ग्राउंड रिपोर्ट: युवाओं में अभी जिंदा है अग्निपथ योजना की हताशा की आग

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बोकारो। अग्निपथ योजना को लेकर बेरोजगारों में जिस तरह से स्वत: स्फूर्त विरोध-प्रदर्शन शुरू हुआ और जब यह विरोध, आंदोलन में परिणत हुआ, तो एक बारगी लगा कि बेरोजगारों का यह आंदोलन, आंदोलनों के इतिहास में एक अलग कहानी लिखेगा। लेकिन कॉरपोरेट परस्त सत्ता द्वारा बड़ी चतुराई से सरकारी मशीनरियों का इस्तेमाल करके इन बेरोजगार आंदोलनकारियों को उनके भविष्य को लेकर परोक्ष व प्रत्यक्ष रूप से इतना डरा दिया गया कि आंदोलनों का एक नया इतिहास लिखने वाला यह आंदोलन एक बारगी सन्नाटा में बदल गया। युवाओं के बुने हुए सपने तार-तार हो गए, बावजूद इसके ​विरोध के स्वर लगभग गूंगे हो गए।

इस बाबत जब मैंने सेना में जाने की तैयारी कर रहे कुछ युवाओं से बात ​की, तो जो निष्कर्ष सामने आया, वह उस आग की तरह दिखा, जिसके ऊपर केवल राख दिखती है, लेकिन अंदर अंगारा दहक रहा होता है।

मैदान में तैयारी करने के लिए कुछ युवा।

कहना ना होगा कि भले ही सरकारी मशीनरियों का इस्तेमाल करके इन बेरोजगार युवाओं में डर पैदा करके आंदोलन को शान्त कर दिया गया हो, लेकिन इनके भीतर आक्रोश आज भी जिन्दा है, जो कभी भी विकराल रूप धारण कर सकता है, चाहे वह चार साल के बाद क्यों न हो। जाहिर है यह आक्रोश एक धारा खोज रहा है अपनी मंजिल तक जाने के लिए।

जब मैंने सेना में जाने की तैयारी कर रहे इन युवाओं से बात करने के लिए बोकारो स्टील शाखा के मजदूर संगठन समिति के सचिव, अरविंद कुमार से जानना चाहा कि ये युवा फिजिकल प्रैक्टिस कहां करते हैं? तो अरविंद कुमार ने 2 जुलाई को पौने 6 बजे सुबह ही फोन करके मुझे बोकारो जिले के सेक्टर — 8 बी में स्थित बीएसएल के हाई स्कूल के मैदान में आने को कहा।

मैं सात बजे के करीब वहां पहुंचा, तो देखा इक्के-दुक्के युवा मैदान में कहीं कहीं नजर आए। मैंने पूछा तो पता चला कि बहुत सारे नौजवान प्रैक्टिस करने नहीं आ रहे हैं। कारण शायद 4 साल की अग्निपथ योजना थी।

कुछ ने बताया कि जो युवा पिछले कई साल से प्रैटिक्स में थे और उन्होंने फिजिकल टेस्ट निकाल लिया है, उनकी रिटेन परीक्षा बाकी है। अब वे अग्निपथ योजना के आ जाने से हताश व निराश हो गए हैं।

21 वर्षीय राजेश कुमार ने बताया कि उनके भाई रंजन कुमार की केवल रीटेन परीक्षा होनी बाकी थी। तब तक यह योजना आ गई जिससे वह काफी निराश हो गया है। राजेश ने बताया कि वह भी पिछले पांच साल से प्रैक्टिस कर रहा है। वह कहता है अग्नि पथ योजना से निराशा हुई है, क्योंकि इसमें केवल चार साल का जॉब है, जिसमें कोई पेंशन नहीं है, जबकि चार साल के बाद कोई भविष्य नहीं दिखता है। मतलब चार साल के बाद धुंध ही धुंध है। वह बड़े आक्रोश में कहता है, दूसरी तरफ अगर कोई नेता एक साल या 6 महीने के लिए भी विधायक या सांसद बन जाता है तो वह पेंशन का हक‌दार बन जाता है। यह विसंगति क्यों है? क्या यह हमारे साथ अन्याय नहीं है?

राजेश बताता है कि अगर देश के तमाम जनप्रतिनिधियों (सांसदों-विधायकों) का पेंशन बंद कर दिया जाए तो डिफेन्स को काफी फंड हो जाएगा और बेरोजगारी भी दूर होगी। यह चार साल वाली योजना की जरूरत ही नहीं होगी। वह कहता है कि अग्निपथ योजना के तहत चार साल का जॉब हमारी मजबूरी है। कोई आप्शन भी तो नहीं है।

21 साल के सागर कुमार भी राजेश की तरह सांसद विधायकों के पेंशन पर रोष व्यक्त करते हुए कहता है कि कोई नेता अगर एक दिन के लिए भी सांसद विधायक बन जाता है, तो वह लाखों रुपए पेंशन का हकदार हो जाता है और हम 10’000 रूपए के भी हकदार नहीं हो सकते? जबकि हम देश सेवा के लिए डिफेन्स में जाने को तैयार हैं।

सागर कुमार आक्रोश में कहता चला जाता है कि चार साल बाद हम बंदूक चलाना सीख लेंगे और जब कोई विकल्प नहीं होगा तो हम गलत दिशा में भी जा सकते हैं।

20 साल के हर्ष राज में अग्निपथ योजना को लेकर कोई ज्यादा निराशा नहीं दिखी। उसने बताया कि चार साल के बाद तो बहुत सारे विकल्प सरकार ने दिए हैं। हम कहीं न कहीं सेटल हो ही जाएंगे। अंत में ग्यारह लाख रुपए भी मिल रहे हैं। जब हमने पूछा कि चार साल के जॉब के क्रम में जो वेतन मिलेगा तो क्या उससे आपका और आपके परिवार का भरण पोषण हो जाएगा? हर्ष ने साफ कहा कि यह समस्या तो है, लेकिन क्या किया जाएगा, कोई दूसरा विकल्प भी तो नहीं है।

20 वर्ष के ऋषि रंजन के विचार भी हर्ष राज के तर्ज पर थे। लेकिन अंत में उसने भी माना कि क्या किया जा सकता है कोई विकल्प भी तो नहीं है।

संदीप कुमार 18 वर्ष और ऋतिका कुमार 19 वर्ष कहते हैं कि स्थितियां काफी निराशा जनक हैं। लेकिन कोई उपाय नहीं है, हम क्या कर सकते हैं। इन लोगों ने भी सांसद-विधायकों के पेंशन की ओर इशारा किया कि हम देश सेवा में जाएंगे, लेकिन हम पेंशन के हकदार नहीं होंगे, जबकि एक दिन का सांसद विधायक पेंशन का हकदार बन जाएगा, यह हमारे देश के लिए एक बड़ा मजाक से कम नहीं है।

सब मिलाकर हमने देखा कि विकल्प के अभाव में यह युवा वर्ग अग्निवीर बनने को तैयार तो है, लेकिन भीतर भीतर भविष्य को लेकर काफी डरा-सहमा भी है। जबकि कुछ के भीतर आक्रोश अभी भी मौजूद है जो कभी भी फूट सकता है। शायद चार साल बाद भी।

(बोकारो से वरिष्ठ पत्रकार विशद कुमार की रिपोर्ट।)

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