आखिर क्या है इस साम्प्रदायिक और जातिवादी कचरे का वैचारिक स्रोत?

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आजकल कुछ अंधभक्तों और नकली ज्ञानियों के पास भरा जातिवादी और साम्प्रदायिक कचरा उनके अपने दिमाग़ की उपज नहीं है। इस कचरे का मूल स्रोत तो धार्मिक पुनरुत्थानवादी संघ की विषैली और नफरत भरी विचारधारा में मौजूद है । आज यही सड़ी-गली पुनरुत्थानवादी शक्तियां संविधान का सहारा लेकर संवैधानिक तरीकों से शासन सत्ता पर काबिज़ होकर देश में जातिवादी और सांप्रदायिक माहौल पैदा करने के समाज और राष्ट्रविरोधी कार्यों में संलग्न हैं। ये धार्मिक पुनरुत्थानवादी शक्तियां सिवाय हिदुओं के अन्य किसी भी समुदाय को भारत में रहने देने के योग्य नहीं मानतीं। इतना ही नहीं ये शक्तियां हिंदुओं के ही 85 प्रतिशत दलित शोषित श्रमिक वर्ग तक को हिन्दू धर्म का अंग मानने तक को राजी नहीं हैं । इसीलिए ये शक्तियां हिंदुत्व का राग अलापते हुए नक़ली राष्ट्रवाद का अलख जगाए हुए हैं । 

भारत की आज़ादी की लड़ाई के दौरान जब ब्रिटिश साम्राज्यवादी भारत की जनता के बीच फूट डालो और राज करो की नीति के अंतर्गत अपनी साम्प्रदायिकता, जातिवाद और पृथकतावादी नीतियों को प्रोत्साहित कर रहे थे तब ये पुनरुत्थानवादी संघी उनके सुर में सुर मिला रहे थे। और “हिंदी-हिंदू-हिन्दुस्तान” जैसे साम्प्रदायिक नारों को लेकर “राजनीति का हिंदूकरण और हिन्दुओं का सैन्यीकरण” करने के जरिये समाज में फूट डालने का काम करते हुए ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की मदद कर रहे थे । 

दूसरों को सम्मान, आदर, त्याग, प्रेम, भक्ति, सकारात्मक दृष्टिकोण का उपदेश देने वाले ये धार्मिक पुनरुत्थानवादी दूसरों के प्रति क्या दृष्टिकोण रखते है, इसकी बानगी देखिए । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता एमएस गोलवलकर ने घोषणा की कि भारतीय मुसलमान एक दूसरी नस्ल के हैं और फ़लतः उन्हें यहां के नागरिक अधिकारों का दावा करने का कोई हक़ नहीं है। यही दोहराते हुए उन्होंने ज़हर उगलते हुए घोषणा की –

“…….हिंदुस्तान में बसने वाले गैर हिंदुओं को या तो हिन्दू संस्कृति और भाषा अपनानी होगी, हिन्दू धर्म का सम्मान और आदर करना सीखना होगा, हिन्दू नस्ल और संस्कृति के गौरव-गीत गाने के अलावा अन्य किसी विचार को निकट नहीं फटकने देना होगा, अर्थात उन्हें इस देश और यहां की दीर्घकालीन परंपराओं के प्रति न केवल असहिष्णुता और अकृतज्ञता की भावना त्यागनी होगी, बल्कि इसके प्रति प्रेम और भक्ति का सकारात्मक दृष्टिकोण सीखना होगा; एक शब्द में उन्हें विदेशीपन छोड़ना होगा, अथवा हिन्दू राष्ट्र का सेवक बनकर इस देश में रहना होगा, उन्हें कोई दावा करने का अधिकार नहीं होगा, किसी सुविधा के योग्य उन्हें नहीं समझा जाएगा, अधिमान्य व्यवहार की तो बहुत दूर रही, उन्हें नागरिक अधिकार मांगने का भी हक़ नहीं होगा। इसके सिवा….कोई दूसरा मार्ग उनके सामने नहीं।”

-एमएस गोलवलकर, वी और दि नेशनहुड डिफाइंड,  पृष्ठ 55, 1939

हिन्दू महासभा के अध्यक्ष भाई परमानंद ने न केवल हिन्दू-मुस्लिम एकता के नारे का परिहास किया बल्कि तथाकथित नीची जाति के हिंदुओं को उन मंदिरों में घुसने देने के अधिकार के लिए गांधीजी के आंदोलन का भी विरोध किया, जिनमें कथित ऊंची जाति के हिन्दू पूजा करते थे। मुस्लिम और कथित नीची जाति के प्रति ज़हर उगलते हुए उन्हेंने कहा-

“हिन्दू महासभा, जो सदा धार्मिक मामलों में निष्पक्षता की नीति बरतती आई है, किसी विशेष पंथ के अनुयायियों पर दबाव नहीं डाल सकती कि वे अपने मंदिरों के दरवाज़े, किसी ऐसे दूसरे वर्ग के लिए खोल दें, जिनके लिए वे वर्जित माने जाते रहे हैं।”

– भाई परमानंद, अजमेर में हिन्दू महासभा के अधिवेशन में भाषण देते हुए, अक्टूबर 1933

आरएसएस के एक अन्य नेता वीडी सावरकर का दावा था कि केवल हिन्दू ही भारतीय राष्ट्र के संगठक हैं । यही ज़हर उगलते हुए उन्होंने घोषणा की-

“उनकी हिंदुओं की समान संस्कृति है, क्योंकि हिंदुओं का ही अपना समान राष्ट्र है, समान संस्कृति है और वे भारत को न केवल अपनी मातृभूमि और पितृभूमि मानते हैं, वरन अपनी पुण्यभूमि भी मानते हैं । एकमात्र वे ही भारतीय राष्ट्र हैं ।”

-भारतीय चिंतन परंपरा के दामोदरन, पृष्ठ 490 में उद्धृत

आजकल ये धार्मिक पुनरुत्थानवादी शक्तियां नेहरूजी के ख़िलाफ़ ज़हर उगल रही हैं। उसका कारण भी इन संघियों की विचारधारा में ही मौज़ूद है। निष्पक्ष और तमाम पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर देखें तो पता चलेगा कि पूरे स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जितने भी नेता हुए नेहरूजी उन सब में सबसे अधिक प्रगतिशील, अति आधुनिक और वैज्ञानिक विचारों के नेता थे। पूंजीवाद के प्रवक्ता होने और अपनी तमाम राजनैतिक सीमाओं के बावजूद उन्होंने रूसी क्रांति और लेनिन की जमकर सराहना की और उन्होंने रूसी क्रांति से प्रभावित होकर ही भारत में समाजवादी विचार पर आधारित समाज व्यवस्था की कल्पना की और उसको लागू करने की असफल कोशिश भी की। आज़ादी के पहले और बाद में उन्होंने सड़ी-गली पुनरुत्थानवादी शक्तियों से जमकर लोहा लिया । इसीलिए आज सारा संघी जगत हाथ धोकर नेहरुजी का चरित्र हनन करने जैसे घिनौने कामों में लगा हुआ है। इन्हीं धार्मिक पुनरुत्थानवादी शक्तियों को लताड़ते हुए नेहरुजी ने कहा था-

“वे (सम्प्रदायवादी) किसी गुज़रे जमाने के अवशेष मात्र हैं। उनकी जड़ें न तो अतीत में हैं, न वर्तमान में, वे बीच हवा में लटके हैं। भारत हर चीज़ को और हर किसी को बर्दाश्त करता है, पागलों को भी बर्दाश्त करता है, पागल भी कायम रहते हैं और अपनी हरकतें करते रहते हैं। लेकिन हमें यह नहीं भूलना है कि उनका (सम्प्रदायवादियों का) सोचने-समझने का तरीक़ा बहुत ख़तरनाक तरीक़ा है। यह दूसरों की तरफ़ जबर्दस्त नफ़रत का तरीक़ा है। यह तरीक़ा ऐसा है जो आज के भारत के लिए बहुत बुरा है। अगर हम इस क़िस्म के सम्प्रदायवाद को कायम रहने देते हैं, फिर यह चाहे हिन्दू या मुस्लिम, सिक्ख या ईसाई सम्प्रदायवाद हो, तो भारत वह नहीं रहेगा, जो आज है। भारत के टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे।”

– जवाहरलाल नेहरू, दि डिस्कवरी ऑफ इंडिया 1955

( लेखक अशोक कुमार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं और आजकल सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त होकर गाजियाबाद में रहते हैं।)

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