भारत के लिए कई दिक्कतें पैदा कर सकती है बाइडेन और ब्लिंकन की अफगानिस्तान योजना

प्राप्त सूचनाओं के अनुसार अफगानिस्तान के बारे में क्षेत्रीय वार्ताओं के लिए अमेरिका की नई रणनीति में भारत का शामिल किया जाना स्वागत योग्य है, लेकिन सप्ताहांत में अमेरिका के विशेष दूत खालीलजाद की विदेश मंत्री एस जयशंकर के साथ हुई वार्ता और अमेरिका के विदेश मंत्री एंथोनी ब्लींकन द्वारा अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी को लिखे पत्र से उपजे विवाद के कारण भारत के अमेरिकी नीति के बारे में महसूस किए संशय खत्म नहीं होते। समझा जा रहा है कि बातचीत के दौरान खालीलजद ने जयशंकर को ब्लिंकन के संदेश के बारे में बताया। उसके बाद वे पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल कमर बाजवा से मुलाकातों के लिए इस्लामाबाद गए। अमेरिका के विदेश विभाग के प्रवक्ता नेड प्राइस ने अमेरिका के इन क्षेत्रीय प्रयासों का खुलासा करते हुए बताया कि खालीलजद ने पाकिस्तान वालों का सहयोग देने के लिए धन्यवाद दिया और शांति प्रक्रिया में उनकी निरंतर प्रतिबद्धता के लिए अनुरोध किया।

इसके बारे में गनी को लिखे पत्र के अनुसार (जिसे अफगान एजेंसी टोलो न्यूज ने प्रकाशित किया है और अमेरिका या अफगान सरकार ने जिसे नकारा नहीं है) ब्लिंकन ने संयुक्त राष्ट्र को सुझाव दिया है कि रूस, चीन, पाकिस्तान, ईरान, भारत और अमेरिका के विदेश मंत्रियों और विशेष दूतों की एक मीटिंग बुलाई जाए जिसमें अफगानिस्तान के बारे में एक एकीकृत योजना पर विचार किया जा सके।

नई दिल्ली के लिए अमेरिका का यह सुझाव राहत भरा है क्योंकि भारत ने इससे पहले के (मूल मॉस्को योजना और अमेरिका की 6+2+1) दोनों क्षेत्रीय पक्षों का विरोध किया था उनमें अफगानिस्तान के केवल निकट्स्थ पड़ोसी देश को शामिल किया गया था और भारत को कोई जगह नहीं दी थी। फिर भी, विशेषज्ञों ने शंका जाहिर की है कि यह ग्रुप बनाने से लाभ क्या होगा।

ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के शोधार्थी कबीर तनेजा का मानना है कि ऐसा लगता है कि अमेरिका संयुक्त राष्ट्र द्वारा ऐसे ग्रुप के गठन का सुझाव देकर इस झमेले से जल्दी बाहर निकलना चाहता है। समझ नहीं आता कि चीन, रूस, ईरान और पाकिस्तान (जिनके साथ उसके संबंध असहज ही हैं) के साथ बातचीत कर के अमेरिका किस लाभ की उम्मीद लगाए बैठा है, या वह क्या अवरोध और प्रतिबंध लगा पाएगा। फिर भारत को इससे क्या फायदा होगा।

अमेरिका की वह योजना भी उतनी ही उलझन भरी है जिसके अनुसार उसने तुर्की को आगामी हफ्तों में समझौते की रूप रेखा तैयार करने के लिए एक उच्च स्तरीय मीटिंग आयोजित करने के लिए कहा है। अधिकारियों का मानना है कि इस संबंध में दोहा में चल रही प्रक्रिया के स्थान पर इस्तांबुल में ऐसी ही प्रक्रिया शुरू करने को वरीयता देना प्रस्तावित नाटो स्थिरीकरण बल में तुर्की और उसकी सेना को अतिरिक्त भागीदारी देने की मंशा हो सकती है। लेकिन तुर्की और पाकिस्तान के बीच मौजूदा अच्छे संबंधों के चलते भारत के लिए यह बात भी कई तरह से चिंताजनक है।

ब्लिंकन के पत्र के बाकी अंश और खालीलजद की बातचीत में सुझाए गए प्रस्ताव भी कुछ चिंताओं का विषय हो सकते हैं। इनमें से कुछ की चर्चा अमेरिका के रक्षा सचिव लॉयड ऑस्टिन के भारत के आगामी हफ्ते के दौरे में की जा सकती है। हालांकि अभी भी यह स्पष्ट नहीं है कि शुक्रवार 12 मार्च को अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन और भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की संभावित पहली शिखर वार्ता में अफगानिस्तान के लिए बन रहे इन प्रस्तावों पर चर्चा होगी या नहीं।

उदाहरण के लिए अमेरिका ने काबुल में एक नई समावेशी सरकार बनाने का खाका पेश किया है जिसके अनुसार अमेरिका ने गनी को हटाकर एक अंतरिम  सरकार बनाने का संकेत दिया है जिसमें तालिबान के प्रतिनिधि भी शामिल हों। ब्लिंकन ने पत्र में गनी को सरकार बनाने और शक्तियों के बंटवारे के बारे में तालिबान के साथ बातचीत करके सहमति बनाने को कहा है।

एक अधिकारी ने द हिंदू को बताया है कि इन प्रस्तावों में अफगानिस्तान के लिए एक अनिवार्यता सी झलकती है, क्योंकि ऐसा लगता है कि अमेरिका तालिबान को वैधता प्रदान करने का फैसला ले चुका है।

अमेरिका की इस नई योजना का ट्रंप प्रशासन के एक वरिष्ठ अधिकारी ने विरोध किया था। लिसा कर्टिस , राष्ट्रीय सुरक्षा काउंसिल की पूर्व निदेशक , जो आजकल न्यू अमेरिकन सिक्योरिटी सेंटर में हैं, का कहना है कि जब तक तालिबान पूर्ण युद्धविराम के लिए तैयार नहीं होते, एक अंतरिम सरकार के लिए मौजूदा लोकतांत्रिक संस्थान को तोड़ देने से तालिबान के अफगान सरकार को अवैध ठहराने और सेना द्वारा अफगान सरकार का तख्ता पलटने में मदद मिलेगी।

विशेषज्ञों का मानना है कि इसके अतिरिक्त अमेरिका की “विमर्श द्वारा समाधान और युद्ध विराम” के लिए सुझाई गई चर्चाओं में लोकतांत्रिक निर्देशों,  चुनी गई सरकार या औरतों और अल्पसंख्यकों के अधिकारों के बारे में कोई संकेत नहीं है। नई दिल्ली ने हमेशा इन बातों पर बल दिया है क्योंकि भारत का अफगानिस्तान के विकास और आधारभूत ढांचे में काफी कुछ दांव पर है।

एक कूटनैतिक स्रोत के अनुसार ब्लिंकन के गनी को लिखे गए पत्र का स्वर अपेक्षित औपचारिकता की शर्त भी नहीं निभाता। ब्लिंकन ने गनी को कहा है कि मेरी आवाज में मौजूद व्यग्रता को समझो। ब्लिंकन असल में अन्य विकल्पों पर विचार करते हुए पहली मई तक सेनाओं को पूरी तरह वापस बुलाने की धमकी दे रहे हैं। भारत (जिसने तालिबान से कभी खुल कर संवाद नहीं किया है) को हमेशा यह आशा रही है कि अमेरिका अफगानिस्तान में पुनर्मिलन की प्रक्रिया के पूरी तरह बहाल होने तक सभी के हित और लाभ सुनिश्चित करने के लिए कुछ सैनिक बल वहां जरूर रखेगा।

(पत्रकार सुहासिनी हैदर हिंदू में प्रकाशित लेख का हिंदी तर्जुमा महावीर सरबर ने किया है।)

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