दवाई की तरह सच्चाई हमेशा कड़वी होती है, लेकिन मरीज हो या मित्र, दोनों के फायदे के लिए होती है। हरियाणा में बंपर जीत की ओर अग्रसर कांग्रेस कैसे औंधे मुंह गिर पड़ी, इसके बारे में गोदी मीडिया तक अचंभे में है।
यह एक ऐसी हार है, जिसमें कांग्रेस को तो शायद ही थोड़ा-बहुत गम है, लेकिन जिन करोड़ों भारतीयों ने राहुल गांधी के साथ, नफरत छोड़ो, भारत जोड़ो मुहिम की आस लगा रखी थी, उनके विश्वास को बार-बार छलनी करने की हिमाकत राजनीतिक दल ही कर सकती हैं।
देश ने इस सदमे के बाद भी उम्मीद नहीं छोड़ी और मान लिया कि चलो, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की हार के बाद अब हरियाणा की हार से अवश्य इस पार्टी ने सबक सीख लिया होगा, तो 10 वर्षों से भाजपा शासन से नाराज और आज़िज आ चुके लोग, एक बार फिर से हरियाणा को रिपीट होता देख हैरान नहीं अब सन्नाटे में हैं।
कल तक यही मानकर चला जा रहा था कि राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के निशाने पर विभाजनकारी शक्तियां हैं, और तमाम क्षेत्रीय शक्तियों को एकजुट कर आम कांग्रेसी एक बार फिर से गांधी और नेहरु के भारत के निर्माण में छोटी-मोटी कुर्बानियों को देने से नहीं चूकेगा।
फिर, महाराष्ट्र और झारखंड में तो वैसे भी गठबंधन की ताकतें मौजूद हैं, इसलिए हरियाणा की तरह कांग्रेस परिवार के भीतर सिर-फुटोव्वल वाली नौबत नहीं आने वाली।
लेकिन ये क्या? महाराष्ट्र के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष, नाना पटोले की भाषा तो पूरी तरह से बदली-बदली सी है। लोक सभा चुनाव से पहले तक सभी विश्लेषकों की राय थी कि कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व के अलावा, इंडिया गठबंधन की जीत के लिए उद्धव ठाकरे और शरद पवार की भूमिका प्रमुख होने जा रही है।
लेकिन चुनावी नतीजों में कांग्रेस 13 सीट के साथ राज्य में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, जबकि उद्धव ठाकरे गुट को मात्र 7 सीट के साथ सबसे कम जीत दर्ज हो सकी।
लेकिन क्या इसी आधार पर प्रदेश कांग्रेस को यह मान लेना चाहिए कि अब राज्य में सबसे ज्यादा सीट और मुख्यमंत्री पद पर उसी का दावा होना चाहिए? यह एक ऐसा ट्रिकी प्रश्न है, जिससे एक राष्ट्रीय पार्टी को बेहद गंभीरता से हैंडल करना चाहिए।
यह सही है कि हर राजनीतिक दल के भीतर कार्यकर्ताओं को अपने-अपने दल के नेता और सदस्य संख्या को दूसरे सहयोगी दल से अधिक देखने की महत्वाकांक्षा होती है, लेकिन बड़े राजनीतिक लक्ष्य को क्या इसके आगे मिटा देना चाहिए?
इसके विपरीत, बिहार में भाजपा पिछले दो दशकों से नितीश कुमार को अपने मुख्यमंत्री उम्मीदवार के बतौर न हमेशा सिर्फ पेश की है, बल्कि कायम रखा है। यह अलग बात है कि इसी के साथ-साथ उसने लगातार भीतर ही भीतर नितीश कुमार को कमजोर करते रहने और एक दिन अपने बल पर पूर्ण बहुमत हासिल करने का सपना पाल रखा है।
उत्तर प्रदेश में भी भाजपा ने इसी तरह बसपा को तीन-तीन बार समर्थन देकर सरकार बनाने का मौका दिया। बदले में अनुसूचित जाति के बीच में उसकी घुसपैठ और एक स्थायी वोट बैंक बना पाने में वह कामयाब रही।
2009 में भंडारा जिले के सकोली विधानसभा सीट से भाजपा विधायक के तौर पर अपने राजनैतिक कैरियर की शुरुआत करने वाले नाना पटोले 2014 लोकसभा चुनाव में तब चर्चा में आये, जब उन्होंने भंडारा-गोंडिया सीट से प्रफुल्ल पटेल जैसे दिग्गज राजनीतिज्ञ को भारी मतों से पटखनी दी थी।
लेकिन भाजपा की किसान विरोधी नीतियों से जल्द ही नाना पटोले का मन उचट गया, और 2018 में उन्होंने सांसद पद से इस्तीफ़ा देकर कांग्रेस का दामन थाम लिया था।
2021 में उन्हें महाराष्ट्र कांग्रेस की कमान सौंप दी गई थी, हालांकि इससे पहले ही वे कांग्रेस की ओर से विधानसभा स्पीकर की जिम्मेदारी उठा चुके थे। लेकिन अब जबकि उनके समर्थक महाराष्ट्र के विदर्भ और मराठवाड़ा में उन्हें अगले मुख्यमंत्री के तौर पर अभी से पोस्टर्स में प्रचारित कर रहे हैं।
अभी स्थिति यह है कि महाविकास अघाड़ी में सीटों के बंटवारे को लेकर फाइनल नहीं हो सका है, जबकि भाजपा अपने 99 उम्मीदवारों की सूची जारी कर चुकी है।
पहले कहा जा रहा था कि महाराष्ट्र की 288 सीटों में से 100-100 पर कांग्रेस-शिवसेना (उद्धव) चुनाव लड़ेंगी और शेष 88 सीटों पर एनसीपी (शरद पवार) और अन्य दलों को समायोजित किया जायेगा। अब कहा जा रहा है कि कांग्रेस कम से कम 120 सीट पर चुनाव लड़ेगी, और मुख्यमंत्री पद के लिए फैसला चुनाव के बाद संख्या बल के आधार पर तय होगा।
कांग्रेस इसे अपनी पार्टी के भीतर लोकतंत्र को बनाये रखने की कवायद बताती रही है, जिसके तहत राज्यों में भी पार्टी नेतृत्व फलता-फूलता रहता है। लेकिन फिर सवाल उठता है कि क्या स्थानीय नेतृत्व को राष्ट्रीय हित नहीं देखने चाहिए?
दूसरा, यदि कांग्रेस में वाकई में इतना अधिक लोकतंत्र है कि एक राज्य में ही दो-तीन गुट अपना वजूद बरकरार रख पाते हैं, तो जमीन पर कार्यकर्ता क्यों नहीं दिखता? वोटर लिस्ट से लेकर मतदान के समय बूथ पर समर्पित कार्यकर्ताओं का अभाव ही कई बार जीत-हार के छोटे से अंतर को निर्णायक बना देता है।
कुछ राजनीतिक पंडितों का आकलन है कि राहुल गांधी ने देश की बड़ी आबादी के साथ अपना कनेक्ट बना लिया है, भले ही पार्टी के नेताओं के साथ कनेक्ट और वैचारिक एकता बनी हो या नहीं। वे कांग्रेस का इस्तेमाल एक ऐतिहासिक राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर कर रहे हैं और विभिन्न क्षेत्रीय दलों को एकजुट कर देश के सामने विकल्प देने की कोशिश कर रहे हैं।
पार्टी के पुराने दिग्गजों को समझाने और बदले हालात के मुताबिक चलने पर ऊर्जा लगाना व्यर्थ है। लेकिन, नाना पटोले को तो राहुल ने ही यह कार्यभार सौंपा था। वे वैसे भी कांग्रेस से आगे नहीं बढ़े हैं, जबकि महाराष्ट्र में पहले से पूर्व मुख्यमंत्री, पृथ्वीराज सिंह चव्हाण मौजूद हैं।
मतदान की तारीख 20 नवंबर है, और शिवसेना (उद्धव) और एनसीपी (शरद) गुट के लिए तो महाराष्ट्र ही सबकुछ है। ऐसे में, विशेषकर उद्धव ठाकरे की पार्टी में बैचेनी और असंतोष स्वाभाविक है, क्योंकि यही वह दल है, जिसने दशकों से जारी भाजपा-शिवसेना गठबंधन को तोड़कर महाराष्ट्र में भाजपा की योजनाओं पर पानी फेरने का काम किया था, जबकि, शरद पवार की एनसीपी अपने ढलान पर है।
यही कारण है कि शिवसेना की ओर से लगातार सीटों के बंटवारे को लेकर कांग्रेस नेतृत्व पर निशाना लगाया जा रहा है, जिसका फैसला राज्य के बजाय हाई कमान से होता है।
ऐसा कहा जाता है कि राहुल गांधी ने पहले ही शिवसेना को आश्वस्त कर रखा था कि महाविकास अघाड़ी की जीत का सेहरा उद्धव ठाकरे के सिर ही जाएगा, लेकिन सीट समझौते के लिए बैठक में तो राज्य स्तर के नेता ही शामिल हो रहे हैं।
समय कम है, और अफवाहों का बाजार गर्म है। शायद इसी को ध्यान में रखते हुए, आज कांग्रेस नेता, आरिफ़ नसीम खान ने पत्रकारों के सवालों पर कहा है कि “करीब 90% सीटों पर हमारे बीच समझौता हो चुका है। मीडिया में अफवाहों का बाजार गर्म है, और महाविकास अघाड़ी में मतभेद पैदा करने के लिए इसे हवा दी जा रही है।
हां, यह सही है कि मराठवाड़ा, विदर्भ, रायगढ़ और मुंबई में एक-आध सीटों पर अभी तक एकराय नहीं बन पाई है, लेकिन उसे भी एक-दो दिन के भीतर प्यार और मोहब्बत के साथ तय कर लिया जायेगा और जल्द ही तीनों पार्टियों की सूची आनी शुरू हो जाएगी।”
बड़ा सवाल यह है कि ये तो सिर्फ शुरुआत भर है। कांग्रेस नेता पवन खेड़ा दिल्ली में प्रेस कांफ्रेंस कर मीडिया को बताते हैं कि किस प्रकार ऐन चुनाव से पहले भाजपा ने महाराष्ट्र में राजमार्गों के निर्माण के ठेके में 10,000 करोड़ रुपये से ज्यादा कीमत पर आवंटन देकर अपने लिए चुनाव प्रचार का प्रबंध कर लिया है।
उधर नाना पटोले आरोप लगा रहे हैं कि दर्जनों विधानसभा सीटों पर 20-30,000 फर्जी नामों को मतदाता सूची में शामिल किया गया है। इन मुद्दों पर महाविकास अघाड़ी को हल्लाबोल कार्यक्रम कर जनगोलबंदी को अंजाम देना चाहिए, न कि प्रेस कांफ्रेंस कर आम लोगों को सूचित भर कर छुट्टी पा लेनी चाहिए।
लेकिन ये सब तो तब होगा जब गठबंधन के पास स्पष्ट लक्ष्य होता, जिसके लिए हर पार्टी, विशेषकर कांग्रेस बड़े से बड़े त्याग के लिए खुद को आगे रखती।
दो वर्षों की मेहनत से देश के आदिवासियों, दलितों और अल्पसंख्यक तबके का विश्वास एक नेता पर बन रहा था कि यह व्यक्ति बेईमान नहीं नजर आता। लेकिन क्षुद्र निहित स्वार्थों से घिरे कुनबे के साथ इस लक्ष्य का भद्दा मजाक ही पिटना है।
जो पार्टी हरियाणा जैसे छोटे राज्य में अपने ही दल के भीतर के स्वार्थी तत्वों से नहीं निपट सकती है, उससे महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्य में क्षत्रपों की महत्वाकांक्षाओं को हैंडल करने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? ये वे सवाल हैं, जिससे आज बड़ी संख्या में आम मतदाता जूझ रहा है। इसका हल निकाले बगैर महाराष्ट्र या झारखंड का बेड़ा पार होना बेहद कठिन है।
(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं)
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