किशोर- जिसे शेष दुनिया किशोर झा के नाम से जानती थी, जो छात्र जीवन में वाम आंदोलन से जुड़ा – जिसने उसे एक नैतिक दिशा प्रदान की- अस्सी के दशक के उत्तरार्द्ध में दिल्ली विश्वविद्यालय में ‘दिशा छात्र समुदाय’ के शुरुआती सदस्यों में वह था, जिसकी सक्रियताओं ने उन दिनों अलग छाप छोड़ी थी। बाद में वह बाल अधिकारों के लिए सक्रिय विभिन्न संस्थाओं /एनजीओ के साथ भी सक्रिय रहा; लेकिन आमूलचूल बदलाव के सपने को उसने कभी नहीं छोड़ा।
किशोर के मित्रों की पहल पर गांधी शांति प्रतिष्ठान में एक कार्यक्रम का आयोजन हुआ था, (5 अक्तूबर 2024) जिसका फोकस उसके जीवन को सेलिब्रेट करने पर था। प्रस्तुत नोट उस सभा में प्रस्तुत वक्तव्य का संशोधित रूप है।…सुभाष गाताडे)
सबसे कठिन होता है अपने से कम उम्र के लोगों को अलविदा कहना, फिलवक्त मैं उसी मुश्किल से गुजर रहा हूं ..
अपनी मुश्किल से पार पाने के लिए मैंने तय किया कि मैं दोस्तों के इस जमघट में – जिसका फोकस उसके जीवन को सेलिब्रेट करने पर है, लिखित वक्तव्य तक ही अपने आप को सीमित रखूं ..
.. मैं फिर एक बार कागज कारे करने बैठा हूं कि किशोर के बहाने कुछ लिखूं, अपने अपने यादों के पिटारे से उसके साथ बीते लम्हों को चुन कर साझा करूं। लेकिन जानता हूं कि कुछ तरतीब बनने के पहले ही मन फिर भटक जाएगा, उससे पहली मुलाकात कहां हुई थी और कब हुई थी, यह सोचने की फिराक़ में जुट जाऊंगा और फिर उससे जुड़ा कोई दूसरा प्रसंग यादों की किवाड़ पर दस्तक देगा ‘क्या मैं अंदर आ सकता हूं ?’ और उसके लिए जगह बनाऊं तो फिर कोई और बात हाजिर हो जाएगी…
आप ने स्कूल छूटने के इन्तज़ार में दरवाजे पर खड़े बच्चों के समूह को देखा है कभी?
यादें भी उसी तरह एक रेले की तरह, एक दूसरे को लांघने की कोशिश में जमा हो जाएंगी और कलम फिर रुक जाएगी…
मुमकिन है इसी रेले से उससे आखरी मुलाक़ात ताज़ी हो जाएगी, उसकी सालगिरह (30 जुलाई) के पहले वाले दिन की, जब हम चार लोग – रमेश, संजीव, अंजलि और मैं – उसके यहां पहुंचे थे, उसे सरप्राइज देने के लिए, ‘जन्मदिन मुबारक’, ‘हैप्पी बर्थडे’ बोलने के लिए और वह दिल खोल कर हंसा था…
किस्सागोई उसका शगल था, उसके मुंह से हम ने वह किस्सा फिर सुना – जिसे मैंने जनवरी-फरवरी माह में पहली दफा सुना था, ‘मैं क्या बनना चाहता था ?’
बिहार के मधुबनी जिले के गांव में बीते बचपन की वह अद्भुत याद ! वह गोया उसी दौर में पहुंच जाता था !!
‘दरअसल वह मेरी पहली रेल यात्रा थी, गांव के बंद माहौल से पहली दफा मैं ट्रेन में बैठा था .. सब कुछ सपने जैसा लग रहा था। अचानक मैंने ट्रेन में एक मूंगफली बेचते बच्चे को देखा, ज्यादा बड़ा नहीं था, मुझे उस बच्चे पर जबरदस्त रश्क हुआ .. वा ! क्या जिन्दगी है ! ट्रेन का सफर भी, साथ में मूंगफली भी खाने को मिलेगी। मैंने अपना इरादा पक्का कर लिया।..
घर लौटने पर मैंने फक्र से अपनी मां से कहा, अम्मा, मैं ट्रेन में मूंगफली बेचूंगा… मुझे उस वक्त पता नहीं चला कि दिल्ली के एक कॉलेज में संस्कृत का अध्यापन कर रहे मेरे पिताजी ने क्यों मुझे बेरुखी भरी निगाह से देखा और मां, वह कुछ बहाना बना कर वहां से क्यों निकल गयी थी। ’
उसका आखरी मेसेज अभी भी मेरे मोबाइल पर उसी ताज़गी के साथ मौजूद है, जैसा वह भेजा गया था ‘
‘आज खूब मज़ा आया।’
सोचता हूं कि शब्दांकन की इस कवायद से ही तौबा कर दूं और उसके बहुरंगी जीवन की छटाओं को ही आप के बीच बिखेर दूं , जैसा कि मैंने उसे पाया, इसमें कुछ भी नया नहीं है .. आप सभी उसी रंग में सराबोर होते रहे हैं …
वह मेरी बेटी का किशोर चाचा था ..
उन दिनों लैंडलाइन फोन का जमाना था। जब पूरी बिल्डिंग में किसी एक या दो घरों में फोन रहता था और पड़ोसियों के रिश्तेदारों, मित्रों के वक्त-बेवक्त़ आने वाले पर अंदर से झुंझलाते हुए भी – आप उन्हें बुलाने के लिए मजबूर रहते थे ..
बेटी के जन्मदिन की पहली बधाई देने वाला फोन उसी का आता था ..
उसकी जिन्दगी के हर मोड़ में उसकी दिलचस्पी रहती थी और वह उसकी तरक्की जानने के लिए उत्सुक रहता था ..
वह एक अच्छा दोस्त था ..
दोस्त की खासियत होती है कि वह वक्त़ आने पर आप के साथ इस तरह खड़ा रहता है कि पता ही नहीं चलता .. धीरे से आप का हाथ थाम लेता है, या कंधा थपथपाता है, मैं भूल नहीं पाता जिन्दगी का वह वाकया जब दिल्ली में अपना पहला आशियाना लेना हमने चाहा था और किस तरह हमारी जद्दोजहद में वह खड़ा रहा था ..
लेकिन मैं जानता हूं कि सिर्फ मेरा ही दोस्त नहीं था, उसके दोस्तों-मित्रों का दायरा विशाल था। दिल्ली से लेकर जर्मनी तक या पुणे या बिहार की संस्थाओं में सक्रिय नौजवानों से लेकर दिल्ली की गरीब बस्तियों के लोगों की संतानों तक उसकी मैत्री फैली थी। उर्दू में एक लफ्ज़ है ‘यारबाश’ जिसका अर्थ होता है दोस्तों के बीच घुल मिल कर रहने वाला।
वह असली यारबाश था ..
वसीम बरेलवी का एक शेर उसकी शख्सियत के मामले में बेहद मौजूं जान पड़ता है
‘ जहां भी जाएगा, रौशनी लुटाएगा
किसी चिराग का अपना मकां नहीं होता’
वह एक जिंदादिल साथी था ..
लूट और शोषण पर टिके इस मौजूदा निज़ाम को आमूलचूल बदल देने के फलसफे पर वह ताउम्र अडिग रहा…
दरअसल मेरी उससे पहली मुलाक़ात उन्हीं दिनों हुई थी जब वह छात्र जीवन में वामपंथी सक्रियताओं से जुड़ा था और बदलाव के फलसफे की बारीकियों को समझ रहा था…
89-90 का वक्त़ था ..जब ‘दिशा छात्र समुदाय’ की गतिविधियों ने – जो वाम विचारों से प्रभावित समूह था – दिल्ली विश्वविद्यालय में जोर पकड़ा था .. संजय, विपिन, अमित, किशोर, पवन, संजीव, अनिल कई बेहद युवा साथी। वाम विचारों की एक नयी पौध आकार ले रही थी छात्रों में एक नयी उमंग थी। फिर चाहे इराक युद्ध के विरोध का सवाल हो या मंडल आयोग के विरोध के नाम पर दबंग तबकों द्वारा की जा रही हिंसक राजनीति का विरोध करना हो, सब सक्रिय थे…
दिल्ली विश्वविद्यालय से सम्बद्ध कॉलेजों में नहीं, आसपास के इलाकों में – चंद्रावल, संगम पार्क से लेकर नांगलोई की बस्ती में यह आवाज़ पहुंची थी, इन बस्तियों में वंचित तबकों से आने वाले छात्रों के लिए शाम को पढ़ाने की कोशिशें रवां थीं..
ऐसा इत्तेफ़ाक हुआ कि ग्रेजुएशन के बाद किशोर रोजगार की दिशा में मुड़ा, विभिन्न संस्थाओं से जुड़ा, बाल अधिकार पर, उनकी बेहतरी के लिए सक्रिय संस्थाओं, समूहों के साथ वह सक्रिय रहा, वहां पर भी अपनी अलग छाप छोड़ता रहा
गौरतलब था कि मार्क्स के आमूलचूल बदलाव के विचारों के प्रति, शोषणविहीन समाज के निर्माण के प्रति उसकी संलग्नता में कभी कमी नहीं आयी।
साल में एक बार संगठन के लिए एक निश्चित रकम देने की कमिटमेंट पर वह हमेशा कायम रहा,..
2014 में संगठन की पुणे में आयोजित पांच दिन के स्टडी कैम्प में भी वह उत्साह से शामिल हुआ, आखिरी दिन उसे अपने काम से निकलना पड़ा था … यही वह बैठक थी जब हमें उसकी विकसित हो रही बीमारी का नजदीकी से एहसास हुआ.. हालांकि हमें इस बात का कत्तई गुमान नहीं था कि यह निरंतर बढ़ते जाने वाला ऐसा न्यूरोजनरेटिव विकार है जो शरीर के एक-एक अंग को बेकार करता जाता है और अंत में बिस्तर तक सिमट देता है ..
वह एक सलाहकार था – जो नाजुक मौकों पर सटीक बात कह देता था, सलाह देता था।
एक एक व्यक्ति का उसका आकलन दुरूस्त साबित होता था।
जनवरी-फरवरी की बात है, शाम के वक्त हम लोग उससे मिलने गए थे जब मैंने एक पुराने साथी का जिक्र किया जो कभी काफी सक्रिय था, मगर बाद में वाम विचार , वाम आंदोलन पर बेहद नकारात्मक ढंग से सोचने लगा था और अपनी इन बातों को सोशल मीडिया पर भी प्रकट करता था …
बिस्तर पर लेटे लेटे ही किशोर ने अपनी राय रखी …
‘वह सिनिक हो गया है, उसके बारे में मत सोचो ’
वह एक अनथक यायावर था .. जंगल, पहाड़ों से उसका कुछ पुराना रिश्ता था .
पहाड़ों की उसकी वह यात्रा याद है जब तीन लोग – संजय, अमित और किशोर – अपनी अपनी मोटरसाइकिल पर पहाड़ घुमने गए थे।
उसकी इस यायावरी को देखते हुए प्रख्यात असमी गायक भूपेन हजारिका का वह गीत अक्सर याद आता है
‘‘आमी एक जाजाबोर’ ./अर्थात हम एक यात्री /
पृथ्वी आमाके अपोन करोछे, भूलेछी निजेर घर ..’
कई साल से वह बिस्तर पर था, अब यायावरी तो मुमकिन नहीं थी, लेकिन उसकी बातें करने से या दोस्तों मित्रों के ट्रेवल प्लान में सलाह देने पर कहां मनाही थी….
एक मित्र दम्पति जब यूरोप की यात्रा पर निकले तो उन्हें अलग-अलग शहरों की खासियत बयां करने के अलावा उसने यह भी समझाया था कि पेरिस में अपनी जेब सम्भाल कर ज़रूर चलिए, कभी भी जेब कट जाएगी ..
यह अलग बात है कि वह ध्यान रख नहीं सके और पेरिस की मेट्रो में अपनी जेब कटवा कर ही लौटे।
वह प्रचंड संभावनाओं से भरा एक कवि और लेखक था
1991 में जब दिशा छात्र समुदाय की तरफ से इराक युद्ध के खिलाफ नाटक खेला गया, उसमें किशोर की कविता ही गीत के तौर पर गायी जाती थी..
वर्ष 2013 की उसकी एक कविता है :
उन आधी अधूरी नज्मों और कहानियों के नाम
जो रात में जन्मे एक तस्सुवर तक ही रह गयीं
उस लंबे सफर के नाम
जो शुरू तो हुआ पर अपनी मंजिल तक ना पहुँच पाया
उन अनाम रिश्तों के नाम
जिन्हें “ एक खूबसूरत मोड़ “ देकर छोड़ दिया गया
उन तमाम कोशिशों के नाम
जो किसी अंजाम तक ना पहुँच पायीं
वो अधूरी कहानियां, सफर, कोशिशें और अनाम रिश्ते
आज भी मिलते हैं कभी-कभी आधी अधूरी नींदों में
एक नाम एक पहचान पाने की तलाश में लगते हैं कुछ
मुकम्मल होने की आस लिए
अक्सर पूछते हैं
क्यों अहम है मुकम्मल होना
एक पहचान के लिए
मुझे याद है 2014 में ही उसने संगठन की पत्रिका क्रिटिक के लिए पाश पर एक लेख लिखा था ..
दरअसल पाश उसका प्रिय कवि था ..इकोनोमिक एण्ड पोलिटिकल वीकली जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में उसने बच्चों पर लिखा था ;
Dropping Out for a Drop of Water
The relationship between depleting water levels and school dropout rates is poorly studied. As chronic water shortages begin to affect more regions of the country, this trend will begin to appear more forcefully.
(https://www.epw.in/journal/2014/34/commentary/dropping-out-drop-water.html)
[वर्ष 2014 में लिखे इस लेख में वह बताता है कि किस तरह पानी के विभिन्न हिस्सों में बढ़ते पानी के संकट ने बच्चों के स्कूल छोड़ने के दर में बढ़ोत्तरी हुई है, लेख की शुरूआत अल्मोड़ा जिले के कक्षा आठ में पढ़ने वाले 14 साल के देवेन्द्र से होती है, जिसे अपने परिवार के लिए पानी लाने के लिए रोज दिन घंटे लगाने पड़ते हैं और जिससे न केवल स्कूल में दरी होती है बल्कि खेलने के समय में भी कटौती है, पहले उसके खीड़ा नामक गांव में पानी के दो झरने थे, मगर वह विगत कुछ सालों में कटे जंगल से सूख गए और फिर पानी का संकट पैदा हो गया ..]
2016 में इसी पत्रिका के लिए दूसरे लेख का शीर्षक था ‘ नो चाइल्डस प्ले’
No Child’s Play
Children’s right to play depends on their access to parks, grounds and open spaces. Delhi’s open spaces are becoming increasingly inaccessible to children as they are being converted to dumping or parking sites and residents’ associations prohibit children from playing within the housing colonies. Meanwhile, the number of vehicles in the capital keeps increasing rapidly.
(https://www.epw.in/journal/2016/3/commentary/no-child%E2%80%99s-play.html)
[लेख बताता है कि संयुक्त राष्ट्र ने सबसे पहली दफा बच्चों के खेलने के अधिकार पर 1959 में मुहर लगायी, जिसे वर्ष 1989 के बच्चों के अधिकार के लिए कन्वेन्शन में मुहर लगी, जिसके तहत बच्चों के आराम करने, खेलने, मनोरंजनात्मक गतिविधि करने आदि के अधिकार की चर्चा थी, खेलने से किस तरह बच्चों का सर्वांगीण विकास होता है, उसका सामाजिक एकीकरण बढ़ता है.. मगर बढ़ते शहरीकरण और विकास के मौजूदा स्वरूप ने बच्चों के खेलने की जगहों पर असर डाला है।]
. उसके बाद उसके ऐसे लेख आने सम्भवतः बंद हो गए। वजह साफ़ थी अब बीमारी शरीर के अलग-अलग अंगों पर नियंत्रण कायम करना शुरू कर दी थी।
जिन्दगी के आखिरी सात-आठ सालों में वह हम सभी के बीच एक ऐसे शख्स के रूप में उपस्थित था कि असाध्य बीमारी होने के बावजूद – जबकि आप के शरीर का एक एक हिस्सा अब आप का आदेश मानने से इन्कार करने लगा है और आप पूरी तरह पर निर्भर हैं, तब भी आप अपनी जिजीविषा को किस तरह जिन्दा रख सकते हैं
जैसा कि उसके कॉलेज के दिनों के दोस्त अमित ने एक जगह लिखा हैः
‘निस्सन्देह यह उसके जीवन का सबसे कठिन दौर था, लेकिन यही उसके दोस्तों के लिए और परिवारजनों के लिए सबसे प्रेरणादायी काल था, जो खुद अंत तक उसकी इस अनथक कोशिशों को देख रहे थे कि वह भरसक ‘किशोर’ बने रहने को लेकर संकल्पबद्ध था।’
अपनी बीमारी को लेकर कभी भी मायूसी का इजहार करते हुए मैंने उसे कभी नहीं देखा।
उससे मिलने जाओ तो वह बस एक सूचना देता था कि स्वास्थ्य अब किस तरह और ढलान पर है।
एक बार उससे मिलने गए तो उसने चेहरा निर्विकार रखते हुए बताया कि ‘अब बाहर घूमना बंद हो गया है’।
एक बार उसकी किताबों को पलट रहा था – इत्तेफाक से हम दोनों के ही पुराने मित्र साथी संजय की ही एक किताब Desis Divided
The Political Lives of South Asian Americans मेरे हाथ में थी
शायद किशोर ने इस मौके को वाजिब समझा मुझे यह सूचना देने के लिए
‘तुम उसे ले जाना, अब मैं पढ़ नहीं पाता।’
उसके बारे में आज पलट कर सोचता हूं तो 70 के दशक की शुरूआत में आयी एक फिल्म याद आती है ‘आनंद’ जहां नायक राजेश खन्ना, किसी ऐसी ही असाध्य बीमारी से ग्रस्त है ..
उसका भी दोस्तों का लम्बा चौड़ा दायरा है
फिल्म का संभवतः आखरी संवाद है या बात परदे पर चलती है
‘आनंद मरा नहीं है, आनंद मरते नहीं हैं’!
किशोर हमारे बीच नहीं है,
लेकिन यहां जमा लोग इस बात की गवाही दे रहे हैं कि यह एक आंशिक सत्य है
सभा में उसे याद करते हुए कइयों की नम आंखें या रुंधे गले इस बात की गवाही दे रहे हैं कि वह लोगों की यादों में, उनके रतजगों में, उनके सपनों में वह आज भी जीवित है
उसने एक बड़े दायरे को, बच्चों को, परिवार के बुजुर्गों को और दोस्तों मित्रों के दायरे को अंदर तक छुआ है, यह बात सौ फीसदी सही है।
अब जब अपना वक्तव्य समेटने जा रहा हूं तो मैं अपने आप से पूछता हूं कि क्या यह सिलसिला यहीं खत्म हो जाएगा ?
जैसा कि किसी धार्मिक या रस्मी आयोजन के बाद होता है, जब लोग प्रसाद खाकर या जलपान करके विदा होते हैं।
क्या किशोर के जीवन को सेलिब्रेट करने के बाद हम सब फिर अपने अपने दायरों में सिमट जाएंगे या किसी न किसी रूप में इस संवाद को, अंर्तक्रिया को जारी रखेंगे ऐसी चीजों को लेकर जो किशोर के दिल के करीब थी।
फिर विचारों के आदान-प्रदान के सिलसिले को किसी न किसी रूप में जारी रखना हो या बच्चों की बेहतरी के लिए उसकी लगन और सक्रियता को किसी न किसी रूप में आगे बढ़ाना हो या उसके जैसी असाध्य बीमारी के बारे में कुछ करना हो।
अलविदा किशोर !
तुम्हारा जाना बहुत खल गया दोस्त !
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