छत्तीसगढ़: क्यों आंदोलनरत हैं बिलासपुर के सफाईकर्मी?

बरसों पहले मशहूर भारतीय फिल्मकार सत्यजित रे ने अपनी एक फिल्म का प्रदर्शन अमेरिका में किया तो पहले शो में ही बहुत से गोरे दर्शक फिल्म को बीच में ही छोड़कर निकल गए। कारण यह था कि उस फिल्म के एक सीन में भारतीय लोग हाथों से खाना खा रहे थे। इसे देखकर उन्हें वितृष्णा होने लगी थी। इस आधुनिक कंप्यूटर टेक्नोलॉजी वाले युग में अगर वे लोग इंसान को हाथों से मल या फिर सीवरेज की सफाई करते देख लेते तो शायद बेहोश ही हो जाते। इस बात में कोई दो राय नहीं कि भारत में साफ़-सफाई का पेशा जाति व्यवस्था के शुद्ध-अशुद्ध के मूल सिद्धांत के साथ जुड़ा हुआ रहा है।

विगत दिनों छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में लायंस सर्विसेज के अंतर्गत काम करने वाले सफाई कर्मचारियों का एक आंदोलन हुआ। फरवरी माह के पहले सप्ताह भर चला यह आंदोलन कई मायनों में महत्वपूर्ण है। हालांकि अभी कुछ दिनों के लिए आन्दोलनकारियों ने अपने आंदोलन को स्थगित कर दिया है, लेकिन इसके फिर से उभरकर आने की सम्भावना दिख रही है। सफाई कर्मचारियों का इस तरह का आंदोलन विगत दिनों भिलाई नगर निगम में भी हुआ था। कुछ समय पहले इसी तरह का एक और आंदोलन रायपुर शहर में देखने को मिला था। छत्तीसगढ़ के प्रत्येक नगर निगमों में सफाई कर्मियों का आंदोलन एक नियमित हिस्सा बन चुका है। वर्तमान में बिलासपुर के इस आंदोलन को देखें तो इसका एक बुनियादी पहलू यह है कि जो आंदोलन मूलतः वेतन को लेकर आरंभ हुआ, वह आज जाति व्यवस्था को चोट पहुँचाने की ओर अग्रसर है।

जाति और काम के पेशे में अंतरसंबंध

महिला सफाई कामगार रंजीता करोसिया के अनुसार लायंस सर्विसेज (सफाई कर्मियों को रखने वाली कंपनी) के बिलासपुर प्रबंधक शैलेंद्र सिंह सभी को ‘नीच जाति के मेहतर लोग’ कहकर संबोधित करते हैं। रंजीता आगे कहती हैं कि भारत को आजादी मिली, अंग्रेज चले गए लेकिन आज भी हम ब्राह्मणवाद के गुलाम हैं। ‘कब तक हम जातीय अपमान को सहेंगे?’

बिलासपुर में धरना देते सफाई कर्मचारी

मामला तूल तब पकड़ा जब ‘नीच जाति’ के संबोधन को लेकर सफाई कर्मियों ने आपत्ति दर्ज की। बताते चलें कि दिल्ली की इस कम्पनी में अकेले बिलासपुर में भी 900 के आसपास महिला पुरुष कामगार कार्यरत हैं। जब आस पास के दलित कार्यकर्ताओं को इस बात की भनक लगी, तब आंदोलन में नया मोड़ आया। स्थानीय दलित सामाजिक कार्यकर्ता संजीत बर्मन कहते है कि यह कोई पहला मामला नहीं है, जिसमे जातिगत गली-गलौच से सफाई कर्मचारियों को संबोधन हुआ हो। भारत में साफ-सफाई का पेशा ही जाति व्यवस्था के आधार पर बना है और इसमें नया स्वरुप खासकर ठेका मजदूरों के सन्दर्भ में और भी कठोर परिस्थिति को जन्म देता है। ऐसा ही हाल बिलासपुर के लोगों का भी है और यही वजह है कि ठेकेदार मनमौजी व्यवहार भी करते हैं।

बर्मन आगे बताते है कि शैलेन्द्र सिंह का महिलाओं के प्रति रवैया बहुत ही आपत्तिजनक है। इस बात की पुष्टि दो अन्य महिला (गोपनीयता के अनुरोध पर नाम नहीं दर्शाया गया) कर्मचारियों ने भी की है। वे बताते हैं कि शैलेन्द्र हमेशा महिलओं को एप्रन उतारने को कहता है। यदि किसी कारणवश कभी काम पर नहीं आ पाईं तो, वह महिलओं को वापस आने पर पहले ऑफिस में आकर अकेले मिलने के लिए बोलता है। कई बार वह कई महिलाओं की ओर आपत्तिजनक तरीके से बढ़ता भी है। सफाई कर्मियों का कहना है कि इन्ही कारणों की वजह से हमने इस आंदोलन को जारी रखा है।

पूरा श्रम लेकिन दाम आधे से भी कम

इस पूरे आंदोलन का आरंभ मूलतः किसी और कारण से हुआ। सफाई कर्मियों को दिसंबर 2021 और जनवरी 2022 का मासिक भुगतान फरवरी के आरंभ तक नहीं मिला। अंजू खुरसेल के अनुसार, “यही गति हर महीने सफाई कामगारों के साथ बनी रहती है।” जब तक लोग आंदोलन कर हो-हल्ला न करे तब तक इसमें कोई भी भुगतान नहीं किया जाता। काम तो हम पूरा कर देते हैं, पर दाम आधे से भी कम, एक अन्य मजदूर हेमा त्रिमले बताती हैं। सफाईकर्मियों के अनियमित वेतन भुगतान की समस्या बिलासपुर ही नहीं, बल्कि पूरे देश में व्याप्त समस्या है।

धरना देते सफाई कर्मी

जब जनचौक द्वारा पूछा गया कि उनका मासिक वेतन कितना होता है, तो रंजीता बताती हैं, “वर्तमान में 7200/- प्रति महीना मिलता है, यदि सब दिन काम किये तो। जिस दिन नहीं जाते उस दिन की मजदूरी कट जाती है। भुगतान किस आधार पर किया जाता है, इस सवाल का जवाब किसी को भी ठीक तरह से पता नहीं है।” रोशन करोसिया के अनुसार “पुरुष और महिला का दैनिक वेतन एक ही है। यदि 31 दिन का महीना है, तो प्रति दिन 306/- के हिसाब से और 30 दिन का महीना हो तो प्रति दिन 317/- के हिसाब से भुगतान करते है। इसमें से 12/- प्रति दिन मेडिकल और 17/- प्रति दिन पी.एफ के नाम से भी कट जाता है।”

रंजीता कहती हैं, “सुबह 6 बजे बिना कुछ खाये पीए वह निकल जाती हैं और दोपहर बाद 3 बजे वापस घर लौट पाती हैं। हम अपने परिवार के लालन-पालन के लिए मेहनत करते हैं, अपने जान को दांव पे लगा देते हैं, उसके उपर हमें जातिगत अपमान भी सहना पड़ता है।”

सफाई कर्मियों की सुरक्षा का सवाल

बर्मन बताने है सफ़ाईकर्मियों को ना तो हादसों से सुरक्षा के इन्तज़ाम हैं और ना ही बीमारियों से बचाव के तरीके। दिखावे के कुछेक सतही बातों को छोड़कर यह सरासर कानून का उल्लंघन है। ज्ञात हो कि हर दिन देश में सीवर में गैस के चलते या काम के दौरान और दुर्घटनाओं से सफ़ाईकर्मियों की मौत की खबर आती रहती है। पिछले दो दशकों के आंकड़ों पर निगाह डालें तो हज़ार से भी ज़्यादा कर्मियों की मौत इन हादसों में हो चुकी है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कार्बन मोनोआक्साइड, हाइड्रोजन सल्फ़ाइड और मीथेन जैसी ज़हरीली गैसों के सीधे सम्पर्क में रहने के कारण कई तरह की साँस की और दिमाग़ी बीमारियाँ होती हैं। इसके अलावा दस्त, मलेरिया, टाइफ़ाइड और हेपेटाइटिस-ए जैसी बीमारियाँ का रिस्क बहुत रहता हैं। गंदे पानी में पलने वाले अनेक बैक्टीरिया बेहद गंभीर रोगों के  जन्मदाता हैं।

श्रम कानून और सफाई कामगार

रोशन सवाल करते है कि, ‘क्या सफाई कामगारों का कोई अधिकार नहीं?’ उल्लेखनीय है कि बिलासपुर के अलावा लायंस सर्विसेज कई अन्य शहरों में भी इस तरह का काम ठेके पर लेता है। श्रम कानूनों के अनुसार सबसे पहले ठेका प्रथा ही गैर-कानूनी है, दूसरी बात यह है कि अगर आप किसी कंपनी में एक साल से अधिक समय तक काम करते है तो आप उस कम्पनी के नियमित कर्मचारी हो जाते हैं। जिसके अनुसार जो सुविधाएँ बाकी नियमित कर्मचारियों को प्राप्त है जैसे कि ईएसआई कार्ड, मेडिकल बीमा, वार्षिक वेतन वृद्धि आदि वह सब सुविधाएँ उसे भी मिलनी चाहिए, परन्तु इनमें से कोई भी सुविधा हम लोगो को प्राप्त नहीं हैं जबकि कानून हम इसके हक़दार हैं।

रंजीता बताती हैं “शायद उनका वेतन बढ़ा है पर अभी तक इसका कोई अता-पता नहीं है।  कंपनी के किसी अधिकारी से पूछने पर कोई जवाब नहीं मिलता।”

मामला एस.सी/एस.टी एट्रोसिटी का

वेतन भुगतान में अनियमिता की वजह से यह आंदोलन हालांकि आरंभ हुआ, पर आज यह भारतीय समाज के जातिगत व्यवस्था पर तीखा प्रहार कर रहा है। इस मामले में शैलेन्द्र सिंह के खिलाफ एफ.आई.आर. दर्ज हो चुकी है, पर इसमें एस.सी/एस.टी एट्रोसिटी की धाराओं को शामिल नहीं किया गया। बर्मन के अनुसार ‘यह एक सोची-समझी साजिश के तहत इस प्रकरण में इन धाराओं को शामिल नहीं किया गया है। जिन धाराओं के अंतर्गत केस फाइल हुआ है, वो बहुत ही सामान्य है और इसमें बहुत आसानी से जमानत भी मिल जायेगा।’

इस प्रकरण में थाना प्रभारी के अनुसार इसकी जांच अभी जारी है और यदि एट्रोसिटी का मामला पाया गया तो उसे भी इसमें शामिल किया जायेगा। स्थानीय कार्यकर्ता इस कथन पर अविश्वास जताते हुआ कहते है कि जांच तो केवल बहाना है और ऐसा करके इस पूरे मामले को ठण्डे बस्ते में डालने का तरीका है। दिल्ली आधारित लायंस सर्विसेज के मालिक सुनिल सिंग से भी फ़ोन पर संपर्क साधने का प्रयास किया गया, पर इसपर कुछ ठोस जवाब नहीं मिला।

पी.यू.सी.एल छत्तीसगढ़ राज्य इकाई के अध्यक्ष डिग्री चौहान के अनुसार यह मामला दलितों के संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन का है। यह तथ्य गौर करने लायक है कि जहां पूरे छत्तीसगढ़ में शहरों की सफाई की पूरी जिम्मेदारी दलित समुदायों के जिम्मे डाल दी गई है, उस पर तुर्रा यह कि उनके पूरे श्रम और मेहनताने पर भी डकैती का पूरा मौका ठेकेदारी प्रथा लाकर प्रशासन ने ठेकेदार कंपनी को दे दिया है। समाज में वर्चस्वशाली जातीय ताकतों, शासन और ठेकेदारों के गठजोड़ के द्वारा बिना सुरक्षा मानकों के साथ उनसे काम लिया जाता है। काम के लंबे-लंबे घंटे और अनियमित वेतन भुगतान की सोची समझी साजिश के तहत सफाई कामगारों के मोहल्लों में सूदखोरी का एक जाल भी बिछा हुआ है और पीढ़ी दर पीढ़ी शोषण चलता रहता है। पूरे आंदोलन को सवर्ण मीडिया ने इसे महज़ वेतन संबंधित आंदोलन करार दिया है, जबकि कामगार समुदायों ने उनके ऊपर होने वाले परंपरागत शोषण और प्रताड़ना को हड़ताल के केंद्र में रखा है। यह एक नई शुरुआत है, और यह समाज के सबसे निचले हिस्से में बढ़ती चेतना और प्रतिरोध को चिन्हित करता है।

(छत्तीसगढ़ से डॉ. गोल्डी एम. जॉर्ज की रिपोर्ट)

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