सरकार का मास्टरस्ट्रोक नहीं, चुनावी मजबूरी है किसान कानूनों की वापसी

सरकार ने तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने का फैसला लिया है। इन कानूनों की वापसी, संसद में कानून बनाकर उन तीनों कानूनों को रद्द करके ही की जानी चाहिए। MSP पर भी सरकार को अपनी स्थिति स्पष्ट करनी होगी। एक अभूतपूर्व शांतिपूर्ण आंदोलन की यह एक बड़ी उपलब्धि है। गांधी आज भी प्रासंगिक हैं।

सरकार के इस फैसले पर राकेश टिकैत ने कहा है कि, आंदोलन तत्काल वापस नहीं होगा, हम उस दिन का इंतजार करेंगे जब कृषि कानूनों को संसद में रद्द किया जाएगा। सरकार एमएसपी न्यूनतम समर्थन मूल्य के साथ-साथ किसानों के दूसरे मुद्दों पर भी बातचीत करे।

एक अभूतपूर्व शांतिपूर्ण संघर्ष के लिये देश के समस्त किसानों को बधाई। दुनिया में शायद ही इतना लंबा और शांतिपूर्ण संघर्ष कभी चला हो। खुद गांधी जी के समय भी चलाये गए अनेक सिविल नाफरमानी आंदोलनों की अवधि भी इतनी लंबी नहीं रही। अहिंसक और शांतिपूर्ण आंदोलन को कुचलना आसान नहीं होता है। 

अपनी फसल, श्रम की उचित कीमत के लिये एक साल तक किसानों ने संघर्ष किया है। उनकी बात सुनने और समस्या का हल ढूंढने के बजाय, उन्हें ख़ालिस्तानी, आतंकी, देशद्रोही तक कहा गया है और सरकार/भाजपा/आरएसएस ने इन दुष्प्रचारों के खिलाफ एक शब्द भी नहीं कहा। पर अहंकारी सत्ता को झुकना ही पड़ता है।

किसान आंदोलन को तोड़ने के लिये सरकार ने कोशिशें भी बहुत की। राज्यसभा में संसदीय परंपरा को ताख पर रख कर, मत विभाजन की मांग को निर्लज्जतापूर्वक दरकिनार कर के, सभापति ने ध्वनिमत से इसे पारित घोषित कर दिया। यह लोकतंत्र नहीं है यह संसदीय एकाधिकारवाद था।

दुनिया के किसी भी देश ने एक लोकतांत्रिक आंदोलन के मार्च को रोकने के लिये अपनी ही राजधानी को किले में बदल दिया हो, यह शायद ही किसी लोकतंत्र शासित राज्य में मिले तो मिले। पर हमारे देश में ऐसा किया गया। एक भारत राजधानी में है, तो दूसरा सिंघु, टिकरी, गाजीपुर आदि राजधानी की सीमाओं पर।

किसान आंदोलन को शुरू में ही एक कमज़ोर और कुछ आढ़तियों का आंदोलन कहा गया। पंजाब के सिखों की भारी भागीदारी को देखते हुए इसे खालिस्तान समर्थक तक कहा गया। किसान दिल्ली न पहुंचे, इसके लिये सड़को की किलेबंदी की गयी।

दुनिया के किसी भी देश ने एक लोकतांत्रिक आंदोलन के मार्च को रोकने के लिये अपनी ही राजधानी को किले में बदल दिया हो, यह शायद ही किसी लोकतंत्र शासित राज्य में मिले तो मिले। पर हमारे देश में ऐसा किया गया।

भाजपा और RSS के इतिहास में रोटी, रोजी, शिक्षा, स्वास्थ्य से जुड़े आंदोलनों का उल्लेख नहीं मिलता है। गौरक्षा, रामजन्मभूमि जैसे आंदोलन इन मुद्दों से नही आस्था से जुड़े थे। आस्था पर भीड़ जुटा लेना आसान होता है, पर असल मुद्दों पर मुश्किल। क्योंकि उनका समाधान हवाई बातों से नहीं होता है।

किसान आंदोलन एक ऐसा आन्दोलन है जिसकी उपेक्षा प्रधानमंत्री से लेकर भाजपा आरएसएस के हर व्यक्ति ने की। जनता की समस्याओं के प्रति इतनी बेरुखी और कॉरपोरेट के प्रति इतनी हमदर्दी, यह भी सत्तर सालों में पहली ही बार देखने को मिली है। यह सरकार का मास्टरस्ट्रोक नहीं बल्कि चुनावी मजबूरी है।

एक लोककल्याणकारी राज्य का हर कानून जनहित में बनना चाहिए। जो जनता के जीवन स्तर और रोजी, रोटी, शिक्षा, स्वास्थ्य की मौलिक ज़रूरतों को पूरा करे। यह सब संविधान के नीति निर्देशक तत्वो में अंकित भी है। यदि सरकार की सोच में लोककल्याण का भाव नही है तो वह, लोकतंत्र नहीं है, बल्कि कुछ और है।

( विजय शंकर सिंह रिटायर्ड आईपीएस अफसर हैं और आजकल कानपुर में रहते हैं।)

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