फिर से वापसी की राह पर किसान आंदोलन!

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हवाओं में अब एक नए सवाल की आमद हो गई है। सवाल यह है कि क्या एक बार फिर देश के किसान कोई बड़ा आंदोलन करेंगे? किसान नेता राकेश टिकैत की मानें तो अब से तेरह महीने बाद ऐसा होने वाला है और इस बार आंदोलन फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर होगा। हालांकि आंदोलन की रूप रेखा की घोषणा उन्होंने नहीं की मगर आंदोलन का एलान तो सार्वजनिक रूप से कर ही दिया है। बेशक भारतीय किसान यूनियन में एक बार फिर टूट हो गई है मगर इस ग्यारहवीं फूट से भी किसानों पर टिकैत परिवार की पकड़ कमजोर नहीं होने वाली।

खैर, राकेश टिकैत की इस घोषणा के बाद अब यह जरूरी हो चला है कि दिल्ली की सीमाओं पर चले एक साल से अधिक लंबे किसानों के आंदोलन की समीक्षा की जाए और इस बात की भी पड़ताल की जाए कि क्या आंदोलन के बिना किसानों की समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता? यह भी समझना होगा कि कृषि संबंधी तीनों विवादित कानून वापस लेने के बाद केंद्र सरकार ने किसानों की अभी तक सुध क्यों नहीं ली? 

दरअसल शनिवार को दिल्ली स्थित गांधी शान्ति प्रतिष्ठान में किसान आंदोलन के विभिन्न पहलुओं को समेटती पुस्तक ‘ संकट में खेती : आंदोलन पर किसान ‘ का विमोचन हुआ था। जनपक्षीय लेखकों और पत्रकारों के लेखों से सुसज्जित इस किताब का संपादन किया है जाने माने पत्रकार अरुण कुमार त्रिपाठी ने। इस किताब में मेरा लेख ‘ किसान आंदोलन का पंजाब कनेक्शन ‘ भी शामिल किया गया है। पुस्तक का विमोचन संयुक्त किसान मोर्चा के समन्वयक डाक्टर दर्शन पाल, किसान नेता राकेश टिकैत और प्रोफेसर अभय कुमार दुबे ने संयुक्त रूप से किया था। कार्यक्रम में जहां अन्य किसान नेताओं ने अपने 378 दिन लंबे आंदोलन पर विस्तार से प्रकाश डाला वहीं राकेश टिकैत ने तेरह महीने बाद पुनः आंदोलन की घोषणा कर सबको चौंका दिया। 

जिस न्यूनतम समर्थन मूल्य यानि एमएसपी को लेकर आंदोलन की घोषणा की गई है वह कोई नया मुद्दा नहीं है। पिछले आंदोलन की मांगों में भी यह शामिल था और किसान चाहते थे कि इस पर कानून बने। सरकार ने तब घोषणा की थी कि एक कमेटी बना कर उसकी संस्तुति को वह लागू करेगी मगर पांच महीने हो गए मगर अभी तक कमेटी का ही गठन नहीं किया गया। किसान नेता छोटे किसानों को कर्ज के बोझ से निकालने की भी मांग कर रहे थे मगर उस पर भी चर्चा अभी तक नहीं हुई। किसान इस बात से भी कुपित हैं कि सड़कों से दस साल से अधिक पुराने डीजल वाहनों को हटाने की मुहिम में ट्रैक्टर को क्यों शामिल किया गया? बिजली के दाम और पानी की आपूर्ति भी मुद्दा है मगर सरकार की ओर से धरना समाप्त होने के बाद इस ओर भी अभी तक विचार नहीं किया गया । 

बेशक धरने और आंदोलन किसी के हित में नहीं हैं। पिछले आंदोलन में सात सौ से अधिक किसानों की मौत हुई थी और लाखों लोग सड़कें बाधित होने से हलकान हुए थे। देश का आर्थिक चक्का धीमा हुआ था सो अलग । मगर ऐसा क्यों है कि सरकार बिना धरने प्रदर्शन के सुनती ही नहीं? क्यों उसकी चिंताओं में किसान आखिरी पायदान पर खड़े नज़र आते हैं? जबकि देश की सबसे बड़ी आबादी खेती किसानी के बल पर ही जिंदा है। कोरोना और आर्थिक मंदी में भी देश की अर्थव्यवस्था किसानी के दम पर ही टिकी रही। पता नहीं क्यों सरकार को हवाई डींगे मारने से ही फुर्सत नहीं है।

बीस फीसदी पैदावार कम होने के बावजूद प्रधानमंत्री कुछ दिन पहले विश्व पटल पर डींग मारते हैं कि भारत पूरी दुनिया का पेट भरने में सक्षम है और फिर अचानक गेंहू का निर्यात बंद कर देते हैं। रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध के कारण गेंहू के दाम अंतरराष्ट्रीय बाजार में यूं भी चढ़े हुए हैं मगर भारतीय किसान को उसका फायदा ही नहीं मिल रहा। विचारणीय है कि क्या किसी बड़े औद्योगिक घरानों के हाथ में खेती होती, तब भी क्या सरकार ऐसा ही करती ? क्या तब रातों रात उनके पक्ष में फैसले नहीं हो जाते ?

(रवि अरोड़ा की रिपोर्ट।)

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