आखिर तीन साल की उस बच्ची की मौत हमें क्यों लम्बे समय तक परेशान करती रहेगी ?

नम्रता (बदला हुआ नाम) इन्दौर के आई टी पेशेवर पति पत्नी की बेटी नहीं रही। उसे ब्रेन टयूमर था, जिस पर जनवरी माह में मुंबई में सर्जरी हुई थी, मगर मार्च महीना आते-आते टयूमर की वापसी के लक्षण फिर दिखने लगे और कुछ ही दिनों  के अंदर उसने अंतिम सांस ली।

कहने के लिए इस कहानी में कोई भी चीज़ असामान्य नहीं लगती। बच्ची को बेहतर चिकित्सकीय सहायता मिली, उसके जैन समुदाय से जुडे़ आई टी पेशेवर माता-पिता के लिए पैसा कभी कोई समस्या नहीं थी।

इन तमाम विवरणों  के बावजूद इस समूची कहानी का एक पक्ष ऐसा है जिसके चलते उस बच्ची की जिन्दगी के आखिरी चंद घंटों की बात को भूल जाना मुमकिन नहीं हो रहा है, आखरी कुछ घंटे, जब वह अत्यधिक वेदना से गुजर रही होगी और उसी वक्त़ उसे जिस तरह अस्तपाल के बिस्तर से किसी बिल्कुल अजनबी स्थान पर ले जाया गया और एक रस्म से गुजरना पड़ा ताकि ‘उसका अगला जन्म बेहतर हो’ – जैसा कि माता-पिता के आध्यात्मिक गुरू ने उन्हें समझाया था-रह रह कर आंखों  के परदे के सामने से गुजरती दिख रही है।

चंद अख़बारों में प्रकाशित रिपोर्टों के मुताबिक अस्पताल के बिस्तर से-जहां उसे दर्द शमन करनेवाले उपायों की अत्यधिक आवश्यकता थी-उसे जैन समुदाय से जुड़े आध्यात्मिक गुरू के आश्रम में ले  जाया गया, जिसने उन्हें समझाया था कि यह छोटी बच्ची अगर ‘संथारा’ अपना ले तो‘ न केवल उसकी पीड़ा कम होगी बल्कि अगले जन्म में बेहतरी की भी संभावना होगी।’
और यह आई टी पेशेवर माता पिता-जो मुश्किल से 30-32 साल के थे-उन्हें इस बात से कोई गुरेज नहीं हुआ कि उसे आश्रम शिफ्ट किया जाए, यह जानते हुए कि वह अथाह दर्द से गुजर रही होगी और आनन-फानन में  ऐसा कोई बदलाव उसकी मौत को करीब ला देगा।

संथारा या सल्लेखना, जैसा कि मालूम हो एक जैन प्रथा है, जहां व्यक्ति मौत की कामना करते हुए स्वेच्छा से अन्न और जल का त्याग कर देता है। औसतन हर साल दो सौ के करीब लोग इस तरह सल्लेखना को अपनाते हैं।

इस बात को मददेनज़र रखते हुए कि यह प्रथा एक तरह से आत्महत्या के करीब है, उसे राजस्थान उच्च अदालत ने गैरकानूनी घोषित किया था और कहा था कि संविधान की धारा 309 के तहत यह एक अपराध है-जिसके तहत ‘आत्महत्या के प्रयास’ पर कार्रवाई की जाती है। अदालत ने यह भी साफ किया था कि उसे धर्म के आवश्यक हिस्से के तौर पर भी समझा नहीं जा सकता और इसलिए धारा 25 के तहत भी उसकी रक्षा नहीं की जा सकती। बाद में मुल्क की आला अदालत ने उच्च न्यायालय के इस निर्णय पर स्थगनादेश दिया था।

फिलवक्त़ हम संथारा के प्रति अपनी असहमति आदि की चर्चा मुल्तवी कर सकते हैं, लेकिन कम से कम इतनी सी बात पर सहमत हो सकते हैं कि कोई वयस्क ही असाध्य बीमारी के हालात में यह फैसला ले सकता है कि वह स्वेच्छा से मृत्यु चाहता है।अगर हमारा संविधान किसी अल्पवयस्क को अगर वोट देने या ड्राइविंग लाइसेंस का अधिकार एक खास उम्र तक नहीं देता है तो फिर यह कैसे हो सकता है कि वह जीवन के बजाय मृत्यु का वरण कर ले, तो उसके प्रति संविधान सहमत होगा।

और तीन साल के बच्चे के लिए तो यह बिल्कुल मुश्किल होगा कि वह इसके बारे में निर्णय ले। अगर ऐसा कोई बच्चा यह कदम उठाता है तो यही माना जाएगा कि उसे मजबूर किया गया है या उस पर यह लादा गया है। रिपोर्ट बताती है कि संथारा की रस्म शुरू होने के साथ कुछ ही समय में बच्ची की मौत हुई-आई टी पेशेवर माता-पिता की उस संतान की जीवन लीला समाप्त हो गयी।

वैसे इस मौत की ख़बर-जो तुरंत सार्वजनिक होनी चाहिए थी-उसे लोगों तक पहुंचने में डेढ़ महीने का वक्त़ लगा, जब तक अमेरिका स्थित संस्था‘ गोल्डन बुक आफ रेकार्डस’ ने इस बात पर अपनी मुहर नहीं लगायी कि उनकी बेटी नम्रता दुनिया की सबसे छोटी बच्ची के तौर पर याद की जाएगी‘ जिसने संथारा की धार्मिक रस्म का संकल्प लिया।’

नम्रता की दर्दनाक मौत कई सवाल खड़े करती है-

  • आखिर किस तरह अपने शिक्षित माता पिता धार्मिक विश्वासों ने जीवन के अंतिम दौर में नम्रता को यातना से गुजरना पड़ा, जब उसका दर्द नाकाबिले बरदाश्त हो रहा था !
  • आखिर किस तरह उन कठिन अवसरों में जब बच्ची को अत्यधिक ध्यान की आवश्यकता थी, दर्द को कम करने के लिए किन्हीं इंजेक्शनों की या अपने आत्मीयों के सहवास की जरूरत थी, उसे अस्पताल के बिस्तर से एक ऐसी अजनबी जगह पर ले जाया गया जहां वह अजनबी लोगों  के बीच थी और उसे संथारा की रस्म से गुजरना पड़ा – जिसने उसकी पीड़ा को और बढ़ाया होगा।
  • यह सभी यातना मूलत‘ इस वजह से दी गयी ताकि ‘उसका अगला जनम बेहतर हो’ और ‘संथारा अपनाने वाली सबसे छोटी बच्ची ’ के तौर पर दुनिया उसे जाने।

आप इस समूचे प्रसंग को किसी भी तरह देखें लेकिन यही पाएंगे कि अपने आध्यात्मिक गुरू के वश में उसके माता-पिता ने अपने उन धार्मिक विश्वासों को अंजाम दिया, जिससे उसका दर्द बेतहाशा बढ़ा और उसकी मौत करीब आयी।

हमारा संविधान मनुष्य जीवन की पवित्रता को स्वीकारता है और हर व्यक्ति के पास अनुल्लंघनीय अधिकार होते है जिन्हें कानून द्वारा प्रदत्त नियमों के अलावा किसी भी सूरत में छीना नहीं जा सकता है। सवाल उठता है कि क्या संविधान के इन बुनियादी सिद्धातों और मूल्यों का उल्लंघन करने के लिए उसके माता-पिता तथा वह आध्यात्मिक गुरू पर कार्रवाई नहीं होनी चाहिए।

क्या इन्साफ का यह तकाज़ा नहीं है कि इस मसले के सभी कानूनी पहलुओं की बारीकी से समीक्षा की जाए और इन तीनों के खिलाफ उचित कानूनी कार्रवाई की जाए? क्या वक्त नहीं आया है कि बाल अधिकार आयोग पहल ले और पुलिस प्रशासन से कहे कि एक बच्ची की मौत को त्वरान्वित करने के लिए उन तीनों के खिलाफ सख्त धाराओं के तहत मुकदमे दर्ज हों।

क्या अब यह वक्त़ नहीं आया है कि कानून पर अमल करने वाली एजेंसियां ऐसे तमाम लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई के बारे में सोचे जहां आस्था और धार्मिक अधिकारों के नाम पर ऐसे तमाम कदम उठाए जाते हैं जो मनुष्य के जीवन की गरिमा का उल्लंघन करते है और इस तरह संविधान की भी अवहेलना करते हैं।

यह बात भी ध्यान में रखी जानी चाहिए कि जब आप ऐसी प्रथाओं का उदात्तीकरण करते है, उन पर प्रश्न नहीं उठाते हैं तो वह अन्य लोगों को भी ऐसे कदम उठाने के लिए प्रेरित कर सकता है।

क्या यह कहा जा सकता है कि नम्रता के माता-पिता कुछ साल पहले दक्षिण भारत के सिकंदराबाद से आयी संथारा के इसी किस्म के मामले के उदात्तीकरण से प्रेरित हुए होंगे, जहां जैन समुदाय से ही सम्बद्ध तेरह साल की एक बच्ची की संथारा के चलते ही मौत हुई थी और किसी पर कोई कार्रवाई नहीं हुई थी।

हकी़कत यही है कि माता-पिता के धार्मिक विश्वासों के चलते नम्रता को जिस पीड़ादायी मौत से गुजरना पड़ा वह कोई अकेला मामला नहीं है।

कुछ साल पहले हम सभी तेरह साल की आठवीं कक्षा में पढ़ने वाली उस बच्ची की मौत के गवाह बने थे, जब उसने 68 दिन का उपवास किया था, उपवास की समाप्ति के महज दो दिन बाद उसकी मौत हदयगति रूकने से हुई थी।(https://www.ndtv.com/hyderabad-news/13-year-old-jain-girl-dies-in-hyderabad-after-fasting-for-68-days-1471700)

आराधना नामक उस बच्ची का परिवार भी एक समृद्ध जैन परिवार था, जो गहनों के व्यवसाय में संलग्न था।

किसी भी संतुलित और संवेदनशील व्यक्ति के लिए यह बात अनाकलनीय लग सकती है कि उसने वह उपवास किया जो दो माह से अधिक चला और फिर उसकी मौत हुई।

इसमें कोई दो राय नहीं कि घर के अंदर का धार्मिक वातावरण और अपने आत्मीय जनों के व्यवहार ने ही उसे इस उपवास के लिए प्रेरित किया होगा। जहां उसके माता-पिता और अन्य करीबियों की जिम्मेदारी बनती थी कि वह उस पर दबाव डालते कि अभी उसकी पढ़ाई का वक्त़ है, मगर बिल्कुल उल्टा हुआ होगा।

आखिर वह किस वजह से इस उपवास के लिए प्रेरित हुई होगी।

मनोचिकित्सक इस बात पर कहते हैं कि किस तरह माता-पिता द्वारा डाले जा रहे प्रत्यक्ष-परोक्ष दबाव के चलते भी बच्चा उन पर निर्भर होता जाता है। वह मनोवैज्ञानिक तौर पर ठीक से वयस्क नहीं हो पाता। और जब इसमें धर्म का प्रवेश होता है तो फिर अपराधबोध की भावना भी जुड़ जाती है जो उन्हें समझाती है कि अगर उन्होने फलां-फलां चीज़ नहीं की तो परिवार को कठिनाई का सामना करना पड़ेगा। वह यह सोचने लगता है कि वह जो कर रहा है या कर रही है वह परिवार की बेहतरी के लिए ही है और भले ही उसमें उसे अपने स्वास्थ्य की थोड़ी कुर्बानी देनी पड़ रही हो।

अगर हम पीछे मुड़ कर देखें तो याद कर सकते है कि आराधना का उपवास जब चल रहा था तो उसे किस तरह गौरवान्वित किया गया, जैन समुदाय से जुड़े बड़े लोग यहां तक कि राजनेता भी उसका दर्शन करने आए और उपवास की समाप्ति के महज दो दिन बाद वह गुजर गयी तो उसके जनाज़े मे सैकड़ों लोग शामिल हुए जिन्होंने उसे ‘बाल तपस्वी’ घोषित किया और उस कार्यक्रम को शोभा यात्रा के तौर पर अर्थात उत्सव की घड़ी के तौर पर सम्बोधित किया।

आराधना के इतने लम्बे उपवास का महिमामंडन और उसके बाद उसकी मौत-आदि घटनाओं ने बाल अधिकार समूहों को काफी उद्वेलित किया और उन्होंने उसके माता-पिता के खिलाफ मुकदमा भी दायर किया। भारतीय दंड संहिता की धारा 303/2/ के अन्तर्गत तथा बाल न्याय अधिनियम की धारा 75 के तहत यह केस दर्ज हुए। जैसा कि ऐसे मामलों में देखा जाता है कि वह अधिक नहीं चल पाते क्योंकि धर्म की प्रथा के खिलाफ बोलने वाले, गवाही देने के लिए बहुत कम लोग तैयार होते है। और पांच महीने में ही उपरोक्त केस ‘सबूतों के अभाव में’ खारिज हुआ, जिसे लेकर बाल अधिकार समूहों की तीखी प्रतिक्रिया सामने आयी जिन्होंने दावा किया कि समुदाय के बड़े लोगों के साथ मिल कर पुलिस ने यह केस बिना अधिक जांच के बन्द किया है। (https://www.hindustantimes.com/india-news/hyderabad-cops-close-case-of-jain-girl-who-died-after-68-day-fast/story-VJWVHo40DY6VdRh4t9FWlJ.html ,  https://www.hindustantimes.com/india-news/hyderabad-cops-close-case-of-jain-girl-who-died-after-68-day-fast/story-VJWVHo40DY6VdRh4t9FWlJ.html)

नम्रता की मौत और उसके पहले आराधना की मृत्यु आदि को आप अलग थलग करके नहीं देख सकते।
न केवल आज़ादी के पहले के हिन्दोस्तां मे बल्कि आज़ादी के बाद के दौर में भी हम ऐसी तमाम मानवविरोधी प्रथाओं से रूबरू होते हैं, जो अलग-अलग धर्मों में, उससे  सम्बद्ध सामाजिक जीवन में मौजूद रही है। दरअसल अब वक्त़ आ गया है कि ऐसी तमाम मानवविरोधी प्रथाओं के खिलाफ, जो सारतः मानवीय जीवन की गरिमा से इंकार का उदात्तीकरण करते हैं, उनका विरोध किया जाए, उनसे अपनी असहमति को जाहिर किया जाए।

अब वक्त़ आ गया है कि हम कर्नाटक के एक हिस्से में प्रचलित ’मादे स्नान’ जैसी  (https://www.newsclick.in/cursed-practice-made-made-snana)  प्रथा को चुनौती दें या ‘देवदासी प्रथा’ के नाम पर अपनी युवा बेटियों को भगवान को समर्पित करने की परंपरा को बेपर्द करे-जिसके तहत बेटी को ईश्वर की सहचारिणी के तौर पर मंदिर में पेश किया जाता है जो बाकी बची जिन्दगी यौनिक गुलामी में बीताती है। (Devdasi – http://probono-india.in/research-paper-detail.php?id=483) हमें चाहिए कि हम अब नामशेष हो चली सती प्रथा को भी चुनौती दें, जो स्त्रियों की जबरन मौत का उदात्तीकरण करती हैं और कहें कि इन प्रथाओं का वक्त़ अब बीत गया है।  ( Sati glorification act – http://probono-india.in/research-paper-detail.php?id=483)  

हर धर्म में या समुदाय में मौजूद ऐसी प्रथाओं का पुरजोर विरोध ही शायद तीन साल की नम्रता को याद करने का सबसे बेहतर तरीका होगा।

(सुभाष गाताडे लेखक, अनुवादक, न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव (एनएसआई) से संबद्ध वामपंथी कार्यकर्ता हैं।)

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