क्या भारतीय चुनावी राजनीति दो ध्रुवों में सिमट रही है?

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नई दिल्ली। 2024 का आम चुनाव अभी दूर है। लेकिन सत्तारूढ़ पार्टी के साथ ही विपक्षी दलों ने भी चुनावी तैयारियां शुरू कर दी है। राजनीतिक पार्टियों की तैयारी में एक प्रमुख बात जो दिख रही है, वह है किसी राजनीतिक साथी की तलाश। कांग्रेस समेत कई विपक्षी दल मोदी सरकार को हराने के लिए गठबंधन बनाने की कोशिश कर रहे हैं। यह कोशिश परवान भी चढ़ रही है, लेकिन सत्तारूढ़ भाजपा भी क्षेत्रीय ताकतों के साथ बैठक और गठबंधन करने की तैयारी में लग गई हैं। जबकि भाजपा के पास प्रचंड बहुमत है। यह बहुमत उसे 2014 और 2019 दोनों आम चुनावों में मिली थी। केंद्र में अभी तकनीकी रूप से एनडीए की सरकार है। लेकिन सरकार के लिए जरूरी बहुमत के लिए अकेले भाजपा के पास पर्याप्त संख्या है। दो-दो आम चुनावों में पूर्ण बहुमत पाने के बाद भी भाजपा अकेले दम पर चुनाव में न उतरकर क्षेत्रीय स्तर पर सहयोगी ढूढ़ रही है। और यह भी नहीं चाहती कि एनडीए के छोटे सहयोगी दल उसका साथ छोड़ें।

वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में भाजपा और कांग्रेस के साथ ही क्षेत्रीय क्षत्रप भी अकेले चुनाव में उतरने से करता रहे हैं। वे एनडीए या यूपीए के साथ गठबंधन बनाने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या राष्ट्रीय दल क्षेत्रीय दलों के सहयोग के बिना चुनावी मैदान में जीत का करिश्मा नहीं दिखा सकते है, और क्षेत्रीय दलों के साथ भी यही परेशानी है कि बिना किसी राष्ट्रीय दल के साथ समझौता किए उनकी राजनीति क्षेत्र या जाति विशेष तक ही सीमित रह सकती है।

दरअसल, 2014 में मोदी की सरकार बनने के बाद राजनीति और सरकार के मायने बदल गए हैं। यह सब भाजपा की सांप्रदायिक, फासीवादी और कॉर्पोरेटपरस्त नीतियों की वजह से हैं। सत्ता में आने के बाद से ही पीएम मोदी राजनीतिक विरोधियों को चुन-चुन कर ठिकाने लगा रहे हैं। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे विरोधी भाजपा के नेता हैं या विपक्ष के। मोदी सरकार विपक्षी नेताओं के खिलाफ ईडी, सीबीआई और जांच एजेंसियों का सहारा लेकर जेल के अंदर डालती रही है। यहां तक कि सिविल सोसाइटी और जन संगठनों के कार्यकर्ताओं को भी देशद्रोही, कानून विरोधी, माओवादी, ईसाई मिशनरियों और आतंकवादियों का समर्थक बताते हुए जेल में डालने का सिलसिला शुरू कर दिया। आंदोलनकारियों या राजनीतिक विरोधियों को न्यूनतम मौलिक अधिकारों से भी वंचित होना पड़ा। यह सब राष्ट्रवाद और देशप्रेम के नाम पर किया जा रहा है।

सरकारी उत्पीड़न के चलते समाज में ध्रुवीकरण की गति में तेजी आई। पत्रकार, बुद्धिजीवी, शिक्षक, किसान, युवा, महिला, दलित, अल्पसंख्यकों और आदिवासियों तक में एक विभाजक रेखा खिंच गई। अब जनता के बहुत बड़े तबके में यह देखा जा रहा है कि या तो वे भाजपा के साथ हैं या भाजपा के विरोध में हैं। क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों के समर्थक अब यह जानना चाहते हैं कि आप भाजपा के साथ हैं या विरोध में हैं। या चुनाव के बाद भाजपा से हाथ तो नहीं मिला लेंगे।

विपक्षी दलों ने विधानसभा और लोकसभा चुनाओं में गठबंधन भी बनाया। लेकिन भाजपा को हराने में सफल नहीं हुए। अतीत के गठबंधनों को ध्यान में रखते हुए अमेरिका यात्रा के दौरान कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने एक सवाल का जवाब देते हुए कहा कि “केवल गठबंधन बनाकर भाजपा-एनडीए को नहीं हराया जा सकता है। इसके लिए एक विचार और विजन की जरूरत है।”

जिस समय राहुल गांधी अमेरिका में भाजपा को हराने के लिए विचार और विजन की आवश्यकता बता रहे थे, उसी समय बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार विपक्षी दलों की एकता के लिए गठबंधन की बैठक करने की कोशिश कर रहे थे। अब 23 जून को विपक्षी दलों की बैठक होने जा रही है। कई दल इसमें शामिल होंगे और कई दलों ने एनडीए की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया है।

बंगाल की तृणमूल कांग्रेस, राजद, जेडीयू, एनसीपी, डीएमके, आम आदमी पार्टी, नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी और उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना जैसी कई पार्टियां बैठक में शामिल हो रही हैं। लेकिन बीजू जनता, बीआरएस, टीडीपी, जेडीएस, बसपा जैसे दल विपक्ष में रहने के बावजूद गठबंधन में शामिल नहीं हो रहे हैं। टीडीपी और जेडीएस का एनडीए में शामिल होने की बातचीत चल रही है, तो बहुजन समाज पार्टी का भाजपा के साथ एक अंडरस्टैंडिंग रहती है। रही बात बीजद और बीआरएस की तो लोकसभा चुनाव तक वे एनडीए या यूपीए से समझौता कर सकते हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि कुछ क्षेत्रीय दल विपक्षी दलों के गठबंधन में शामिल क्यों नहीं हो रहे हैं। इसके दो कारण हैं। पहला कारण राजनीतिक है और दूसरा कारण वैचारिक है।

भारत में बहुदलीय शासन व्यवस्था है। देश में कोई भी व्यक्ति राजनीतिक दल बना सकता है और निर्दलीय चुनाव भी लड़ सकता है। लेकिन देश की भौगोलिक, जातीय, धार्मिक, भाषाई और सांस्कृतिक विविधता के कारण अभी तक कोई एक दल सारे देश का प्रतिनिधितव करने में असफल रहा। एक समय तक कांग्रेस के बारे में कहा जाता था कि वह पूरे देश का प्रतिनिधित्व करती है, और सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय पार्टी है। बाकी दलों का प्रभाव किसी राज्य या क्षेत्र तक सीमित रहा। बाद के दौर में भाजपा का उभार हुआ लेकिन आज भी वह दक्षिण भारत में अपना पैर नहीं जमा पाई है। इसके लिए वह लगातार दक्षिण के क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन बनाने को आतुर रही है। भाजपा ने गठबंधन किया भी लेकिन खास वैचारिकी की वजह से दक्षिण भारत में अपनी पैठ नहीं बना सकी।

सफल और सशक्त लोकतंत्र के लिए राजनीतिक दलों की वैचारिक प्रतिबद्धता और चुनाव प्रणाली की पारदर्शिता और निष्पक्षता बहुत मायने रखती है। लेकिन 90 के दशक में भारत में जब चुनाव आयोग पारदर्शिता और निष्पक्षता का कीर्तिमान स्थापित कर रहा था तब भारत में एक नए तरह की राजनीति का सूत्रपात हुआ। वह गठबंधन की राजनीति थी, और गठबंधन के सामने कांग्रेस को हराने का लक्ष्य था। 1989 में कई क्षेत्रीय दलों का राष्ट्रीय मोर्चा के नाम से गठबंधन हुआ। उसी समय उसी लक्ष्य के लिए वामपंथी दलों का वाममोर्चा बना था। इस तरह रामो-वामो ने मिलकर कांग्रेस को सरकार बनाने से वंचित कर दिया।

भारतीय राजनीति में पहले साठ के दशक में और फिर नब्बे के दशक में राजनीतिक गठबंधन का दौर शुरू हुआ। साठ के दशक में कई राज्यो में गठबंधन की सरकार बनी थी। उस गठबंधन में जनसंघ और सोशलिस्ट पार्टियां शामिल थी। तब कांग्रेस की तानाशाही से मुकाबला था। उस दौरान राजनाति में कुछ मुद्दों पर सहमति और कुछ मुद्दों पर दोस्ताना संघर्ष का फार्मूला निकाला गया। सरकार चलाने के लिए न्यूनतम साझा कार्यक्रम का मॉडल तय किया गया। यहां से राजनीति में वैचारिक पतन का दौर शुरू होता है, जो आज तक जारी है।

गठबंधन की राजनीति से सबसे ज्यादा नुकसान ‘वैचारिकता’ और ‘राजनीतिक शुचिता’ को हुई। रातोंरात राजनीतिक दलों और राजनेताओं की वैचारिक-राजनीतिक निष्ठा में बदलाव आया। दलबदल का दौर शुरू हुआ। राजनीति में विचार की कीमत मिट्टी के बराबर भी नहीं रह गया। मंत्री बनने औऱ मनचाहा विभाग पाने तक के लिए ही सारी राजनीति सिमट गई। सरकार में शामिल होने के लिए कुछ कॉमन मुद्दों को खोज लिया जाता रहा। नब्बे के दशक में ही देश की राजनीतिक परिघटना में ‘सेकुलरवाद’, ‘राष्ट्रवाद’ और ‘सामाजिक न्याय’ की राजनीति का उभार हुआ। अब राजनीति में आप इन तीन तत्वों में से किसी के पैरोकार हैं, तो बाकी किसी चीज की जरूरत नहीं थी। लेकिन 2014 आते-आते ‘राष्ट्रवाद’ की राजनीति ने ‘सेकुलरवाद’ और ‘सामाजिक न्याय’ की राजनीति की सीमारेखा तय कर दी।

2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा ने कांग्रेस समेत अन्य दलों को राजनीतिक शिकस्त के साथ-साथ वैचारिक रूप से भी धराशायी कर दिया है। यह सच है कि भाजपा वैचारिक रूप से हिंदुत्व की पैरोकार है, एक समय तक शिवसेना को छोड़कर दूसरे दल हिंदूवादी राजनीति नहीं बल्कि धर्मनिरपेक्षता की राजनीति करते थे। भाजपा ने धर्मनिरपेक्ष दलों के सामने वैचारिक धरातल पर कड़ी चुनौती पेश की है। ऐसे में अधिकांश दल अब भ्रम के शिकार हैं। क्योंकि उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन भी भाजपा के विजय रथ को रोक पाने असमर्थ साबित हुई। ऐसे में विपक्षी दलों के राजनीतिक विमर्श में विचार एक बार फिर से महत्वपूर्ण होने जा रहा है। अब वे सिर्फ चुनावी जीत के लिए ही नहीं बल्कि एक वैचारिक प्रतिबद्धता भी दिखाना चाह रहे हैं जिससे समाज के विभिन्न तबकों में उनकी पकड़ मजबूत हो सके।

अमेरिका दौरे के दौरान राहुल गांधी ने कहा कि मुझे लगता है कि कांग्रेस पार्टी अगले चुनाव में बहुत अच्छा करेगी। इसका कारण वह कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता और कल्याणकारी राजनीति बताते हैं। जो भाजपा के हिंदुत्व की राजनीतिक का जवाब भी है। कर्नाटक चुनाव में कांग्रेस के भविष्य की राजनीति का संकेत भी मिल रहा है। जिसके कारण मुसलमान, दलित और अति पिछड़े कांग्रेस की तरफ जा सकते हैं। इसीलिए बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, भारत राष्ट्रवादी समिति और तेलगूदेशम जैसी पार्टियां कांग्रेस से गठबंधन करने को इच्छुक नहीं है।

अब जरा देखते हैं कि 2019 चुनाव में कांग्रेस–भाजपा का क्या प्रदर्शन रहा था। 2019 आम चुनाव में कांग्रेस ने 421 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 52 सीटों पर जीत हासिल की थी। बीजेपी ने साल 2019 लोकसभा चुनाव में 437 सीटों पर चुनाव लड़ा था, उनमें से 303 पर जीत हासिल की थी। बीजेपी को लोकसभा चुनाव में 38 फीसद वोट मिले थे, जबकि एनडीए गठबंधन ने 353 सीटों पर करीब 45 फीसद वोट मिला था। जबकि कांग्रेस को लगभग 20 प्रतिशत मत और यूपीए को 26 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे। लेकिन एनडीए और यूपीए के अलावा 29 प्रतिशत वोट क्षेत्रीय दलों के खाते में गया था।

इस तरह दो-दो आम चुनाव में मात खाने के बाद कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों को यह आभास हो गया है कि चुनावी हार-जीत के लिए गठबंधन बनाने की बजाए वैचारिक रूप से भी एक गठबंधन बनाना होगा तभी भाजपा-एनडीए से लड़ा जा सकता है। क्योंकि कांग्रेस की नजर में 55 प्रतिशत गैर एनडीए वोट है। ऐसी परिस्थितियों में अधिकांश क्षेत्रीय दल किसी एक गठबंधन के साथ होने की तैयारी में लगे हैं। 2024 के चुनाव में यदि देश में दो गठबंधन ही मैदान में उतरते हैं कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी।

(प्रदीप सिंह जनचौक के राजनीतिक संपादक हैं।)

प्रदीप सिंह https://www.janchowk.com

दो दशक से पत्रकारिता में सक्रिय और जनचौक के राजनीतिक संपादक हैं।

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