खालिद जावेद और शारिक कैफ़ी को उर्दू अकादमी सम्मान

Estimated read time 1 min read

उर्दू अदब में बरेली ने अपनी एक अलग पहचान बनाई है। इस साल उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी ने उर्दू के जिन दो रचनाकारों को सम्मानित किया है, दोनों का वास्ता बरेली शहर से है। इस बार यह पुरस्कार उर्दू कथाकार खालिद जावेद और जाने-माने शायर शारिक कैफी को मिला है। दोनों रचनाकारों को एक लाख रुपये की धनराशि दी जाएगी। 

खालिद जावेद उर्दू कथा-साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनका बयानिया उनको दूसरे अफ़सानानिगारों से अलग करता है। उनकी कहानियों और नावेल में जिंदगी और क़ायनात के सियाह हिस्सों और इंसानी अस्तित्व को देखने का एक नया नज़रिया मिलता है।

9 मार्च, 1963 को उत्तर प्रदेश के बरेली शहर में जन्मे खालिद जावेद दर्शनशास्त्र और उर्दू साहित्य पर समान अधिकार रखते हैं। इन्होंने रूहेलखंड विश्वविद्यालय में पाँच साल तक दर्शनशास्त्र का अध्यापन कार्य किया है और वर्तमान में जामिया मिलिया इस्लामिया में उर्दू के प्रोफेसर हैं। इनके तीन कहानी संग्रह और तीन उपन्यास ‘मौत की किताब’, ‘ने’मतख़ाना’ तथा ‘एक ख़ंजर पानी में’ प्रकाशित हो चुके हैं। कहानी बुरे मौसम में के लिए लिए उनको कथा अवार्ड मिल चुका है। वर्जीनिया में आयोजित वर्ल्ड लिटरेचर कॉन्फ्रेंस-2008 में उनको कहानी पाठ के लिए आमंत्रित किया गया था।

2012 में कराची लिटरेचर फेस्टिवल में भी उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया था। खालिद की कहानी अमेरिका की प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी के साउथ एशियन लिटरेचर डिपार्टमेंट के कोर्स में शामिल है। आपकी कहानियों का अनुवाद हिंदी, अंगरेजी और जर्मन समेत कई भाषाओं में हो चुका है। खालिद की दो आलोचना पुस्तकें ‘गैब्रियल गार्सिया मारकेज़’ और ‘मिलान कुंदेरा’ भी प्रकाशित हो चुकी हैं। 

वहीं शारिक कैफ़ी उर्दू के जाने-माने शायर हैं और अपनी शायरी के खास मिजाज के चलते युवाओं में खासे लोकप्रिय हैं। शारिक कैफ़ी की शायरी में जीवन की छोटी-बड़ी सच्चाइयों का कुछ इस तरह बयान होता है कि वे फ़लसफ़े की शक्ल ले लेती हैं। उनके अश’आर ठहरकर कुछ सोचने को मजबूर करते हैं।

शारिक बरेली में 1961 में पैदा हुए और वहीं से बीएससी और एमए उर्दू की शिक्षा हासिल की। शायरी उन्हें विरासत में हासिल हुई है, उनके पिता कैफ़ी विज्दानी (सय्यद रिफ़अत हुसैन) भी एक मशहूर शायर थे। शारिक का पहला संग्रह ‘आम सा रद्द-ए-अमल’ 1989 में प्रकाशित हुआ। इसके बाद सन् 2008 में उनका दूसरा ग़ज़ल संग्रह ‘यहाँ तक रोशनी आती कहाँ थी’ और 2010 में नज़्मों का संग्रह ‘अपने तमाशे का टिकट’ प्रकाशित हुआ। बीते सालों में उनके दो संग्रह और आए हैं, जिनके शीर्षक ‘खिड़की तो मैंने खोल ही ली’ (2017) और ‘देखो क्या भूल गए हम’ (2019) हैं। शारिक देश-विदेश के मुशायरों में एक जाना-माना नाम हैं। उनको जश्न-ए-अदब अवार्ड और पंजाब केसरी अवार्ड मिल चुका है।

(जनचौक ब्यूरो की रिपोर्ट।)

+ There are no comments

Add yours

You May Also Like

More From Author