सुखदेव सिंह ढींढसा की अगुवाई वाले संयुक्त अकाली दल का विलय सुखबीर सिंह बादल की प्रधानगी वाले शिरोमणि अकाली दल में हो गया है। पंजाब की पंथक राजनीति में यह एक अहम मोड़ है। इससे परंपरागत अकाली दल काफ़ी ज़्यादा मज़बूत होगा और दूरगामी असर 2024 के आम लोकसभा चुनाव पर यक़ीनन पड़ेगा। ‘अकाली एकता’ ने हाशिए पर जा चुके दिवंगत प्रकाश सिंह बादल के शिरोमणि अकाली दल को एकाएक प्रासंगिक कर दिया है। पंजाब में राजनीतिक समीकरण बदल गए हैं।
सुखदेव सिंह ढींढसा की घर वापसी से अकाली-भाजपा गठबंधन की संभावनाओं को और ज़्यादा बल मिल गया है। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व से ढींढसा के बहुत अच्छे ताल्लुक़ हैं। विलय से पहले संयुक्त अकाली दल राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का हिस्सा था। ढींढसा का सूबे का राजनीतिक हृदय कहलाने वाले इलाके मालवा में अच्छा जन-प्रभाव है। मालवा में असरदार होना पंजाब के किसी भी राजनैतिक दल के लिए ख़ास अहमियत और मायने रखता है। बादल परिवार की राजनीतिक धुरी और सियासी ज़मीन भी वस्तुत: यही क्षेत्र है।
सत्तासी वर्षीय सुखदेव सिंह ढींढसा को सुखबीर सिंह बादल ने मरहूम अकाली दिग्गज प्रकाश सिंह बादल की जगह देते हुए शिरोमणि अकाली दल का सरपरस्त घोषित किया है। ढींढसा, बड़े बदल के बहुत पुराने और बुनियादी साथियों में से एक रहे हैं। शिरोमणि अकाली दल को सशक्त बनाने में उनकी अहम भूमिका रही है। अलहदा होने से पहले वह शिअद के पहली कतार के नेता थे। वह वाजपयी सरकार में अकाली कोटे से सन् 2000 से 2004 तक केंद्रीय खेल और रसायन उर्वरक मंत्री रहे। उनके बेटे परमिंदर सिंह ढींढसा राज्य की अकाली-भाजपा गठबंधन सरकार में वित्त व योजना और लोक निर्माण मंत्रालय संभाल चुके हैं। उन्हें शिरोमणि अकाली दल विधायक दल का नेता भी बनाया गया था। परमिंदर पांच बार विधानसभा चुनाव जीते हैं। इससे ढींढसा परिवार के कद अथवा रुतबे का अंदाज़ा बख़ूबी लगाया जा सकता है।
साल 2012 में राज्य में अकाली-भाजपा गठबंधन लगातार दूसरी बार सत्ता में आया तो शिरोमणि अकाली दल पर सुखबीर सिंह बादल हावी होने लगे। बाद में यह ज़मीन से जुड़े प्रकाश सिंह बादल का शिरोमणि अकाली दल नहीं बल्कि सुखबीर सिंह बादल का अकाली दल हो गया; जिन्होंने इसे कॉरपोरेट संस्कृति में ढाल दिया। सुखबीर को उपमुख्यमंत्री और गृह विभाग का मुखिया बनाकर प्रकाश सिंह बादल ने उन्हें अपना सियासी वारिस घोषित कर दिया। सुखबीर सिंह बादल की मनमर्जियों में इज़ाफ़ा होता चला गया। शिरोमणि अकाली दल पूरी तरह से कॉर्पोरेट सांचों में ढल गया। खांटी और प्रकाश सिंह बादल के पुराने साथी ख़ुद को उपेक्षित और असहज पाने लगे। कहीं न कहीं अपमानित भी महसूस करने लगे। ऐसे नेताओं में सुखदेव सिंह ढींढसा प्रमुख थे।
छह साल पहले उन्होंने यह कहकर अपने असंतोष को मुखर अभिव्यक्ति दी कि सुखबीर सिंह बादल और उनके संगी-साथियों की कार्यशैली से टकसाली अकालियों का दम घुट रहा है। 2017 के विधानसभा चुनाव में शिरोमणि अकाली दल को करारी शिकस्त मिली तो ढींढसा ने इसके लिए सीधे तौर पर सुखबीर को ज़िम्मेदार ठहराया। वैसे, इससे पहले वह अपनी अलग राह चुन चुके थे। छह साल पहले उन्होंने जत्थेदार रणजीत सिंह ब्रह्मपुरा सरीखे प्रकाश सिंह बादल के पुराने हमसफ़र और कुछ अन्य नेताओं के साथ मिलकर संयुक्त अकाली दल बना लिया। 2022 के विधानसभा चुनाव में संयुक्त अकाली दल कोई खास करिश्मा तो नहीं कर पाया लेकिन उसने बादलों के शिरोमणि अकाली दल को तगड़ा नुक़सान पहुंचाया। गठन के वक्त से ही संयुक्त अकाली दल का भाजपा के साथ गठबंधन हो गया था और वह एनडीए का हिस्सा बन गया।
सुखदेव सिंह ढींढसा की भाजपा से पुरानी नज़दीकियां हैं। केंद्र की भाजपा सरकार की बदौलत 2019 में उन्हें पद्म भूषण से नवाजा गया। हालांकि 2020 के किसान आंदोलन के समर्थन और केंद्र सरकार की किसान विरोधी नीतियों की मुखालफत में उन्होंने पद्म भूषण लौटा दिया। बावजूद इसके भाजपा से रिश्ता क़ायम रहा। अब उस रिश्ते का राजनीतिक लाभ शिरोमणि अकाली दल को मिलना तय है। ढींढसा का फिर से साथ हासिल करने के लिए सुखबीर को जबरदस्त कवायद करनी पड़ी। उन्होंने पुराने टकसाली नेताओं से बार-बार माफ़ी मांगी। आख़िरकार कामयाबी हासिल हुई। आगामी दिनों में बीबी जागीर कौर सहित (शिरोमणि अकाली दल छोड़ कर गए) कुछ अन्य वरिष्ठ नेताओं की भी घर वापसी हो सकती है।
खैर, भाजपा की शिखर लीडरशिप के लिए यह साधारण ख़बर नहीं है कि उनके पुराने सहयोगी सुखदेव सिंह ढींढसा, प्रकाश सिंह बादल की जगह शिरोमणि अकाली दल के नए सरपरस्त हैं!
परमिंदर सिंह ढींढसा को भी शिरोमणि अकाली दल में विशेष पद दिया जा रहा है। बीते विधानसभा चुनाव में शिअद को 18.38 फ़ीसदी वोट मिले थे। ढींढसा परिवार का साथ इनमें बढ़ोतरी ही करेगा। अकाली-भाजपा गठबंधन की विधिवत घोषणा कभी भी हो सकती है। यह आम आदमी पार्टी (आप) और कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती और मुसीबत का सबब है। विधानसभा चुनाव में भाजपा को 6.60 प्रतिशत मत मिले थे। शिरोमणि अकाली दल और भारतीय जनता पार्टी में औपचारिक गठजोड़ हो जाता है तो आसन्न लोकसभा चुनाव की तस्वीर तो बदलेगी ही; ढाई साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव के समीकरण भी बदलेंगे।
(पंजाब से अमरीक की रिपोर्ट।)