अदालत की डिक्री के माध्यम से पत्नी को अपने पति के साथ रहने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता: गुजरात हाईकोर्ट

गुजरात हाईकोर्ट ने कहा है कि मुस्लिम कानून के अनुसार, जैसा कि भारत में लागू है, एक पति को यह मौलिक अधिकार नहीं दिया गया है कि वह अपनी पत्नी को किसी अन्य महिला (पति की अन्य पत्नियों या अन्यथा) के साथ सभी परिस्थितियों में साझा होने के लिए मजबूर कर सके। जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस निराल मेहता की पीठ ने कहा कि वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए पति द्वारा दायर एक मुकदमे में, एक महिला को अदालत की डिक्री के माध्यम से भी अपने पति के साथ रहने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है।

इस मामले में हाईकोर्ट के समक्ष पत्नी ने फैमिली कोर्ट के उस आदेश को चुनौती दी थी, जिसमें उसे अपने वैवाहिक घर वापस जाने और वैवाहिक दायित्वों को निभाने का निर्देश दिया गया था। फैमिली कोर्ट के आदेश को पलटते हुए हाईकोर्ट ने सीपीसी के आदेश XXI नियम 32(1) और (3) के उद्देश्य का हवाला देते हुए कहा कि कोई भी व्यक्ति किसी महिला या उसकी पत्नी को सहवास करने और वैवाहिक अधिकार स्थापित करने के लिए मजबूर नहीं कर सकता है। अगर पत्नी सहवास करने से इनकार करती है, तो ऐसे मामले में, उसे एक मुकदमे में एक डिक्री द्वारा वैवाहिक अधिकारों को स्थापित करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है।

खंडपीठ ने इस बात पर भी जोर दिया कि मुस्लिम कानून एक संस्था या विधि के रूप में बहुविवाह को प्रोत्साहित नहीं करता है, केवल इसे सहन करता है और इसलिए, मुस्लिम पति की पहली पत्नी अपने पति (जिसने एक अन्य महिला से शादी कर ली है) के साथ इस आधार पर रहने से इनकार कर सकती है कि मुस्लिम कानून सिर्फ बहुविवाह की अनुमति देता है लेकिन इसे प्रोत्साहित नहीं करता है।

न्यायालय ने उदाहरण देते हुए कहा कि यदि मान लिया जाय कि पत्नी वैवाहिक विवादों के कारण अपने वैवाहिक घर को छोड़ देती है और इस बीच, पति दूसरी बार शादी कर लेता है और दूसरी पत्नी को घर ले आता है और साथ ही साथ अपनी पहली पत्नी के खिलाफ वैवाहिक अधिकारों की बहाली के लिए मुकदमा दायर करता है, क्या फिर भी न्यायालय द्वारा इस आधार पर दाम्पत्य अधिकारों की बहाली की डिक्री पारित करना उचित होगा कि एक मुस्लिम अपने पर्सनल लॉ के तहत एक समय में अधिकतम चार पत्नियां रख सकता है? ऐसी परिस्थितियों में, पहली पत्नी अपने पति के साथ इस आधार पर रहने से इंकार कर सकती है कि मुस्लिम कानून सिर्फ बहुविवाह की अनुमति देता है, लेकिन इसे कभी प्रोत्साहित नहीं करता है।

इसके अलावा, हाईकोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट के 7 जुलाई, 2021 के एक आदेश का भी उल्लेख किया, जिसमें यह कहा गया था कि केवल समान नागरिक संहिता (यूसीसी) ही संविधान में एक मात्र आशा नहीं रहनी चाहिए। गुजरात हाईकोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश का हवाला देते हुए कहा कि विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों में अंतर के कारण समाज में चल रहे संघर्ष पर खेद व्यक्त करते हुए, न्यायालय ने कहा है कि आधुनिक भारतीय समाज धीरे-धीरे समरूप होता जा रहा है और धर्म, समुदाय और जाति के पारंपरिक अवरोध धीरे-धीरे समाप्त हो रहे हैं।

भारत के युवा विभिन्न समुदायों, जनजातियों, जातियों या धर्मों से संबंधित हैं और अपने विवाह करते हैं। ऐसे में उन्हें विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों (विशेष रूप से विवाह और तलाक के संबंध में) में अंतर के कारण उत्पन्न होने वाले मुद्दों के साथ संघर्ष करने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए।

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि इस वर्ष की शुरुआत में, उच्चतम न्यायालय  ने हिंदू पर्सनल लॉ (हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9) के तहत वैवाहिक अधिकारों की बहाली की अनुमति देने वाले प्रावधान को चुनौती देते हुए फिर से दायर एक याचिका पर सुनवाई करने पर सहमति व्यक्त की थी। अदालत ओजस्वा पाठक द्वारा दायर एक जनहित याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9, विशेष विवाह अधिनियम की धारा 22 और नागरिक प्रक्रिया संहिता के आदेश XXI के नियम 32 और 33 को चुनौती दी गई है।

याचिकाकर्ता ने अपनी याचिका में तर्क दिया था कि अदालत द्वारा वैवाहिक अधिकारों की अनिवार्य बहाली राज्य की ओर से एक जबरन कार्य करवाने के समान है जो किसी की यौन और निर्णयात्मक स्वायत्तता, निजता और गरिमा के अधिकार का उल्लंघन करता है, जबकि यह सभी आर्टिकल 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के दायरे में आते हैं।

अगस्त 2021 में, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा था कि अपनी पत्नी को वापस पाने के लिए पति के पास बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबियस कार्पस) के रिट का उपाय, अनिवार्य तौर पर उपलब्ध नहीं है। पत्नी को पेश करने की मांग वाली एक पति की याचिका पर सुनवाई करते हुए, जस्टिस डॉ. योगेंद्र कुमार श्रीवास्तव की पीठ ने कहा था कि आपराधिक और सिविल कानून के तहत इस उद्देश्य के लिए उपलब्ध अन्य उपायों के मद्देनजर, अपनी पत्नी को वापस पाने के लिए पति के कहने पर बंदी प्रत्यक्षीकरण की रिट जारी करना अनिवार्य रूप से उपलब्ध नहीं हो सकता है और इस संबंध में अधिकारों का प्रयोग केवल तभी किया जा सकता है जब कोई स्पष्ट मामला बनता हो।

(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)

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