क्या आदिवासी समाज में भी आ गयी है खापों की बीमारी?

मुंडा आदिवासी समुदाय में भी अन्य आदिवासी समाज की तरह एक ही किलि में शादी करना निषेध है। 

लेकिन अगर ऐसा हो जाता रहा  है तो किलि को कुछ नेग द्वारा ऊपर नीचे करके एक सहजता के साथ शादी को मान्यता दे दी जाती रही है।

कोई मुंडा मानकी व्यवस्था में 50 हज़ार का दंड नहीं तय किया जाता था। यह पूंजी, बाजार, धर्म और पितृसत्ता ही है जो आदिवासी वीमेन को टारगेट कर रही है।

वह नित्य खाप जैसी बनने को कोशिश कर रही है।

इस प्रकार की शादियों से उत्पन्न संतति को कभी भी बुरा भला कहकर नाजायज नहीं करार दिया जाता  था।

बल्कि वो उनको समाज मे जज्ब कर लेते थे।

अभी कुछ दिन पहले ही गैर आदिवासी से शादी को लेकर भी  आदिवासी समाज के अगुवाओं/ नेताओं के द्वारा यह बात चिंतनीय थी कि आदिवासी महिला अगर दूसरे जाति से शादी करे तो उसका कास्ट सर्टिफिकेट, उसका आदिवासी होना, उसकी नौकरी, उसको जमीन न खरीदने का अधिकार आदि चीज़ें करके आदिवासियत की रक्षा की जानी चाहिए।

यह मामला आदिवासी स्त्री को नियंत्रित करने के नाम पर किया जाने वाला कार्य है, जो अच्छा भी दिखाई पड़ रहा होता है, पर….

ऐसा नहीं है।

पुराने समय में भी ऐसी घटनाएं थीं और उसके उपाय मुंडा मानकी, पड़हा, आदि के पाश हुआ करते थे जो ज्यादा मानवीय थे।

राजनीति में भी यह सब बातें आदिवासी नेताओं के मुँह से लंबे काल से सुनने को आते रहे हैं । 

2018 के ट्राइबल एडवाइजरी कौंसिल की मीटिंग के मिनट्स में भी ये सभी राजनेताओं ने आदिवसी स्त्री के बाहरी समाज से शादी करने पर उनको क्या पनिसमेंट दिया जाए इस पर उन्होंने अपनी हामी भरी थी, जो दुर्भाग्यपूर्ण है।

आदिवासियों  के बीच भी  पितृसता का अस्तित्व इन्हीं सब घटनाक्रमों से आपके सामने आता रहा है।। 

“जमीन बचाने के लिए आदिवासी स्त्री को बाहर के समाज से विवाह नहीं करना चाहिए,” यह पक्ष लगातार रखा जाता है।

 पर जमीन, सत्ता, सरकार, पूंजीपति, आदिवासी पुरूष द्वारा आदिवासी समाज से निकलता जा रहा या सिर्फ महिलाओं की शादी से ही जमीन बाहरियों को जा रहा, इस पर खुलकर तथ्यात्मक तरीके से बात की जानी चाहिए।

मैं अपने पूरे होशोहवास में यह बात कह सकती हूँ कि इन चिंताओं पर एक सर्वे कराकर प्रतिशत निकालकर बात की जानी चाहिए।

सच का सच

और झूठ का झूठ सामने आ जायेगा।

HEC की जमीन गई, DVC पर जमीन गई, टाटा के पास जमीन गई, आर्मी ने जमीन ली, पुलिस ने जमीन ली, सरकारी संस्थानों ने जमीन ली, धार्मिक स्थलों ने जमीन ली। पर आरोप मात्र आदिवासी महिला पर।

“शादी की दिक्कू से”, “लाथ मार खाई”, “सौतन का दुख भोगी”,  “आदिवासी जमीन अपना नाम पर खरीद कर दिक्कू को बसाई”। इन सभी बातों का आधार चंद घटनाएं हैं। पर वह आज ऐसे में मस्तिष्क में भर दी गई हैं कि आदिवासी पुरुष साथियों के लिए हम सभी डायन, छिनाल और जितनी गालियों की फेहरिस्त आगे बढ़ाई जा सकती है, आप बढ़ा लें।

मैं आप सभी से, इस झूठ को सच मान लेने के पीछे की चालाकी को समझने की बात कहती हूँ।

आदिवासी समाज तेज़ी से बदल रहा है, ना चाहते हुए बदल रहा है, सो अपने जीवन मे सृजनात्मकता को जगह दें।

अपनी महिलाओं से की जाने वाली यह हिंसा नहीं सही जाएगी।

एक दो आदिवासी महिलाओं की ही अन्य समाज में शादी होती है। यह रेयर घटनाएं हैं। इसको लेकर एक आदिम समाज से लेकर आज तक हर आदिवासी पुरुष व स्त्री समानता को जीता आया था, उसे यूँ खत्म करने पर न तुलें।

टोडा आदिवासी समूह में शादी की चीज़ों को जाने समझें।

अन्य कई आदिवासी समाज में कई अच्छे प्रैक्टिसेज  हैं, उन्हें स्वीकारें, ना कि इस ब्राह्मणवादी व्यवस्था में लिप्त होकर अपनी महिलाओं को मानसिक  व शारीरिक लिंचिंग करने से बचें। अभी पिछले महीने संथाल भूमि एक भांजी और मामा की हत्या हुई, और उन्हें पेड़ में लटका दिया गया। यह वीभत्सता आप इन सभ्य कही जाने वाली जातियों से सीख रहे हैं न।

अपनी महिलाओं और अपने  पुरुषों को मारना बन्द करें।

यह आपका स्वभाव नहीं है।

आदिवासी स्त्री पुरुष  दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, और वह आज भी स्वभावगत जीवन जी पा रहे हैं।

जमीन के नाम पर, सेम किलि के नाम पर यह मनमानी नहीं चलने दी जाएगी।

आइये पितृसत्ता के इन झूठे किलों को ध्वस्त करें।

प्रेम करें, सृजन करें, और जीवन के आनंद को महसूस करें।  

आदमियत जिंदा है तो आदिवासियत भी ज़िंदा है।

आदिवासियत ज़िंदा है तो आदमियत भी जिंदा है।

महामारी ने, सत्ताओं ने कम नहीं मारा है कि अब खुद में भी मार काट करें।

(नीतिशा खलखो दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में अध्यापन का काम करती हैं।)

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