Tuesday, April 30, 2024

जब गांधी ने 125 वर्ष तक जीने की इच्छा त्याग दी थी!

इस समय जब पूरी दुनिया महात्मा गांधी की ओर उम्मीद भरी नजरों से देख रही है और उनके विचारों की प्रासंगिकता पहले से कहीं ज्यादा महसूस की जा रही है, तब भारत में सत्ताधारी जमात से जुड़ा वर्ग गांधी को नकारने में लगा हुआ है। इस समय देश में सांप्रदायिक और जातीय विद्वेष का माहौल भी लगभग उसी तरह का बना दिया गया है, जैसा कि देश की आजादी के समय और उसके बाद के कुछ वर्षों तक बना हुआ था। उसी माहौल से दुखी होकर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अपनी मृत्यु की कामना करते हुए कहा था कि वे अब और जीना नहीं चाहते। उसी माहौल के चलते उनकी हत्या हुई थी।

दरअसल महात्मा गांधी 125 वर्ष जीना चाहते थे। उन्होंने जब यह इच्छा जताई थी तब न तो देश का बंटवारा हुआ था और न ही देश को आजादी मिली थी, लेकिन उनकी हत्या के प्रयास जारी थे। गौरतलब है कि 30 जनवरी, 1948 को उनकी हत्या से पहले भी पांच मर्तबा उनको मारने की कोशिश की जा चुकी थी। दिलचस्प तथ्य यह भी है कि हत्या की पांच में से शुरू की चार कोशिशें तो महाराष्ट्र में ही हुई थीं, जो कि उन दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आरएसएस और हिंदू महासभा की गतिविधियों का केंद्र हुआ करता था।

गांधीजी ने 125 वर्ष जीने की इच्छा अपनी हत्या के चौथे प्रयास के बाद फिर दोहराई थी। उनकी हत्या का चौथा प्रयास 29 जून, 1946 को किया गया था, जब वे विशेष ट्रेन से बंबई से पूना जा रहे थे। उनकी उस यात्रा के दौरान नेरल और कर्जत स्टेशनों के बीच रेल पटरी पर बड़ा पत्थर रख दिया गया था, लेकिन उस रात ट्रेन के ड्राइवर की सूझ-बूझ से गांधी जी बच गए थे।

दूसरे दिन, 30 जून को पूना में प्रार्थना-सभा के दौरान गांधीजी ने पिछले दिन की घटना का जिक्र करते हुए कहा, ”परमेश्वर की कृपा से मैं सात बार अक्षरश: मृत्यु के मुंह से सकुशल वापस आया हूं। मैंने कभी किसी को दुख नहीं पहुंचाया। मेरी किसी के साथ दुश्मनी नहीं है। फिर भी मेरे प्राण लेने का प्रयास इतनी बार क्यों किया गया, यह बात मेरी समझ में नहीं आती। मेरी जान लेने का कल का प्रयास भी निष्फल गया।’’

इस प्रार्थना सभा में भी गांधीजी ने 125 वर्ष जीने की अपनी इच्छा दोहरायी थी, जिस पर नाथूराम गोडसे ने ‘अग्रणी’ पत्रिका में लिखा था: ‘पर जीने कौन देगा?’ यानि कि 125 वर्ष आपको जीने ही कौन देगा? यह पत्रिका गोडसे अपने सहयोगी नारायण आप्टे के साथ मिल कर निकालता था। महात्मा गांधी की हत्या से डेढ़ वर्ष पहले नाथूराम का लिखा यह वाक्य भी साबित करता है कि हिंदुत्ववादी जमात गांधीजी की हत्या के लिए बहुत पहले से ही प्रयासरत थी।

बहरहाल गांधी जी की 125 वर्ष तक जीने की इच्छा लंबे समय जीवित नहीं रह सकी। देश की आजादी और भारत के बंटवारे के बाद देश के कई हिस्सों में हो रहे सांप्रदायिक दंगों से गांधीजी बेहद दुखी और हताश थे। वे 9 सितम्बर, 1947 को अपना नोआखाली, बिहार और कलकत्ता मिशन पूरा करके दिल्ली लौटे थे।

रेलवे स्टेशन पर उन्हें लेने के लिए सरदार पटेल और राजकुमारी अमृत कौर पहुंचे थे। गांधीजी ने सरदार पटेल का बुझा हुआ चेहरा देखकर पूछा, ”सरदार क्या बात है? तुम गर्दन झुकाकर क्यों बात कर रहे हो मुझसे?’’ सरदार पटेल ने कहा, ”बापू दिल्ली शरणार्थियों से भरी पड़ी है और आपके रुकने के लिए इस बार बिड़ला हाउस में व्यवस्था की गई है।’’

गांधीजी बिड़ला हाउस में रुके, लेकिन अगले ही दिन से दिल्ली के दंगाग्रस्त क्षेत्रों का पैदल दौरा शुरू कर दिया। वे किंग्सवे कैम्प, कनॉट प्लेस, लेडी हार्डिंग कॉलेज, जामा मस्जिद, शाहदरा और पटपड़गंज सहित हर उस जगह गए जहां शरणार्थी केम्पों में लोग रह रहे थे। वे धैर्यपूर्वक लोगों की बात सुनते और बातचीत के दौरान उनका गुस्सा भी झेलते।

गांधीजी उन लोगों में से नहीं थे जो दूसरों के मन में उत्पन्न होने वाली भावनाओं के कारण अपनी आस्थाओं से समझौता कर लें। वे अपनी नियमित प्रार्थना-सभा में गीता के श्लोकों के साथ ही बाइबिल और कुरान की आयतें भी नियमित रूप से पढ़वाते थे। एक दिन शाम को प्रार्थना-सभा में अचानक किसी ने गुस्से भरी आवाज में जोर से नारा लगाया- गांधी मुर्दाबाद!

वहां मौजूद कुछ अन्य लोगों ने भी इस नारे को दोहराया। गांधीजी अवाक रह गए। जो काम 20 साल में दक्षिण अफ्रीका के गोरे लोग और 40 साल में अंग्रेज नहीं कर पाए वह काम उन लोगों ने कर दिखाया, जिनकी मुक्ति के लिए गांधीजी ने अपना जीवन होम कर दिया। वह उनके जीवन की पहली प्रार्थना-सभा थी जो उन्हें बीच में ही खत्म करनी पड़ी।

आजादी के बाद दिल्ली में बड़े पैमाने पर हो रही हिंसा से गांधीजी को आश्चर्य भी हो रहा था, लेकिन वे भली भांति समझ रहे थे कि इन दंगाइयों को कौन शह दे रहा है और क्यों दे रहा है। उन्हें अहसास हो गया था कि आजाद भारत किस दिशा में जाने वाला है। देश को हिंसा के रास्ते पर जाते हुए देख वे अपने उन सिद्धांतों से और मजबूती से चिपक गए जिनसे उन्हें दक्षिण अफ्रीका में शक्ति मिली थी। सत्य, अहिंसा, प्रेम और समस्त मानवता के प्रति उनकी आस्था में कोई बदलाव नहीं आया। अगर कुछ बदल गया था तो वह था हिंदुस्तान।

दिल्ली में हो रही हिंसा को रोकने के लिए गांधी की अपील का लोगों पर कोई असर नहीं हुआ था। दरअसल जो लोग हिंसा में लगे हुए थे और जो उन्हें उकसा रहे थे वे इस मानसिकता के थे ही नहीं जो गांधी के संदेश का मर्म समझ सकते। फिर भी गांधी को अपने संदेश की सार्थकता पर पूरा विश्वास था।

इस बीच 2 अक्टूबर 1947 आया। यह दिन आजाद भारत में महात्मा गांधी का पहला जन्मदिन था। जन्मदिन पर उन्हें बधाई देने और गुलदस्ते भेंट करने का सिलसिला शुरू हो गया। लॉर्ड माउंटबेटन भी अपनी पत्नी के साथ गांधीजी को जन्मदिन की बधाई देने पहुंचे। लेकिन शाम को प्रार्थना-सभा में उदास मन से गांधीजी ने पूछा, ”आज मुझे बधाइयां क्यों दी जा रही हैं? क्या इससे बेहतर यह नहीं होता कि मुझे शोक संदेश भेजा जाता?’’

उन्होंने कहा, ”आज मैंने 125 वर्ष जीने की इच्छा छोड़ दी और अब मैं अधिक नहीं जीना चाहता। 100 वर्ष भी नहीं, 80 वर्ष भी नहीं।” उन्होंने प्रार्थना सभा में आए लोगों से कहा, ”आप सभी आज की प्रार्थना सभा में ईश्वर से मेरे मरने की दुआ कीजिए। ईश्वर की इच्छा या फैसले में किसी को दखल देने का अधिकार नहीं है। मैंने एक धृष्टता करते हुए 125 वर्ष जीने की बात कही थी। लेकिन आज हालात बिल्कुल बदल गए हैं, इसलिए मैं विनम्रतापूर्वक 125 वर्ष तक जीने की इच्छा का त्याग करता हूं।’’

उनकी इस घोषणा के कुछ ही समय बाद 20 जनवरी 1948 को दिल्ली में ही उनकी हत्या का प्रयास किया गया। उस दिन नाथूराम गोडसे ने नई दिल्ली के बिड़ला भवन पर बम फेंका था, जहां गांधीजी दैनिक प्रार्थना-सभा कर रहे थे। बम का निशाना चूक गया था और नाथूराम भागने में सफल होकर मुंबई में छिप गया था। लेकिन महज दस दिन बाद ही 30 जनवरी को वह अपना पैशाचिक इरादा पूरा करने में कामयाब हो गया।

नाथूराम को उसके प्रशंसक एक धर्मनिष्ठ हिंदू के तौर पर भी प्रचारित करते हैं, लेकिन 30 जनवरी की ही शाम की एक अन्य घटना से साबित होता है कि नाथूराम कैसा और कितना धर्मनिष्ठ था। गांधीजी पर पर तीन गोलियां दागने के पूर्व वह उनका रास्ता रोककर खड़ा हो गया था। पोती मनु ने नाथूराम से एक तरफ हटने का आग्रह किया था, क्योंकि गांधीजी को प्रार्थना-सभा में आने के लिए कुछ देरी हो गई थी। धक्का-मुक्की में मनु के हाथ से पूजा वाली माला और आश्रम की भजनावली जमीन पर गिर गई थी। लेकिन नाथूराम उसे रौंदता हुआ ही आगे बढ़ गया था 20वीं सदी का जघन्यतम अपराध करने के लिए।

नाथूराम का मकसद कितना पैशाचिक रहा होगा, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि गांधीजी की हत्या के बाद पकड़े जाने पर खाकी निकर पहने नाथूराम ने अपनी पहचान एक मुसलमान के रूप में बताने की कोशिश की थी। इसके पीछे उसका मकसद देशवासियों के रोष का निशाना मुसलमानों को बनाना और उनके खिलाफ हिंसा भड़काना था। ठीक उसी तरह जैसे इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिक्खों के साथ हुआ था। देशवासियों को गांधीजी की हत्या की सूचना प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने एक रेडियो संदेश के माध्यम से दी थी। चूंकि उनके संदेश में हत्यारे के नाम का उल्लेख नहीं था,  इसलिए उनके संबोधन के तुरंत बाद गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने आकाशवाणी भवन जाकर रेडियो पर देशवासियों को बताया कि बापू का हत्यारा एक हिंदू है। ऐसा करके सरदार पटेल ने मुसलमानों को अकारण ही देशवासियों का कोपभाजन बनने से बचा लिया।

गांधीजी की हत्या के संदर्भ में नाथूराम गोडसे से हमदर्दी रखने वाले हिंदुत्ववादी नेता अक्सर यह दलील देते रहते हैं कि गांधीजी ने भारत के बंटवारे को रोकने का कोई प्रयास नहीं किया, उनकी वजह से ही पाकिस्तान बना और उन्होंने ही पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए दिलवाए, जिससे क्षुब्ध होकर गोडसे ने उनकी हत्या कर दी थी। ऐसी दलील देने के पीछे उनका मकसद गोडसे और उसके सहयोगियों को देशभक्त के रूप मे पेश करना और गांधीजी की हत्या के औचित्य को साबित करना होता है। ऐसी ही दलीलें गांधीजी की हत्या के बाद नाथूराम गोडसे के उस लिखित बयान में भी दी गई थीं, जो उसने अदालत में पढ़ा था।

इन दिनों भी जब देश के कुछ हिस्सों में गोडसे और उसके साथ फांसी पर लटकाए गए नारायण आप्टे की मूर्तियां और मंदिर बनाने के कृत्यों को अंजाम दिया जा रहा है तो इन्हीं दलीलों को प्रचारित किया जा रहा है। इन हत्यारों को शहीद, देशभक्त, क्रांतिकारी, स्वतंत्रता सेनानी, और चिंतक के तौर पर पेश किया जा रहा है।

लेकिन गोडसे के बचाव में दी जाने वाली ये सारी दलीलें बिल्कुल बेबुनियाद और बकवास हैं, क्योंकि महात्मा गांधी की हत्या के प्रयास तो लंदन में हुई गोलमेज कांफ्रेन्स में भाग लेकर उनके भारत लौटने के कुछ समय बाद 1934 से ही शुरू हो गए थे, जब पाकिस्तान नाम की कोई चीज पृथ्वी पर तो क्या पूरे ब्रह्मांड में कहीं नहीं थी। तब तक किसी ने पाकिस्तान का नाम ही नहीं सुना था, उन लोगों ने भी नहीं, जिन्होंने बाद में पाकिस्तान की कल्पना की और उसे हकीकत में बदला भी।

पाकिस्तान बनाने की खब्त तो ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के नेताओं के दिमाग पर 1936 में सवार हुई थी, जिससे बाद में मुहम्मद अली जिन्ना भी सहमत हो गए थे। पाकिस्तान बनाने का संकल्प 1940 में 22 से 24 मार्च तक लाहौर में हुए मुस्लिम लीग के अधिवेशन में पारित किया गया था। लेकिन इससे भी तीन साल पहले हिंदुत्ववादियों की ओर से औपचारिक तौर पर दो राष्ट्र का सिद्धांत पेश कर दिया गया था। गांधी की हत्या के मास्टर माइंड के तौर पर अभियुक्त रहे विनायक दामोदर सावरकर ने 1937 में अहमदाबाद में हिंदू महासभा के 19वें अधिवेशन मे अपने अध्यक्षीय भाषण में साफ-साफ शब्दों में कहा था कि हिंदू और मुसलमान दो पृथक राष्ट्र हैं, जो कभी साथ रह ही नहीं सकते। हालांकि यह विचार वे 1921 में अंडमान की जेल से माफी मांगकर छूटने के बाद लिखी गई अपनी किताब ‘हिंदुत्व’ मे पहले ही व्यक्त कर चुके थे।

इन सभी तथ्यों से जाहिर होता है कि महात्मा गांधी की हत्या के मूल में भारत विभाजन से उपजा रोष नहीं, बल्कि गांधीजी की सर्वधर्म समभाव वाली वह विचारधारा थी, जिसे उस समय के मुट्ठीभर हिंदुत्ववादियों के अलावा पूरे देश ने स्वीकार किया था। यही विचारधारा हिंदू राष्ट्र के दु:स्वप्नदृष्टाओं को तब भी बहुत खटकती थी और आज भी बहुत खटकती है। सांप्रदायिक नफरत में लिपटा हिंदू राष्ट्र का यही विचार गांधी-हत्या के शैतानी कृत्य का कारण बना था।

(यह लेख महात्मा गांधी के निजी सचिव रहे प्यारेलाल की पुस्तक ‘महात्मा गांधी: पूर्णाहुति’ (प्रथम खंड) और पुलिस में दर्ज गांधी हत्या की प्रथम सूचना रिपोर्ट में दी गई जानकारियों पर आधारित है।)

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल इलाहाबाद में रहते हैं।)

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