यह सवाल आज सारे सवालों के ऊपर भारी है। पत्रकार, टीवी के एंकर्स से लेकर हर नुक्कड़ और चौराहे पर यही चर्चा है कि इस बार मोदी जी कैसे हर बार गियर चेंज करते जा रहे हैं? किसी एक नैरेटिव पर टिकते क्यों नहीं? ऐसा भी नहीं कि मुद्दों की कोई कमी है। उनके पास ढेरों मुद्दे हैं, जिन्हें वे अपने मीडिया मित्रों और सरकारी तंत्र की मदद से परवान चढ़ा सकते हैं।
ये वे सवाल हैं, जो असल में किसी भी एग्जिट पोल गुरु और मीडिया पंडित की पोल भी खोल रहे हैं। पिछले दस वर्षों से उनकी रोजी-रोटी में बरक्कत का यही आधार भी रहा, और आम लोगों पर उनकी बात का वजन भी कमोबेश बना हुआ था। लेकिन ऐन चुनाव से पहले और अब दो चरण के चुनाव के बाद इन सभी लोगों को ऐसा क्यों लग रहा है कि जनता असल में उन्हें मक्कार और काईयां समझती है, और अपने मन की बात नहीं बताती? क्या 2024 आम चुनाव के बाद इनमें से कई चुनावी रणनीतिकारों की जमी-जमाई दुकान भी हमेशा के लिए बंद हो जाने वाली है?
आइये इस बारे में विस्तार से समझने की कोशिश करते हैं। कुछ पहलू यदि छूट जाए तो उसे अवश्य चुनाव बाद समीक्षा के लिए रखा जा सकता है।
दरअसल इस बार लोकसभा चुनाव की तैयारी डेढ़-दो बरस पहले से चल रही थी। विपक्ष की ओर से राहुल गांधी ने इसे अनायास शुरू कर दिया था, जो अब लू के थपेड़ों में उन्हें गजब रसीले आम के स्वाद की मानिंद लग रहा होगा। जी हां, अगर गौर करें तो यह मोदी और भाजपा शासन का ही कमाल है, जिसने नेशनल हेराल्ड मामले में यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गांधी और कांग्रेस के राष्ट्रीय नेता राहुल गांधी को सरकारी जांच एजेंसी के सामने 50-50 घंटे पूछताछ के लिए मजबूर कर दिया था। यह वही क्षण था, जब कांग्रेस अपने 136 वर्षों के इतिहास के सबसे खराब दौर से गुजर रही थी। अपने दुश्मन को हर तरफ से पस्तहाल देखने और उसका लुत्फ़ उठाने का मज़ा ताज़ा-ताज़ा सत्तानशीं लोगों को कितना लुभाता है, इसकी कल्पना आम इंसान के वश की बात नहीं है।
कैसे मरणासन्न कांग्रेस में नई जान आई
लेकिन कल्पना कीजिये उस व्यक्ति की, जिसने 10 वर्ष सत्ता में होते हुए भी मंत्री पद नहीं स्वीकारा हो! जिसके परिवार ने 1989 के बाद देश में एक भी सरकारी पद ग्रहण नहीं किया हो, लेकिन कांग्रेस में सत्ता की आस लगाये खद्दरधारी नेताओं ने सोनिया और फिर राहुल और प्रियंका गांधी को सक्रिय राजनीति में आने के लिए विवश किया। 25 वर्ष सत्ता से दूरी के बावजूद भाजपा के लिए गांधी परिवार का परिवारवाद सबसे बड़ा मुद्दा बना रहा, और वह इसी को अपना केंद्रीय मुद्दा बनाकर देश में गांधी-नेहरु खानदान को बदनाम कर वोट अर्जित करती रही। गांधी परिवार और कांग्रेस के लिए जो क्षण सबसे कमजोर थे, वही उसके लिए निर्णायक फैसला लेने वाला बन गया।
3 साल से पार्टी अध्यक्ष पद खाली पड़ा रहा। जी-23 ग्रुप बनाकर अधीर पुराने कांग्रेसी मन की भड़ास निकाल रहे थे। भाजपा के लिए आगे की राह में कोई अड़चन ही नहीं थी। इसी मौके पर राहुल के मन में भारत की पैदल यात्रा का विचार उभरा। चूंकि राहुल पहले ही 15 किमी रोजाना जॉगिंग में बिताते थे, जिसका लुटियंस जोन से बाहर कोई मतलब नहीं था। लेकिन कन्याकुमारी से कश्मीर तक यही यात्रा अगर सड़क पर होती है, तो इसका क्या नतीजा निकलेगा इसके बारे में सब कुछ भविष्य की गर्त में छुपा था। यह यात्रा निकली और इसके साथ ही राहुल और कांग्रेस का सितारा भी फिर से चमकने लगा। ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के इस पहले चरण में लाखों आम जन को पहली बार एक आदमी सड़कों की खाक छानता नजर आया, जिसे मोदी ने प्रिंस, शहजादे और आईटी सेल ने पप्पू साबित करने में कोई कोर-कसर नहीं रख छोड़ी थी।
भाजपा की दीर्घकालिक तैयारी
अब आते हैं भाजपा की 2024 की तैयारियों पर। ऐसा माना ही नहीं जाता बल्कि मई 2019 आम चुनाव की जीत के बाद ही दिख गया कि भाजपा ने अभी से 2024 की भी शुरुआत कर दी है। सुप्रीम कोर्ट से अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण की शुरुआत से लेकर, पंडित-पुरोहित और ज्योतिषी से पूछकर नए संसद (गोल संसद के स्थान पर) सेंट्रल विस्टा के 2023 तक निर्माण के पीछे 2024 में जीत की भविष्यवाणी का कितना हाथ रहा है, इस बारे में देश के मशहूर आर्किटेक्ट राज रेवाल और उनकी बिरादरी पहले ही बता चुकी है। जी-20 की अध्यक्षता और दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यस्था होने का दावा भी पीएम नरेंद्र मोदी की तीसरी पारी को आश्वस्त कर रहा था। वैसे भी नोटबंदी और उसके बाद कोविड-19 महामारी के बाद भारत की अधिसंख्य आबादी कुछ बोलने या लड़ने के काबिल नहीं रह गई थी। हां, किसानों और मुस्लिम आबादी ने लंबे अर्से तक जरुर पहली बार मोदी सरकार को कड़ी टक्कर दी थी, लेकिन इन दोनों ही आंदोलनों को मैनेज कर लिया गया था।
आरएसएस-भाजपा का देश की नौकरशाही, प्रेस और न्यायपालिका पर जिस कदर शिकंजा कसता जा रहा था, उसमें ऐसे आंदोलनों को पहले ठंडा करने, फिर उसकी धार को भोथरा करने का आजमाया नुस्खा पहले से मौजूद था। 2018 में भी जब नोटबंदी और जीएसटी से लाखों एमएसएमई और लोगों की रोजीरोटी छिन गई थी, और आरएसएस तक मोदी-शाह के नेतृत्व में 225 तक सिमटने की काट के लिए प्रणव मुखर्जी के जरिये ममता बनर्जी और ओडिसा, तमिलनाडु और आंध्र की राज्य सरकारों में अपने लिए बहुमत तलाश रही थी, तब पुलवामा और बालाकोट से रातोंरात अपने लिए राजनीतिक किस्मत पलटने वाला विस्मयकारी परिणाम भी मोदी जैसी शक्सियत ही संभव कर सकती थी। ऐसे में 2024 की तैयारी तो कहीं ज्यादा चाक-चौबंद होकर चल रही थी।
तीनों हिंदीभाषी राज्यों में जीत के साथ नरेंद्र मोदी की स्वेच्छाचारिता और उसका असर
लेकिन 2023 में 5 राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों ने सबकुछ बदलकर रख दिया है। 2018 में इन्हीं 5 राज्यों में हुए चुनावों में कांग्रेस के हाथ राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे हिंदी प्रदेश के राज्य आ गये थे। लेकिन इस बार ये तीनों राज्य भाजपा की झोली में आ गये। गोदी मीडिया ने पूरे देश में मुनादी कर दी कि इस बार तो मोदी डंके की चोट पर तीसरी बार जीतने जा रहे हैं। कांग्रेस के हिस्से में तेलंगाना में 10 वर्ष बाद पहली बार जीत मिली। लेकिन पूरा देश हिंदी प्रदेशों में भाजपा की जीत के नैरेटिव को लेकर उड़ता रहा। किसी ने जहमत नहीं उठाई कि आखिर 3 राज्यों में हारने वाली कांग्रेस ने तेलंगाना जैसे राज्य में तेलंगाना राष्ट्र समिति (अब बीआरएस) जैसी पार्टी, जिसका मत प्रतिशत कांग्रेस से 20% अधिक था, की राष्ट्रीय आकांक्षाओं को मटियामेट कर उसे राज्य में भी भारी शिकस्त खाने को कैसे मजबूर कर दिया?
अक्सर आम पाठक भी यह गलती कर जाते हैं। उन्हें भी रोज-रोज जो परोसा जाता है, उसी से देश का मिजाज भांपने की कोशिश करते हैं। इसलिए कह सकते हैं कि गोदी मीडिया ने पिछले दस वर्षों से देश के बहुसंख्यक तबके के बीच में बेरोजगारी, महंगाई और लाचारी को लेकर जो असंतोष लगातार पनप रहा था, पर मिट्टी डालकर भाजपा के नए-नए इवेंट मैनेजमेंट में सुर मिलाने में ही अपना भला देखा।
वर्ना ऐसा कैसे हो सकता है कि 2017 में जिस बढ़ती बेरोजगारी को 45 वर्षों में सबसे अधिक बताया गया हो, 2024 में भी वह 45 वर्ष पर ही टिकी रह सके? देश में बढ़ती बेरोजगारी को दूर करने के लिए एक भी ठोस उपाय तो किये नहीं गये, फिर इसे 52 वर्ष कहने के बजाय 45 वर्ष पर ही किस अदृश्य शक्ति ने रोके रखा है? ऐसे एक नहीं बहुत से सवाल हैं, जिन्हें हम कॉमन सेंस का सहारा लेकर नहीं पूछते। लेकिन उस महिला का क्या करें, जिसने बड़े चाव से उज्ज्वला योजना के तहत मुफ्त सिलेंडर और चूल्हा हासिल किया हो, लेकिन 500 रूपये का गैस सिलिंडर अब उसे 1,100 में भरवाने के लिए कहा जा रहा हो। आज जब गैस से फिर उसे लकड़ी और गोबर के कंडे पर खाना बनाना पड़ता है, तो ज्यादा बुरा लगता है। हालत यह है कि पीएम मोदी ने अपने संसदीय क्षेत्र बनारस में जिस गांव को 10 साल पहले गोद लिया था, वहां पर भी आज कुछ घर विभिन्न रिपोर्टों में मिले हैं जिनके पास शौचालय तो है लेकिन पक्की छत नसीब नहीं है। ऐसे बहुत से मुद्दे हैं, जिनका समाधान भाजपा के नारों और घोषणापत्र में टीवी और समाचार पत्रों में तो मिल जाता है, लेकिन वास्तविक धरातल पर देखते हैं तो स्थितियां इसके ठीक विपरीत हैं।
लेकिन जैसा कि लेख में पहले ही बताया जा चुका है कि मीडिया पर पूर्ण नियंत्रण भाजपा को आश्वस्त कर रहा था कि जो वह कहेगी और मोदी जी दावा करेंगे, वही मुख्यधारा की बहस में बना रहने वाला है। तलछट पर पड़े करोड़ों लोगों ने जैसे पहले मान लिया था कि उनका और देश का भविष्य बेहतर हो रहा है, वैसे ही इस बार भी मान लेंगे। वर्ना क्या वजह थी वित्त मंत्रालय के माध्यम से नीति आयोग को यह दावा करने की कि देश में पिछले 10 वर्षों के दौरान गरीबी में तेजी से कमी आई है, और मात्र 5 करोड़ भारतीय ही गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे हैं। आज नरेंद्र मोदी और भाजपा इस सरकारी दावे को भूल कर भी नहीं दुहरा रही है। क्यों? क्योंकि आम लोग ही पलटकर सवाल कर रहे हैं कि यदि आपने 10 वर्ष में 20 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर लाने का कारनामा कर दिखाया है तो 80 करोड़ लोगों को जो 5 किलो मुफ्त राशन दे रहे हैं, वो क्या पड़ोसी देशों को खिला रहे हैं?
भाजपा को राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में मिली अप्रत्याशित सफलता ने कैसे नरेंद्र मोदी को आगे बढ़कर वो करने के लिए प्रेरित किया, जिसे दिल में लिए वे पिछले 9 वर्षों से कसमसा रहे थे। नतीजे के तौर पर राजस्थान से वसुंधराराजे सिंधिया और मध्य प्रदेश से शिवराजसिंह चौहान को दूध में गिरी मक्खी की तरह बाहर कर दिया गया। यही हाल छत्तीसगढ़ में भी देखने को मिला। आज इन तीनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पर्ची वाले मुख्यमंत्री के तौर पर जाना जाता है, 90% प्रदेशवासियों को 4 महीने बाद भी इनके नाम नहीं पता होंगे। इस प्रकार गुजरात की प्रयोगशाला को निर्द्वन्द होकर हरियाणा, उत्तराखंड के बाद राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में आजमाया जा चुका है। भाजपा-आरएसएस के भीतर किसी के चूं करने का सवाल ही नहीं उठता। लंबे समय से यूपी में भी यही लुकाछिपी का खेल चल रहा है, जिसे योगी आदित्यनाथ और ठाकुर लॉबी भांप रही है।
इस प्रकार यह मानते हुए कि विपक्षी इंडिया गठबंधन अभी तक किसी ठोस आधार पर खुद को खड़ा कर पाने में असमर्थ रही है, और साझा न्यूनतम कार्यक्रम या विपक्ष के पीएम पद का चेहरा तक पेश कर पाने में नाकामयाब साबित हुई है, पीएम नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने अपने हिसाब से भाजपा को चलाना शुरू कर दिया। टिकट किसे देना है और किसका काटना है, को लेकर भले ही राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा को आगे किया गया हो, लेकिन सारा देश जानता है कि इस सभी फैसलों पर अंतिम निर्णय कौन लेता है। मीडिया के हिसाब से तो मोदी का डंका बज रहा था, और जी-20 की अध्यक्षता और विदेशों, खासकर व्हाइट हाउस में नरेंद्र मोदी के भव्य स्वागत को देश के अख़बारों में विश्वगुरु की छवि और 2027 तक जापान और जर्मनी को पछाड़ते हुए मोदी के नेतृत्व में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यस्था बन जाने के दावे को भला देश की जनता कैसे इंकार कर सकती है?
भाजपा के स्थापित वोटबैंक में विचलन
‘अबकी बार,400 पार’ के नारे के साथ 2024 के चुनावी सफर की जोरदार शुरुआत करने वाली भाजपा की गाड़ी में पहले ही चरण पर अचानक ब्रेक लग गया। राजस्थान और हरियाणा जैसे राज्यों में जहां 100 में 100 अंक लाने वाली भाजपा के लिए जगह-जगह पर कड़ी टक्कर और हार मुहं बाए खड़ी दिखी। राजस्थान में चुरू से दो बार लगातार सांसद रहे राहुल कस्वां का टिकट कटना जाट बिरादरी को बुरी तरह से अखरा है। ऊपर से गुजरात के राजकोट से मोदी के खास परषोत्तम रुपाला का राजपूतों के खिलाफ अमर्यादित बयान सिर्फ गुजरात ही नहीं बल्कि राजस्थान और उत्तर प्रदेश तक में भाजपा को बुरी तरह से झुलसा रहा है। 400 पार के मायने समझाते हुए भाजपा के कर्नाटक से 6 बार सांसद रहे अनंत हेगड़े ने पहले ही बता दिया था कि इस बार हम देश के संविधान को ही बदलने जा रहे हैं। अंदर की बात सार्वजनिक करने की उन्हें सजा मिली, और इस बार उनका पत्ता कट गया। लेकिन 10 साल तक देश की सत्ता पर निर्द्वंद होकर राज करने वाली भाजपा के अन्य सांसदों और प्रत्याशियों ने भी कुछ इसी प्रकार के बयान जारी किये हैं, जिसमें यूपी से फ़ैजाबाद और मेरठ लोकसभा सीट पर चुनाव लड़ रहे प्रत्याशी प्रमुख हैं।
भाजपा 400 पार आई तो बाबासाहेब अंबेडकर द्वारा दिए गये संविधान को बदल देगी, से दलितों और आदिवासियों के बीच में घबराहट बढ़नी स्वाभाविक थी, विशेषकर महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्य में आंबेडकरवादी समूहों के बीच यह बात पैठ चुकी है। यही कारण है कि महाविकास अघाड़ी में शामिल होकर बाहर जाने वाले प्रकाश आंबेडकर तक को महाराष्ट्र के अधिकांश दलित इस बार हाशिये पर डालकर इंडिया गठबंधन को वोट कर रहे हैं। यह आग यदि उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों तक में फ़ैल जाती है, तो भाजपा की समूची रणनीति ही धरी की धरी रह जाने वाली है। पिछले दो चरण के चुनावों में भी इसकी एक झलक देखने को मिली है। ऐसा कहा जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में इस बार दलितों का बड़ा हिस्सा अगर बसपा के पक्ष में गया है तो दूसरा हिस्सा पूरी तरह से भाजपा के पक्ष में जाने के बजाय इंडिया गठबंधन को भी मिला है।
मोदी राज करते रहे, राहुल ने पिच तैयार करने में खुद को खपाया
इन सभी कारकों के साथ एक महत्वपूर्ण कारक और है, जिसने पीएम नरेंद्र मोदी को अपनी पारी खुलकर खेलने का मौका ही नहीं दिया है। यही वह सबसे प्रमुख बिंदु है, जिसपर राहुल गांधी पिछले 6 महीने से लगातार एक ही स्थान पर बोलिंग करते जा रहे हैं और मोदी के लिए इस गेंद को खेलना असंभव है। यही वह पिच है जिसे पिछले 2 वर्षों से राहुल गांधी ने देश में पैदल घूमकर हासिल किया है, और उस पिच पर मोदी के उतरने का अर्थ होगा हर बार शून्य पर आउट होना।
यह पिच है देश में करोड़ों-करोड़ हताश युवाओं की बुझती आशा और आकांक्षाओं की। फ़ौज में जाने की राह देखकर मोदी राज से बुरी तरह निराश लाखों युवाओं और एक अदद सरकारी नौकरी की तलाश में रह-रहकर आत्महत्या की सोच रखने वाले यूपी, बिहार, एमपी और राजस्थान जैसे हिंदी प्रदेश के करोड़ों बेरोजगार युवाओं की। कांग्रेस ने 30 लाख रिक्त सरकारी पदों पर तत्काल भर्ती का वायदा किया है। इसी प्रकार करोड़ों शिक्षित युवाओं के लिए 1 साल अपरेंटिसशिप के एवज में 1 लाख रूपये की गारंटी कर उन्हें रोजगार के बाजार में अनुभव प्रदान करने का अवसर देने की बात कही है। मनरेगा में न्यूनतम 400 रूपये की दिहाड़ी ग्रामीण अर्थव्यस्था में बने गतिरोध को तोड़ने में मददगार साबित होगी। करीब 1 करोड़ आंगनबाड़ी महिलाओं की आय में 100% बढ़ोत्तरी भी एक बहुप्रतीक्षित मांग रही है।
पंजाब, हरियाणा सहित देश के विभिन्न राज्यों के किसानों का आंदोलन भले ही आज थम गया हो, लेकिन उनके दिलों में यह बात गहरे तक बैठ चुकी है कि हर अगले सीजन के साथ उसके लिए उच्च लागत और घाटे की खेती को करते रहने का कोई अर्थ नहीं है। एनडीए शासन में किसी भी कीमत पर उसे स्वामीनाथन कमीशन वाले फार्मूले पर खाद्यान की कीमत नहीं मिलने वाली है। कांग्रेस ने फसलों पर एमएसपी की गारंटी और कर्जमाफी की बात कह किसान आंदोलन के बड़े तबके को अपने पक्ष में लाने का काम किया है।
इसमें सबसे महत्वपूर्ण है देश में जातिगत जनगणना कराने का फैसला। देश में दलितों और आदिवासियों के अलावा विभिन्न ओबीसी जातियों, समुदायों की सटीक संख्या और उनकी माली हालत को आधार बनाते हुए देश में आर्थिक नीतियों को इस प्रकार से तैयार करने की बात, जो देश में तेजी से बढ़ती गैर-बराबरी को कम करे और एक समतामूलक समाज की गांधी, नेहरु और अंबेडकर के सपनों के भारत की नींव फिर से पुनर्स्थापित की जा सके।
यही वह लक्ष्मण रेखा है, जिसे पार करने का साहस नरेंद्र मोदी नहीं दिखा पा रहे। असल बात तो यह है कि दो वर्ष पहले तक कांग्रेस या राहुल गांधी ने भी इस बारे में गहराई से चिंतन नहीं किया था। 2014 से 2019 तक तो कांग्रेस इसी आस में रही कि जैसे हर बार विरोधी सरकार से असंतुष्ट जनता उसे सत्ता में वापस ले आती है, इस बार भी वही होगा। लेकिन 2014 वाली मोदी सरकार उग्र हिंदुत्ववादी पूर्ण बहुमत वाली सरकार थी, जिसे खुलकर खेलने की आजादी थी। 2019 का चुनाव तो पुलवामा के बाद असल में विपक्ष ने लड़ा ही नहीं। लेकिन दूसरी बार सत्ता में आते ही जिस प्रकार से मोदी-शाह की जोड़ी ने धारा 370, सीएए कानून, तीन कृषि कानून और कार्यकाल के अंतिम दौर में आते-आते विपक्ष को संसद से बहिष्कृत कर धड़ाधड़ एक के बाद एक कानून पारित करा दिए, उसने अनजाने में विपक्षी एकता को ही एकजुट करने में भरपूर योगदान किया है।
आज भले मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी इसी बात से हैरान-परेशान हो कि आये दिन कांग्रेस या अन्य क्षेत्रीय दलों के नेता भाजपा का दामन थामकर भाजपा को मजबूत बना रहे हैं। पीएम मोदी भी जानते हैं कि भारत में 10% हवा का रुख देखने वाले मतदाताओं पर इन चीजों का गहरा असर पड़ता है। लेकिन इस चक्कर में उन्होंने अपने घर की क्या गत बना दी है, और सारे दलों का कूड़ा-कचरा देख आरएसएस का आम कार्यकर्ता क्यों उदासीन होकर इस पूरे तमाशे से अपनी दूरी बनाये हुए है, इस पर उनका ध्यान काफी देर बाद गया। इसी प्रकार, इलेक्टोरल बांड का मुद्दा भले ही समाज के अधिसंख्य गरीब तबके तक नहीं पहुंचा हो, लेकिन देश की नौकरशाही, व्यवसायी वर्ग और पढ़े-लिखे वर्ग के बड़े हिस्से को भी आज सोचने पर मजबूर होना पड़ रहा है कि अगर यही सब चलता रहा और वे इसे खामोश होते देखते रहे तो विश्वगुरु बनने की बात तो दूर रही, देश का जनाजा निकलने में ज्यादा देर नहीं है।
हालत यह हो चुकी है कि मोदी सहित समूची भाजपा आज कांग्रेस के घोषणापत्र का प्रचार जोर-शोर से कर रही है। भाजपा के दावे और घोषणापत्र की बातें हवा हो चुकी हैं। भाजपा ने अपने संकल्प-पत्र में नारी शक्ति वंदन अधिनियम, लखपति दीदी, मुफ्त राशन, एमएसपी में बढ़ोत्तरी, सौर उर्जा से मुफ्त बिजली, स्टार्टअप और प्रतियोगी परीक्षाओं में पेपर लीक को रोकने के लिए कानून बनाने, एक राष्ट्र-एक चुनाव, समान नागरिक संहिता, 70 से अधिक उम्र के बुजुर्गों के लिए मुफ्त आयुष्मान योजना सहित 5 ट्रिलियन डॉलर वाली अर्थव्यस्था बनाने जैसे हवा-हवाई नारेबाजी की है। आम लोगों के बीच अधिकाधिक यह बात साफ़ होती जा रही है कि भाजपा एक सफल इवेंट मैनेजमेंट पार्टी है, जिसके नारों में तो गजब की कशिश होती है, लेकिन डिलीवरी के नाम पर सब कुछ टायं-टायं फिस्स ही होने वाला है। यह बात 2014 में 20 वर्ष के युवा को समझ नहीं आई, लेकिन आज 30 की दहलीज पर पहुंच चुके उसी युवा के सामने उसका भविष्य पूरी तरह से अंधकारमय है।
7 चरणों तक चलने वाले इस लोकसभा चुनाव को भारत के चुनाव आयोग ने किस प्रकार पीएम मोदी के हिसाब से तैयार किया था, इस बारे में तो अब किसी को भी संदेह नहीं रहा। लेकिन किसे पता था कि जैसे-जैसे अगला चरण आयेगा, 400 पार का कोई नामलेवा नहीं बचेगा, और देश में ‘मोदी हटाओ-देश बचाओ’ के तहत साधनहीन विपक्ष की मदद के लिए देश का गरीब-गुरबा ही आकर मुकाबले में डट जाने वाला है।
(रविंद्र पटवाल लेखक और टिप्पणीकार हैं।)
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