गया है ! कहते हैं इन दोनों टीकों का अभी तीसरा ट्रायल शेष है। इसी बीच जब सरकार के पास कुछ विशेष करने धरने को नहीं बचा तो वह घूम-घूम कर सबको सुई लगवाने लगी। लोग आगे भी आये। पर कोई वीआईपी टीका लगवाने के लिए सामने नहीं आया। कुछ साइड इफेक्ट भी इन टीकों के हुए। टीकों के साइड इफेक्ट होते भी हैं। यह सामान्य रासायनिक प्रतिक्रिया है। साइड इफेक्ट तो एस्पिरिन के भी होते हैं फिर यह तो नयी नवेली वैक्सीन है। लेकिन जब तीसरे चरण का ट्रायल पूरा नहीं हुआ और कुछ वैज्ञानिकों ने इस पर आपत्ति जताई तो सरकार ने इन पर विचार क्यों नहीं किया। यहां वही चिर परिचित राजनीतिक रणनीति अपनाई गयी कि यह विरोध नरेंद्र मोदी के कारण है। 

जब शिकायतें बहुत मिलने लगीं तब जाकर टीका कम्पनी ने एक एडवाइजरी जारी की है कि यह टीका किसको लगाया जाना चाहिए और किसे नहीं। अब अखबार कह रहा है कि, गर्भवती महिलाएं, एलर्जी, ब्लीडिंग डिसऑर्डर, बुखार पीड़ित, स्तनपान कराने वाली महिलाएं, स्वास्थ्य सम्बंधित अन्य गम्भीर मामलों से पीड़ित और जिन्हें पहले टीका लग चुका है, को नहीं लगाना चाहिए। क्या सरकार को यह पता है कि जिन्हें टीका इधर लग चुका है उनमें से कोई उपरोक्त टीका न लेने वाली श्रेणी में है भी या नहीं। यह सब करो या न करो तो पहले भी सरकार जारी कर सकती थी। लेकिन जब शासन करने की प्रशासनिक अक्षमता घुट्टी में ही मिली हो तो प्रशासन की ऐसी बारीकियां मुश्किल से ही समझ में आती हैं । 

अब किसान आंदोलन को ही ले लीजिए। जब कानून बना तो, न तो राज्यों से, न अर्थ विशेषज्ञों से, न किसान संगठनों से, न अपनी ही पार्टी के कृषि के जानकारों से कोई चर्चा की गयी। अब वार्ताकार मंत्रीगण, किसान संगठनों से कह रहे हैं कि, कानून तो वापस नहीं होगा, हां कुछ कमी बेसी हो तो बताओ। कमी तो कानून बनाने की नीयत में ही है, और कानून जिनके नाम पर बनाया गया है, उनके हित की तो बात ही छोड़ दीजिए, उनको बर्बाद करने के ही मक़सद से तो यह सब कानून लाया गया है। दस दौर की वार्ता हो चुकी है। बातचीत जिस बिंदु पर शुरू हुयी थी, उसी बिंदु पर अटकी हुयी है। सुप्रीम कोर्ट तक को यह टिप्पणी करनी पड़ी कि सरकार ने यह तीनों कृषि कानून बनाते समय, सभी संबंधित पक्षों से पर्याप्त विचार विमर्श नहीं किया। 

गज़ब मूढ़तंत्र है। अरुणाचल में चीन ने घुसपैठ कर के गांव बसा लिए और जब इस पर शोर मचा तो सरकार समर्थक अपने चिर परिचित एजेंडे, नेहरू विरोध पर आ गए और यह कहने लगे कि,  अरुणाचल की ज़मीन जवाहरलाल नेहरू ने चीन को दे दी थी । केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने ट्वीट कर के कहा कि, कांग्रेस ने पैसा लेकर उस जमीन को चीन को बेच दिया है। अब सरकार, अगर कांग्रेस ने पैसा लेकर ज़मीन बेच दिया तो, उन्हें पकड़े और जेल भेजे। देश के लोगों को भी तो पता चले कि कांग्रेस का कौन नेता, है जो पैसा लेकर देश की ज़मीन बेच देता है। इतनी बेबसी से राज नहीं चलता है सरकार । अजीब समझ और तमाशा है कि, यह सरकार, एक तरफ, कांग्रेस को देश की सारी समस्याओं की जड़ भी मानती है और दूसरी तरफ उसी के घोषणापत्र में दिए गए वादे भी पूरी करती है। कमाल है न ! 

(विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)

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