भारत जोड़ो यात्रा: टीशर्ट, कोल्ड कंफ़र्ट और भारतीय राजनीति की संस्कृति

भारत की राजनीति हमेशा यहां की संस्कृति से प्रभावित रही है। जिन्होंने भी यहां की राजनीति में अपनी गहरी छाप छोड़ी है, उन्होंने यहां की संस्कृति को महज़ समझा ही नहीं था, बल्कि अपनी जीवन शैली को भी इस संस्कृति के अनुरूप आकार दिया था। लगता है कि राहुल गांधी ने बहुत देर से ही सही, मगर इस सूत्र को समझ लिया है या उन्हें समझा लिया गया है। राहुल इस सूत्र पर अमल करते भी दिख रहे हैं।

नरेंद्र मोदी की छवि बहुत ही करीने से बनायी गयी। उन्होंने बचपन में तालाब से मगरमच्छ निकाल लिया था, हिमालय की दुष्कर यात्रा की थी,बर्फ़ीली ठंड में कठिन तपस्या की थी और बुद्ध की तरह अपनी पत्नी को छोड़कर राष्ट्र सेवा में अकेले ही चल पड़े थे। नरेंद्र मोदी के बारे में यह कहानियां रची गयी हैं। इन कहानियों के पीछे सत्ता पाने की ताक थी।यह साध पूरी हुई और नोटबंदी, जीएसटी जैसे निर्णयों में उनके गढ़ी गयी छवि तार-तार होती दिखी। हालांकि, प्रचार तंत्र के बूते यह छवि इस क़दर गहरी रची गयी थी कि उसे ध्वस्त होने में समय लगा। हालांकि, पूरी तरह ध्वस्त होना अभी बाक़ी है।

बुद्ध, महावीर और शंकराचार्य ने भी नयी धार्मिक,समाजिक और सांस्कृतिक व्याख्या के ज़रिये लोकहित की सियासत की थी। उनकी सियासत का असर सदियों तक रहा। बाद में गांधी ने भी धर्म की नयी व्याख्या के माध्यम से लोकहित की सियासत की और जयप्रकाश नारायण ने भले ही धर्म की व्याख्या के ज़रिये सियासत नहीं की थी। लेकिन,आम लोगों के बीच उनकी छवि भी किसी संत से कम नहीं थी।लिहाज़ा,सबने अपने-अपने समय की स्थापित ताक़तवर सत्ता की जड़ों को हिलाया ही नहीं,बल्कि जड़ से उखाड़ फेंका।

इन सबमें अलग छवि बाबा साहेब अंबेडकर की रही। वह नफ़ासत से पहने टाई-कोट-पैंट में अपनी भिन्न सियासत करते रहे। लेकिन, उनकी सियासत बाक़ियों की सियासत, यानी मास पॉलिटिक्स वाली नहीं थी, बल्कि तर्क-वितर्क पर आधारित एकदम खांटी शैक्षिक थी। यही वजह है कि बाबा साहेब की पॉलिटिक्स का असर जितना उनकी ज़िंदगी में नहीं रहा, उससे कहीं ज़्यादा बाद के दिनों में हुआ। एकैडमिक पॉलिटिक्स की ख़ूबी ही यही होती है कि वह किताबों पर आधारित होती है। किताबों का असर उस लम्बे समय तक रहता है, जबतक कि उन किताबों में उठाये गये सवालों की परिणति अपने परिणाम तक नहीं जाती। इस हिसाब से बाबा साहेब अंबेडकर की पॉलिटिक्स को अभी और लम्बा सफ़र तय करना है,क्योंकि इसका असर उस तबके के स्तर-दर-स्तर होना है, जिसकी दशा और उसे दुरुस्त किये जाने की रणनीति पर उन्होंने कई किताबें लिखी हैं। अब दलितों में भी एक स्तर आर्थिक रूप से नवसवर्णों वाली हो गयी है।

शुरुआत में राहुल गांधी ने भी एक गहरी शैक्षिक छवि बनाने की कोशिश की थी।उसी कोशिश में अपने-अपने फ़ील्ड के कई माहिर लोगों से उन्होंने बातचीत की थी। रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया के गवर्नर रहे रघुराज रामन से बातचीत उसी कड़ी का एक हिस्सा थी। लेकिन, राहुल गांधी या उन्हें सलाह देने वाले शायद यह भूल गये थे कि एकैडमिक पॉलिटिक्स किसी तबके के लिए होती है और उसके लिए न सिर्फ़ बहुत लम्बे समय का इंतज़ार किया जाता है,बल्कि उसके लिए गहरी और शोधपरक किताबों की एक श्रृंखला लिखनी होती है।

राहुल को यह भी याद नहीं रहा कि एक मास अपील उन्हें विरासत में मिली है। उनकी पार्टी एक पारिवारिक प्रतिनिधित्व वाली पार्टी ज़रूर है है,लेकिन यह पार्टी आज़ादी से पहले हिंदुस्तान का एक अव्वल संगठन भी रहा है,जिसकी भूमिका आज़ादी पाने से पहले लम्बे संघर्ष और बलिदान की रही है। आज़ादी से पहले की पीढ़ी अब रही नहीं,और ऊपर से वह पीढ़ी आ गयी है,जिसे इतिहास से शायद बहुत ज़्यादा लेना-देना नहीं है। उन्हें इतिहास की कम जानकारी है और जो कुछ इस समय सोशल मीडिया से उन्हें मिल भी रही है, वह तोड़-मरोड़कर दी जा रही है। ऐसे में आज़ादी के संघर्ष में कांग्रेस की भूमिका से अनजान वोटरों का कांग्रेस के प्रति वह भाव नहीं हो सकता, जो राजीव गांधी तक था।

ऐसे में राहुल को एक ऐसी छवि की दरकार थी,जिसके भीतर आम आदमी की सहनशीलता प्रदर्शित होती हो।आम आदमी की समझ की झलक दिखती हो। राहुल की भारत जोड़ो यात्रा ने यह कमी पूरी कर दी है। अब लोगों को ऐसे लगने लगा है कि जिस नरेंद्र मोदी को उन्होंने संत माना था, उनके पास भले ही परिवार नहीं है,लेकिन उनका सम्बन्ध कॉर्पोरेट से जुड़ता है। नरेंद्र मोदी की पार्टी के चमचमाते ऑफिस और सुसज्जित सुविधायें, उनकी आंखों पर लगे महंगे चश्मे, बेशक़ीमती घड़ी और करीने से सजे उनके कोट की जेब में हज़ारों रुपयों की खोंसी हुई क़लम उन्हें अपने माथे पर कभी-कभी लगाये गये त्रिपुंड,गंगा आरती और बद्रीनाथ के मंदिर में तपस्या से अलग बिल्कुल कर देते हैं।

वहीं भारत जोड़ो यात्रा ने राहुल को ऐसी छवि बख़्शी है कि राहुल दिन में मिलों चलते हैं; महीनों से रोज़-रोज़ चल रहे हैं;उनके साथ सैकड़ों लोग चल रहे हैं;हर तबके के लोग चल रह हैं;जिसमें कॉर्पोरेट के पैसे नहीं लगे हैं और इस यात्रा की शैली इतनी साधारण है कि किसी को जुड़ने में कभी किसी तरह की कोई हिचक नहीं है। जिस सुविधाभोगी दौर में हम जी रहे हैं,उसमें चलना कितना मुश्किल है,यह कम से कम मध्यम वर्ग से लेकर उच्च वर्ग तक को ख़ूब पता है। राहुल का पैदल चलना इस दौर की एक ऐसी चीज़ है,जिसे तपस्या की भारतीय परंपरा के खांचे में ले आता है।राहुल जिस समृद्ध और वैभवशाली पारिवारिक पृष्ठभूमि से आते हैं,उसे देखते हुए उनकी यह यात्रा एक ख़ास तरह का मायने अख़्तियार कर लेता है।

उनकी भारत जोड़ो यात्रा अब उस उत्तर भारत से गुज़र रही है,जहां कड़ाके की ठंड है। इस समय यह ठंड हड्डी कंपा रही है। मगर,राहुल की देह पर सिर्फ़ टीशर्ट है। उनकी बॉडी लैंग्वेज़ बताती है कि इस ठंड का उनपर कोई असर नहीं है। आम भारतीय जनमानस मानता है कि साधुओं,संन्यासियों,फ़कीरों को ठंड नहीं सताती। ऊपर से पचास के ऊपर के राहुल कुंवारे भी हैं। यह एक तरफ़ उनकी इस छवि को भारतीय परंपरा में शुचिता की हैसियत हासिल हो जाती है,तो दूसरी तरफ़ यह छवि पौरुषता का अहसास भी कराती है।

पिछले आठ सालों में जिस तरह की टकराहट देखी गयी है, भारतीय समाज उसका आदी कभी नहीं रहा है।इससे अब आम जनमानस ऊबने लगा है। गहराते बेरोज़गारी और आर्थिक संकट की मार से ख़ासकर नौजवान बेहाल है।ऐसे में नई दिल्ली में भारत जोड़ो यात्रा के पड़ाव के दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कार्यालय में आयोजित राहुल की प्रेस कॉन्फ़्रेंस में सवालों के दिये गये जवाब लोगों में उम्मीद जगाते हैं। ये जवाब बताते हैं कि इस यात्रा ने उन्हें शिक्षा,रोज़गार,संस्कृति,राजनीति, और अर्थतंत्र की असलियत समझने में बेहद मदद की है। इससे लोगों की अपेक्षाओं को महसूस करने में भी सहूलियत हुई है।

कड़कती ठंड में महज़ टीशर्ट से काम चलाने से जुड़े सवाल का जवाब राहुल गांधी ने यह बताते हुए दिया कि इस पर वह अलग से एक वीडियो बनायेंगे,जिसमें वह बतायेंगे कि इसका राज़ क्या है और लोग कम कपड़ों में भी हार हिला देने वाली ठंड का किस तरह मुक़ाबला कर सकते हैं। यह जवाब लोगों से उनकी कनेक्टिविटी की एक ऐसी कड़ी है,जो राहुल को लेकर जिज्ञासा जगाती है। जिज्ञासा की सियासत असल में लोगों को लामबंद करती है,सियासत को चर्चा में बनाये रखती है और चर्चा में बने रहना ही सियासत को सत्ता की सीढ़ी बनता है,क्योंकि चर्चायें यूं ही नहीं होतीं। सोशल मीडिया के ज़रिये बना दिया गया कल का पप्पू आज नायक बनने की राह पर है और जिस कथित नायक के इशारे पर पप्पू बनाया गया था,वह बिना किसी तीन-तिकड़म के ख़ुद पप्पू बनने के अंजाम के मुहाने पर है।

महीनों से पैदल चलते राहुल की बेतरतीब बढ़ी हुई दाढ़ी, महंगी गाड़ियों में सफ़र करते मोदी की करीने से छांटी गयी दाढ़ी का मुंह चिढ़ाती है;दांत कटकटाती ठंड में स्थिर भाव वाले राहुल की साधारण टीशर्ट,मोदी के महंगे और स्टाइलिश वेश-भूषा का ख़ामोशी से मज़ाक उड़ाती है;शाहज़ादा क़रार दिया गया एक नौजवान त्याग से लोगों का सियासी संत बनता दिख रहा है और संतई की सियासत करते मोदी पाने की चाहत में ऐश्वर्य के प्रतीक बनते जा रहे हैं। राजनीतिक संस्कृति के ऐतबार से ये दोनों सियासी शैलियां आने वाले दिनों के साफ़ संकेत दे रहे ही हैं।

(उपेंद्र चौधरी वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

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