महाराष्ट्र में दल-बदल के पीछे आखिर कौन सी शक्तियां काम कर रही हैं?

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महाराष्ट्र विधानसभा 288 विधायकों वाला सदन है। लोकसभा चुनाव के लिहाज से उत्तरप्रदेश (80 सांसद) के बाद दूसरा सबसे महत्वपूर्ण राज्य महाराष्ट्र (48) ही है। इसके अलावा बिहार (40), पश्चिम बंगाल (42) और तमिलनाडु (38) के अलावा कर्नाटक (28) राज्य हैं, जो केंद्र में सरकार बनाने के लिहाज से सबसे अहम हैं।

उत्तरप्रदेश (62+2 अपना दल) को छोड़ दें तो वर्तमान में भाजपा को 2019 में इन बड़े राज्यों से महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना को 23+18 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। बिहार में जेडीयू के साथ गठबंधन में 40 सीटों में से 17 भाजपा, जेडीयू 16 और एलजेपी 6 के साथ 39 सीटें हासिल की थीं। कर्नाटक में 28 में से 25 अकेले भाजपा के हिस्से में आई थी। पश्चिम बंगाल में 42 सीटों में से 18 सीटें जीतकर भाजपा ने भारी उलटफेर किया था। तमिलनाडु ही एकमात्र राज्य था, जहां से भाजपा को एक भी सीट नहीं हासिल हो पाई थी।

इसका अर्थ है 2019 में महाराष्ट्र, बंगाल, बिहार और कर्नाटक की कुल 158 लोकसभा की सीटों पर भाजपा+सहयोगी एनडीए दलों को कुलमिलाकर 123 सीटें हासिल हुई थीं। 2024 में स्थिति काफी बदल चुकी है। महाराष्ट्र में एनडीए गठबंधन खत्म हो चुका है। पश्चिम बंगाल में पिछली बार की तुलना में इस बार विपक्ष ज्यादा सचेत होकर लड़ेगा, इसे देश ने विधानसभा चुनावों में देख लिया है। बिहार में जीत का समीकरण बनाने में अहम भूमिका निभाने वाले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी देश में विपक्षी पार्टियों को एकजुट करने में सबसे बड़ी भूमिका निभा रही है। कर्नाटक में हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव में भारी बहुमत से कांग्रेस की जीत स्पष्ट बता रही है कि उसने भाजपा की हिंदुत्व की विचारधारा पर और चलने के बजाय रोजगार और जनपक्षीय मुद्दों को प्राथमिकता देने को वरीयता दी है। तमिलनाडु से भी कोई उत्साहजनक तस्वीर नहीं बन पा रही है।

ऐसे में यदि इन 4 राज्यों में सीटें आधी हो जाती हैं, तो पिछली बार हासिल 303 सीटें 240 तक सिमट जाती हैं। दूसरी तरफ विपक्ष जिस प्रकार से एक सीट पर एक संयुक्त उम्मीदवार की तैयारी कर रहा है, और एकजुट होकर सामने आ रहा है। वह यदि 25-30 सीटों को और झटक ले तो भाजपा के लिए 2024 में विपक्षी पार्टी की भूमिका में बैठने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहेगा।

पीएम मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने जिस प्रकार से सत्ता का केन्द्रीकरण किया है, उसने पिछले 9 वर्षों में विपक्ष से कहीं अधिक भाजपा का नुकसान किया है। भाजपा में पूर्व के राज्यों में सक्षम मुख्यमंत्री हुआ करते थे, और सामूहिक नेतृत्व के चलते मतदाताओं के बीच अपनी पकड़ होती थी। लेकिन 2014 के बाद धीरे-धीरे सभी शक्तियां एकमात्र मोदी में सिमट जाने का ही परिणाम है कि भले ही देश में कहीं भी चुनाव हो, वोट डालने तक चेहरा पीएम मोदी का होता है और चुनाव का परिणाम आने पर हार की स्थिति में इसकी जिम्मेदारी लेने के लिए किसी अन्य को आगे कर दिया जाता है। इसलिए मोदी की अपरिहार्यता भाजपा के एक बार सत्ता से च्युत होने के बाद उसे फिर से खड़ा होने की स्थिति में नहीं रखने वाली। इस बात को भाजपा सहित आरएसएस का नेतृत्व और कार्यकर्ता दोनों भलीभांति समझ रहा है।

पर्यवेक्षकों का मानना है कि महाराष्ट्र में पिछले वर्ष शिवसेना में तोड़फोड़ के बाद भी भाजपा के लिए लोकसभा में एक दर्जन सीट से अधिक की गुंजाइश नहीं दिख रही थी। पिछले दिनों 15 विपक्षी दलों की पटना में बैठक के बाद भाजपा की बैचेनी कई गुना बढ़ गई थी। इसी का नतीजा था कि अपनी अमेरिकी यात्रा में विश्व पटल पर लाइम-लाइट में बने रहने के बावजूद पीएम मोदी अगले ही दिन मध्यप्रदेश में 5 वंदे भारत एक्सप्रेस ट्रेन के उद्घाटन के मौके पर भी विपक्ष को निशाने पर लेने में नहीं चूके।

उन्होंने ऐलान किया कि विपक्ष के परिवारवाद और भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक जंग लड़ी जाएगी। इसका नतीजा इतनी जल्द मिलेगा, इसकी आशा नहीं थी। महाराष्ट्र में ईडी, सीबीआई की कार्रवाई होती, इससे पहले ही एनसीपी से एक बार फिर अजित पवार 8 वरिष्ठ नेताओं के साथ महाराष्ट्र सरकार में शामिल हो जाते हैं। इनमें से अधिकांश को मंत्रिमंडल में शामिल भी कर लिया जाता है। इतना ही नहीं केंद्र में मंत्रिमंडल में फेरबदल कर शिवसेना (शिंदे गुट) और एनसीपी (अजित पवार) गुट के नेताओं को भी जल्द समायोजित किये जाने की खबर आ रही है।

लेकिन भ्रष्टाचार मुक्त भारत बनाने का नारे देने वाली भाजपा क्या यह नहीं देख पा रही है कि विपक्ष में ढूंढ-ढूंढकर भ्रष्टाचार में संलिप्त लोगों को जेल भेजने के बजाय भाजपा सरकार में शामिल कर मंत्री या केंद्रीय मंत्री बना रही है। जिसका जनता पर खराब असर पड़ेगा?  कुछ मानते हैं कि भाजपा अपनी सत्ता बनाये रखने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है। लेकिन वहीं इसके पीछे कुछ पर्यवेक्षक एक अन्य पहलू को जिम्मेदार मानते हैं। उनका यह मत काफी हद तक सही है, वरना महाराष्ट्र में भाजपा को एक म्यान में 3-3 तलवार रखने की मजबूरी नहीं थी।

तीन पार्टियों के भ्रष्ट और सत्ता लोलुप नेताओं को एकजुट करने का नतीजा क्या निकलेगा, या दशकों से पार्टी के लिए काम कर रहे कार्यकर्ताओं को टिकट न देकर दागी नेताओं को ढोने की मजबूरी पार्टी में बगावत खड़ी कर सकती है। इस सबसे बाखबर होने के बावजूद मोदी यह जोखिम ले रहे हैं, तो इसके पीछे एक बड़ी वजह अवश्य है।

वह है भारत का क्रोनी कैपिटल, जिसने भारतीय अर्थव्यस्था को आज के दिन अपनी गिरफ्त में पूरी तरह से जकड़ लिया है। 2014 से पहले ही उसकी हैसियत काफी मजबूत हो गई थी। लेकिन पिछले 9 वर्षों में तो उसकी धमक इतनी तेज हो चली है कि इसे दुनिया भी महसूस कर रही है। आज कॉर्पोरेट ही असल में देश चला रहा है। वही नोटबंदी, जीएसटी, कोविड-19 महामारी और अब भारी मुद्रास्फीति को भी अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर रहा है। भले ही देश में बेहतर इन्फ्रास्ट्रक्चर के तौर पर राष्ट्रीय राजमार्ग, वातानुकूलित रेल मार्ग या 1000 की संख्या में हवाई जहाज सहित 5 जी और कुछ शहरों का रंग-रोगन देखने-सुनने में लगे कि ये सब आगे भी विस्तारित होगा। लेकिन असल बात तो यह है कि ये सब भी इन्हीं चंद लोगों के लिए विदेशी निवेश और टाई-अप को आसान बनाने के लिए किया जा रहा है।

भारतीय कॉर्पोरेट में सिर्फ अंबानी-अडानी ही नहीं बल्कि अन्य बड़े घराने भी अपना-अपना हिस्सा पा रहे हैं। और इन सभी के लिए भाजपा और पीएम के रूप में नरेंद्र मोदी से बेहतर कोई दूसरा विकल्प नहीं है। भला देश में हिंदुत्व के नाम के अलावा कोई और मुद्दा है जो 140 करोड़ लोगों को बेतहाशा बढ़ती महंगाई, बरोजगारी, जीडीपी के बराबर हो चले कर्ज, लाखों करोड़ के एनपीए और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों की बेतहाशा नीलामी पर भी खामोश बने रहने के लिए मजबूर रखने की सामर्थ्य रखता है?

भारत में यदि 15 दिन भी एजेंडा के तहत तथाकथित राष्ट्रीय मीडिया अपने हिस्टीरियाई अंदाज को छोड़ दे, तो लोग अपने-अपने कष्टों को याद करने लगें। देश को रोज-रोज व्हाट्सअप विश्वविद्यालय नई-नई हेट-स्टोरी के जरिये जरुरी खुराक देता रहता है। बॉलीवुड भी अब एक के बाद एक फेक नैरेटिव के साथ फिल्में पेश करता है। भाजपा के नेताओं के पास उसे दिखाने और हिट कराने की जिम्मेदारी के अलावा कुछ नहीं है। नीचे के स्तर पर लव जिहाद, लैंड जिहाद, तीन तलाक, गौ-रक्षा के नाम पर वसूली और लिंचिंग और मुस्लिमों का आर्थिक बहिष्कार जैसे मुद्दे हैं।

यही वे काम हैं जो क्रोनी कैपिटल को बेरोकटोक बेधड़क लूट की इजाजत देते हैं। आदिवासी क्षेत्रों में अनुसूचित जनजातियों के लिए संविधान में सरंक्षित वनाधिकार को इनकी हवस के लिए धराशाई किया जा रहा है। देश की आर्थिक राजधानी महाराष्ट्र राज्य में है। अधिकांश कॉर्पोरेट घराने और शेयर बाजार का केंद्र मुंबई है। लेकिन महाराष्ट्र की क्षेत्रीय अस्मिता को कुचलकर गुजरात के लिए अच्छे निवेश को एक-एक कर स्थानांतरित किया जा रहा है।

राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) और शिवसेना (उद्धव गुट) इसी क्षेत्रीय अस्मिता का प्रतिनिधित्व करती हैं। आगामी लोकसभा चुनावों में इसके उभार में भाजपा का महाराष्ट्र में हाल बुरा होना था। लेकिन विपक्ष ऐसा करने की स्थिति में ही न बचे, इसलिए एक करारा झटका इस बार एनसीपी को देना था। वही किया गया है, देखना है 82 वर्षीय शरद पवार, जो खुद भी देश के कॉर्पोरेट और सीओ-ऑपरेटिव लॉबी के जरिये महाराष्ट्र के किसानों के बीच में अपना संतुलन बनाये रखने में इतने दशकों से कामयाब रहे, के लिए क्या बचा है? कॉर्पोरेट ने तो अपना उम्मीदवार साफ़ बता दिया है, विपक्ष को खुलकर ऐलान करना है कि वे किसके पक्ष में खड़े होकर विकल्प की मांग कर रहे हैं?

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)     

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