चैतन्य और सौंदर्य से बनती है कला : मंजुल भारद्वाज 

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चैतन्य और सौंदर्य मिलकर बनाते हैं कला। कला मनुष्य को मनुष्य बनाते हुए इंसानियत का भाव और चैतन्य जगाती है, जहां से जन्मते हैं मानवीय मूल्य जैसे न्याय, समता, शांति ,विविधता, सौहार्द, सौंदर्य बोध और जनकल्याण!

सत्ता इन मूल्यों को अपनी नीति में शामिल करती है। संविधान बनाती है उसी अनुसार एक व्यवस्था निर्माण करती है। व्यवस्था जड़ होती है। कालांतर में व्यवस्था को जड़ता जकड़ लेती है। शोषण, अन्याय और विकारों से व्यवस्था बजबजाने लगती है। जनता परिवर्तन चाहती है पर उसे सत्ता परिवर्तन मिलता है, व्यवस्था परिवर्तन नहीं।

सत्ता अपने दुराचार को, शोषण को, हिंसा और अन्याय को कला के माध्यम से टिकाती है। इसे वो संस्कार, परंपरा और संस्कृति का नाम देती है। सत्ता बड़ी चतुराई से कला के चैतन्य आयाम को गायब कर सौंदर्य पर कुठाराघात कर उसे भोग बना देती है।

भोग को कला के नाम पर जनता को परोसती है। अपने दरबारों में कला के नाम पर भोग यानी मनोरंजन करने के लिए दरबारी नवरत्न रखती है। आजकल उन्हें अकादमी और विभूषण, पद्मश्री पुरस्कारों के सम्मान से नवाजा जाता है।

सत्ता शौर्य, वीर रस को सीधे-सीधे हिंसा को न्यायोचित ठहराने के लिए कला के भोगवादी रूप को जनता के सामने रखती है। इसके उदाहरण आप हिंसा, रक्तपात से भरी भगवान रूपकों की लीलाएं समाज में मंचित होते हुए देखते हैं। नेता बड़े-बड़े समारोहों में अच्छाई पर बुराई की विजय का ढोंग करते हैं पुतलों का वध करते हुए।

नैतिकता का इतना बड़ा पाखंड सत्ताधीश करते हैं और जनता उसे अपनी संस्कृति मानती है। क्योंकि सत्ता संस्कृति की सही समझ जनता में पसरने नहीं देती। 

ज़रा सोचिए हत्या, हिंसा आपकी संस्कृति कैसे हो सकती है? वो कला नहीं हो सकती जो हिंसा को जनमानस में स्थापित करती है। वो सत्ता का भोगवाद है कला के नाम पर। कला इंसानी बोध जगाती है। सत्य से रूबरू कराती है। सत्ता का ध्येय होता है साम, दाम, दंड और भेद से सत्ता बनाना और चलाना।

कला और सत्ता में यही मौलिक और बुनियादी फर्क है। कला प्रेम, अहिंसा, मानवीय मूल्यों की साधना है जबकि सत्ता जनकल्याण के नाम पर जन की हत्या को जायज मानती है।

विचार कीजिए आज तक कोई भी युद्ध, बुराई मिटा पाया है? क्योंकि युद्ध स्वयं एक बुराई है। कोई भी युद्ध शांति स्थापित कर पाया है? क्योंकि युद्ध स्वयं अशांति है। कला अपने मूल स्वरूप में विद्रोही है। यहां विद्रोह रक्तपात या बगावत नहीं है। यहां विद्रोह चेतना का जागृत होना है।

कला अपने सौंदर्य बोध से चेतना जगा विकारों को खत्म कर विचारों को जगाती है। विवेक जगाती है। इस विवेक की लौ में द्वेष खत्म हो प्रेम और सौहार्द पनपता है जहां मानवता जगमगाती है।

सत्ता यह होने देना नहीं चाहती। कला के नाम पर कला / नाटक स्कूलों में भोगवाद (मनोरंजन) को आगे बढ़ाने वाला पाठ्य क्रम पढ़ाती है। सत्ता का जयकारा लगाने वाले भांड तैयार करती है। तकनीक का उपयोग कर बाज़ार में भोगवादी (मनोरंजन) सिनेमा / सीरियल बनवाती है।

जो बिकता है उससे मुनाफाखोर भांड तैयार कर उसे महानायक, सुपर स्टार का तमगा देती है। जो मुनाफाखोरों के दलाल बनकर सत्ता का जयकारा लगाते हैं। 

सत्ता के इसी चक्र को भेदता है ‘थिएटर ऑफ़ रेलेवंस’ नाट्य दर्शन। कला के चैतन्य और सौंदर्य आयामों को जीते हुए जनता के सामने कला के समग्र रूप को प्रस्तुत करता है। थियेटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य सिद्धांत कला के भोगवादी रूप को नकारते हुए कला के मूल स्वरूप को जनता के सामने प्रस्तुत करता है।

थियेटर ऑफ़ रेलेवंस नाट्य दर्शन का सौंदर्य बोध वैकल्पिक नहीं अपितु मौलिक है! जो हिंसा, दुराग्रहों को बढ़ावा दे वो कला नहीं हो सकती। कला के नाम पर सत्ता और बाज़ार का भोगवादी प्रोडक्ट हो सकता है कला नहीं। कला सकारात्मक वैचारिक क्रांति का प्रेम, सद्भाव से भरा विवेक झरना है जो मनुष्य को इंसान बनाता है!

(मंजुल भारद्वाज रंगचिंतक, रंगकर्मी व लेखक हैं।)

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