देशद्रोह पर लॉ कमीशन की रिपोर्टः कितना असल और कितना नकल

Estimated read time 1 min read

2016 में भारतीय कानून व्यवस्था में बेहद विवाद में रहने वाला 124ए यानी देशद्रोह के प्रावधान पर रिपोर्ट देने के लिए एक विधि आयोग का गठन किया था। 2022 में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्यन्यायाधीश एन.वी. रमन्ना ने इस प्रावधान को सरकार की ओर से होने वाले अंतिम निर्णय तक मुल्तवी रखने का निर्णय लिया।

अप्रैल, 2023 को विधि आयोग ने इस पर अपना रिपोर्ट जारी कर दिया और इसे बनाये रखने और साथ ही इसे और अधिक मजबूत करने की अनुशंसा भी दी। यह कानून लगभग 153 साल से चला आ रहा है, और अब इसे विधि आयोग के अनुसार भारत के सामने जो चुनौतियां खड़ी हैं उससे निपटने के लिए न सिर्फ इसे जारी रखा जाये, साथ ही कुछ प्रावधानों को जोड़कर इसे और भी सशक्त बना दिया जाये। इस संदर्भ में जनचौक पर इसकी राज्य के बदलते स्वरूप और इसकी प्रासंगिकता संदर्भ में एक लेख देखा जा सकता है।

लॉ कमीशन की रिपोर्ट पर एक टिप्पणी ‘लॉ कमीशन्स सेडिशन रिपोर्ट इन्फ्लूयेंस्ड बाय 2018 बुक दैड फेवरर्स रीटेंशन ऑफ मिसयूज्ड, कोलोनियल एरा लॉ आर्टिकल14’ नाम की वेब पत्रिका में छपी है, लेखक सौरव दास हैं। उनके अनुसार यह रिपोर्ट मनोज कुमार सिन्हा और अनुराग दीप की पुस्तक ‘लॉ ऑफ सेडिशन इन इंडिया एण्ड फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन’ से प्रभावित लगती है।

मनोज कुमार सिन्हा ‘इंडियन लॉ इंस्टिट्यूट’ नई दिल्ली के निदेशक और अनुराग दीप उपरोक्त संस्थान में प्रोफसर है। इस संस्थान के शासकीय काउंसिल में कानून से जुड़ी सर्वोच्च संस्थाओं के लोग होते हैं, इसमें सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश, सॉलिसिटर जनरल और लॉ कमीशन के चेयरपर्सन भी शामिल हैं।

सौरव दास लिखते हैं कि रिपोर्ट और किताब को एक साथ रखकर देखने से वाक्यांशों का समान होना, निष्कर्षों और दृष्टिकोणों की एक समानता दिखती है। इसमें लेखक और आयोग के विचार मिलते हुए दिखते हैं। यहां पुनः रेखांकित करना ठीक रहेगा कि 22 वें लॉ कमीशन ऑफ इंडिया के मुखिया कर्नाटक सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रितुराज अवस्थी हैं। उन्होंने 24 मई 2023 को केंद्रीय कानून और न्याय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल को पत्र लिखकर आईपीसी, 1860 के 124ए को बनाये रखने की अनुशंसा कर दिया था।

जबकि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमन्ना की पीठ वाली तीन जजों की बेंच ने 11 मई, 2022 को साफ-साफ कहा था कि 124ए एक औपनिवेशिक प्रावधान है जो वर्तमान समय में देश की सामाजिक हालातों और समय के अनुरूप नहीं है। इस बेंच ने इसे देश पर औपनिवेशिक भार कहा था। लेकिन, कमीशन की रिपोर्ट ने इन टिप्पणियों को नजरअंदाज किया और इसे न सिर्फ बनाये रखने, साथ ही इसे और सक्षम बनाने की अनुशंसा की है। हालांकि केंद्रीय मंत्री ने इस रिपोर्ट के संदर्भ में कहा था कि यह पेशकश है, बाध्यकारी नहीं है।

‘आर्टिकल-14’ पत्रिका का दावा है कि ‘लॉ ऑफ सेडिशन इन इंडिया एण्ड फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन’ पुस्तक के सह लेखक अनुराग दीप ने उनसे बातचीत में बताया कि ‘कानून मंत्रालय के पास मेरी किताब थी और उन्होंने इसे आयोग को भेजा। इसके बाद वे हमसे संपर्क में रहे और वार्ता के लिए मुझे आमंत्रित भी किया।’ उनके अनुसार आयोग ने उनसे बातचीत की और वे आयोग के सदस्यों से अलग-अलग मिले और बातचीत को जारी रखा।

इसके बाद वे फोन और ईमेल के जरिये लगातार संपर्क में बने रहे। आयोग ने भी अपनी वेबसाईट पर लिखा है वह विविध अध्येताओं, बुद्धिजीवियों, अकादमिक लोगों आदि से सुझाव लिया। सौरव दास 2018 में लिखी गई पुस्तक ‘लॉ ऑफ सेडिशन इन इंडिया एण्ड फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन’ का 194वें पेज का हवाला देते हुए विधि आयोग की रिपोर्ट को चिन्हित कर बताते हैं कि ये दोनों वाक्यांश एक ही हैं। लेकिन, आयोग की रिपोर्ट में इस पुस्तक का संदर्भ उद्धृत नहीं है।

इसी तरह से उपरोक्त पुस्तक में पेज 209 में संयुक्त राज्य अमेरीका में 1925 के एक केस का उद्धरण लिया गया है। आयोग की रिपोर्ट का बिंदु 8.13 में इसे हूबहू उठा लिया गया है। लेखक सौरव दास ने कुछ और भी अन्य समानताओं को चिन्हित किया है। यदि एक ही पुस्तक से इतने सारे उद्धरण और निष्कर्ष लिये गये हैं, तब निश्चित ही आयोग की रिपोर्ट में इस पुस्तक और लेखक का उल्लेख जरूरी बन जाता है।

यदि आलोचनात्मक रूख के साथ इसका प्रयोग किया गया है तब भी इसका जिक्र होना जरूरी है। लेकिन, उससे भी अधिक एक ऐसे संवेदनशील मामले में जिससे न्याय व्यवस्था और संविधान की मौलिक व्यवस्था पर असर पड़ रहा है, हजारों लोगों की जिंदगी प्रभावित हो रही है और लोगों की राजनीतिक क्षमता को कुंद किया जा रहा है, ऐसे में संदर्भों पर निर्भरता की बजाय एक स्वतंत्र निर्णय वाली क्षमता का प्रदर्शन ज्यादा जरूरी था।

खासकर जब असल और नकल के बीच का फर्क मिटने लगे और उससे सिर्फ न्यायप्रणाली ही नहीं राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था भी निर्णायक तरीके से प्रभावित हो रहा हो तब ऐसे रिपोर्ट और उसकी अनुशंसाओं पर सवाल उठाना जरूरी हो जाता है। ऐसी रिपोर्ट और अनुशंसाओं का असर बेहद भयावह और दूरगामी होता है।

यदि हम आंकड़ों में देखें तब 2010-2014 के बीच 3762 लोगों पर व्यक्तिगत आधार पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज किया गया था। 2014-2020 के बीच यह संख्या 7136 हो गई थी। इसमें अचिन्हित व्यक्ति भी गिने गये हैं।

ये आंकड़े आर्टिकल-14 द्वारा जारी प्राथमिक शोध पर आधारित है और अभी इस पर काम चल रहा है। इसमें 18 ऐसे मामले भी हैं जो अभी अंतिम निर्णय तक नहीं पहुंचे हैं। लेकिन, यदि हम दर्ज केसों में उछाल देखें, तब यह गुणात्मक छलांग जैसा दिखता है। आर्टिकल-14 के आंकड़ों के अनुसार इसमें से 149 ऐसे मामले हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना या आहत व अनादर करने के कारण से दर्ज हुए।

144 मामले में उपरोक्त संदर्भ में योगी आदित्यनाथ के संदर्भ में दर्ज हुए। 96 प्रतिशत मामले राजनेताओं, सरकारों की आलोचना आदि से जुड़े हुए हैं। राजनेताओं के समर्थन के बिना पुलिस द्वारा ऐसी कार्रवाई संभव ही नहीं है। इस संदर्भ में निचली अदालतों का रवैया भी इससे मेल खाता हुआ दिखता है।

यहां यह जानना भी जरूरी है कि यूएपीए के प्रावधानों की तरह ही लॉ कमीशन अपने रिपोर्ट में ‘इंटेंट’ की बात करता है और इसे अपराध की श्रेणी में डालने की अनुशंसा करता है। ऐसा लगता है कि असल और नकल के बीच से निकलती हुई लॉ कमीशन की रिपोर्ट ने जिस तरह की अनुशंसाएं कानून मंत्रालय को दी है। वह भाजपा नेतृत्व की सरकार की दमनकारी कानूनों के प्रयोग की प्रवृत्तियों को और भी संतुष्ट करती हुई अधिक लग रही हैं।

यह रिपोर्ट न्याय व्यवस्था, कानून और सरकार को जनता के प्रति अधिक उत्तरदायी बनाने के परिप्रेक्ष्य से खुद को दूर रखा है। उम्मीद है, सिविल सोसायटी और कानून से जुड़े संस्थान व कानूनविद और जन संगठन इस रिपोर्ट की आलोचना कर लोगों को आगाह करेंगे, जिससे कि इसकी अनुशंसाए जनता पर और अधिक दमन को बढ़ाने में उपयोग न की जा सकें।

(अंजनी कुमार पत्रकार हैं।)

You May Also Like

More From Author

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments