Saturday, April 27, 2024

बड़ी माता: लोकजीवन में आस्था और परिवर्तन

आइए कहानी शुरू करते हैं कुछ ऊटपटांग नामों से जो बहुत से बुजुर्ग व्यक्तियों के हैं लेकिन आजकल नए नामों में ढूंढे से भी नहीं मिलते।

कुरड़ा यानी गन्दगी के ढेर से जुड़ा हुआ नाम

माड़ू यानी बेकार क़िस्म का व्यक्ति

मोलड़ यानी ख़रीदा हुआ

बा(ह)रु यानी बाहर का व्यक्ति

मंगतु यानी मांगा हुआ

इस प्रकार के नाम रखने की परम्परा के पीछे एक दिलचस्प वज़ह है। जिस परिवार में कोई बच्चा बड़ी माता के कोप का शिकार होकर मर गया उस परिवार में नए बच्चे का नाम इस प्रकार का रखा जाता था जैसे उसका कोई महत्व नहीं है। यहां तक कि उसे पड़ोसियों से मांगे हुए पुराने कपड़े पहनाए जाते थे। यह सब बड़ी माता को धोखे में रखने का एक उपाय था ताकि परिवार में फिर से माता का प्रकोप ना हो।

अब एक लोक कथा पर आया जाए।

एक बार एक बूढ़ी माई कुम्हारिन के घर के बाहर बैठी थी, बहुत जल गई थी। कुम्हारिन ने कहा- मेरे घर में रात को बनी हुई राबड़ी और थोड़ा दही है, तू दही-राबड़ी खा ले। बूढ़ी माई ने राबड़ी और दही खाया तो उसके शरीर को ठण्डक मिली। कुम्हारिन ने कहा- आ मां बैठ जा, तेरे सिर के बाल बिखरे हैं, तेरी चोटी गूंथ देती हूं।

कुम्हारिन माई की चोटी गूंथ रही थी कि उसकी नज़र बूढ़ी माई के बालों में छिपी आंख पर पड़ी। कुम्हारिन घबरा गई और भागने लगी। तब उस बूढ़ी माई ने कहा- डर मत, मैं शीतला देवी हूं। मां अपने असली रूप में प्रगट हो गईं। शीतला माता प्रसन्न होकर उस कुम्हारिन के घर पर खड़े हुए गधे पर बैठ गईं, एक हाथ में झाड़ू, दूसरे हाथ में डलिया। मां ने कुम्हारिन के घर की दरिद्रता झाड़कर डलिया में भरकर फेंक दी।

कुम्हारिन ने हाथ जोड़कर कहा अब आप इसी गांव में स्थापित होकर रहो और जिस प्रकार से आपने मेरे घर की दरिद्रता दूर की ऐसे ही आपको जो भी होली के बाद की सप्तमी को भक्तिभाव से ठंडे जल, दही व बासी भोजन चढ़ाए उसके घर की दरिद्रता को दूर करना और पूजनहारी का अखण्ड सुहाग रखना, उसकी गोद भरी रखना। उसी दिन से गांव में शीतला माता की मढ़ी स्थापित हो गई।

यह कहानी मूलत: राजस्थान के डूंगरी गांव से जुड़ी है।

एक दूसरी कहानी पंजाब में पटियाला ज़िले के एक गांव से जुड़ी है, जिसके अनुसार वहां का राजा प्रत्येक नवविवाहिता वधु को पहली रात आपने पास रखता था। एक बार अम्बाला से आई वधु ने जब राजा के महल में जाने को मना कर दिया तो उसे जबरन ले ज़ाया जाने लगा। तब वो लड़की साक्षात देवी के रूप में प्रकट हुई और उसने पूरे गांव को नष्ट कर दिया।

उस बर्बाद हुए गांव के टिल्ले पर जो नया गांव बसा तो उसका नाम शीतला माता के नाम पर शील रखा गया जहां शीतला का एक बड़ा मंदिर है और मालवा क्षेत्र के श्रद्दालु वहां बड़ी संख्या में पूजा और मेले के लिए आते हैं। 

चेचक का विकराल रूप

चेचक एक भयानक महामारी रही है जो एक ही चपेट में अनगिनत जानों को लील जाती थी। एक अनुमान के अनुसार मैक्सिको और अमेरिका महाद्वीप के 90% नेटिव सन् 1520 में चेचक की चपेट में मारे गए थे। इसी प्रकार सन 1789 में इस महामारी से ऑस्ट्रेलिया के मूलनिवासियों की 70% आबादी को मौत के काल ने ग्रस लिया था।

हमारे देश में भी इस महामारी ने विकराल रूप धारण किया हुआ था। इसके निवारण हेतु किए गए प्रयासों की कथा दिलचस्प है।

भारत में पहली बार बम्बई में सन 1802 में 20 बच्चों को वैक्सीन का टीका लगाया गया जिनमें से एक ब्रिटिश अधिकारी की सर्वेंट की 3 साल की बच्ची एना डस्टहाल के मामले में ही सफलता मिली। वैक्सीन के टीका से उसकी चमड़ी पर जो पीब बनी उससे पांच और बच्चों को वैक्सीन दी गई। उसके लिम्फ़ यानी लसिका से पर्याप्त मात्रा में वैक्सीन सामग्री इकट्ठा करके देश के अन्य भागों में भेजी गयी। 

कहां से आयी वैक्सीन

एक अंग्रेज वैज्ञानिक एड्वर्ड जेनर ने सन् 1800 में चेचक निवारण के लिए काउपॉक्स वैक्सीन का ईजाद किया। उसने वैक्सीन को आगे बढ़ाने के लिए ‘बाजू से बाजू’ तरीक़ा अपनाया जिसके अनुसार वैक्सीन के सुए से एक मरीज़ का लसिका (लिम्फ़) लेकर दूसरे मरीज़ को चढ़ाया जाता था।

जेनर ने लसिका से भिगोए हुए थ्रेड्ज़ को वियना भेजा और वियना से इस्तांबुल के रास्ते बग़दाद भेजा गया। बग़दाद से एक वैक्सीन लगाए हुए बच्चे को बसरा भेजा गया और उस बच्चे की बाजू से और अधिक वैक्सीन बनाई गयी। इसी प्रक्रिया में बम्बई में एना डस्टहाल को सफल नतीजे वाला वैक्सीन दिया गया।

सन् 1805 में बंगाल में वैक्सीन टीकाकरण के अधीक्षक जॉन शूलब्रेड ने अनुभव किया तमाम ब्राह्मण टीकेदारों ने ना केवल टीकाकरण अभियान का विरोध किया बल्कि बच्चों के माता पिताओं को भी टीका ना लगवाने के लिए प्रभावित किया। ऐसे टीकादारों के विरोध और प्रभाव को कम करने के लिए उनको पेंशन के बदले नौकरी छोड़ने की पेशकश दी गयी थी।

उन दिनों वैक्सिनेशन एक दर्दनाक प्रक्रिया थी। ‘बाजू से बाजू’ वाले तरीक़े में तेज धारदार औज़ारों से बच्चों की लसिका निकाली जाती थी ताकि दूसरे बच्चों को वैक्सीन दी जा सके। ऐसे में बच्चों की माएं रोना शुरू कर देती थीं और मां बाप अपने बच्चों को लेकर दूर भाग जाते थे। उन दिनों टीकेदार व्यक्ति डरावने प्रतीत होते थे।

सन् 1898 में तत्कालीन प्रशासन ने यह तर्क देते हुए ‘बाजू से बाजू’ तरीक़े को बंद कर दिया कि इससे सिफलिस और हेपटाइटिस जैसी बीमारी फैलती है। बदले में काफ़-लिम्फ़ का प्रयोग करना शुरू किया गया ताकि उच्च जाति के लोगों में अछूत जाति के बच्चों के लिम्फ़ से बचने के रास्ते टीकाकरण को अधिक स्वीकृति मिल पाए। इसके बावजूद विरोध किसी ना किसी रूप में जारी रहा।

सन् 1913 में साउथ अफ़्रीका में रहते हुए गांधी जी ने भी इसे अपवित्र और बर्बर काम इस बिनाह पर बताया कि संक्रमित गाय या व्यक्ति से वैक्सीन हमारे शरीर में डाला जा रहा है। सन् 1929 में गांधी जी ने ‘नवजीवन’ में लिखा कि शाकाहारी लोग वैक्सीन कैसे ले सकते हैं। उनके लिए टीका लगवाना गौमांस खाने जैसा था। (संदर्भ: ‘Explained: The history of vaccine in India- the cae of smallpox’ – The Indian Express 24.02.2021)

भारत में वर्तमान स्थिति

सन् 1949 में तमाम स्कूली बच्चों को बीसीजी का टीका लगाना शुरू कर दिया गया था लेकिन सन् 1962 में राष्ट्रीय चेचक उन्मूलन अभियान को युद्धस्तर पर चलाया गया। सन् 1975 में चेचक का आख़िरी केस मिलने के बाद सन् 1977 में हमारे देश को डब्लूएचओ से चेचक फ्री देश का प्रमाणपत्र मिल गया था।

माता निकलना

प्रत्येक प्राकृतिक शक्ति और प्राकृतिक आपदा को किसी ना किसी दैवीय शक्ति से जोड़े जाने की कल्पनाशीलता आदिमकाल से प्रत्येक सभ्यता में प्रचलित रही है। चेचक की विकराल महामारी जिसकी चपेट में आए दस मरीज़ों में से तीन ज़िंदा नहीं बच पाते थे और बचे हुए मरीज़ों के चेहरों पर स्थायी दाग व एक या दोनों आंखों का चले जाना सामान्य बात थी।

बीमारी के दौरान शरीर पर छाले पड़ना, उनसे पीब और खून बहना, तेज बुख़ार और छूत का रोग होने की वज़ह से सभी लोगों का दूर दूर रहना आदि ज़िंदगी और मौत के बीच झूलते हुए मरीज़ के लिए एक भयानक दु:स्वपन की मानिद होता था। तो, इस भयंकर बीमारी के प्रकोप वाली लोकदेवी को बड़ी माता के नाम से पुकारा जाता रहा है। और, उसका संस्कारित नाम शीतला माता है।

जब भी चेचक की बीमारी फूटती थी तो आम ज़ुबान में यही कहा जाता था कि बड़ी माता निकली हैं। और, जब चिकनपॉक्स, खसरा, शरीर पर दाने निकलने की बीमारी होती है तो इसे छोटी माता का निकलना कहा जाता है। यानी शीतला माता की किसी बहन विशेष का प्रकोप माना जाता रहा है।

बड़ी माता निकलना एक दर्दनाक स्थिति पैदा कर देता था जब मरीज़ भयंकर पीड़ा से गुजरता है और मौत सामने खड़ी होती है। उसके परिवार में मातम जैसा माहौल पैदा होना स्वभाविक है और इन परिस्थितियों में इसे दैविय आपदा मानते हुए किसी प्रकार से माता के प्रकोप को शांत करने के लिए हर सम्भव प्रयास किया जाता है।

उन्हें अपने आपको भी छूत से बचाना है और चेचक के शिकार सदस्य को बचाने के लिए रसोई में घी या तेल का छौंक नहीं लगाया जाता, बर्तनों के बजने की आवाज़, अन्य प्रकार का शोर और संगीत से बचा जाता है, घर में मांस और शराब का सेवन नहीं होता, रजस्वला स्त्री के प्रवेश और स्त्री-पुरुष के सेक्स की मनाही होती है, मरीज़ को अंधेरे कमरे में रखा जाता है ताकि तेज रोशनी और बिजली के गर्जने की आवाज़ से बचा जा सके।

पूरी रात पानी से भरा एक घड़ा मरीज़ के सिरहाने रखा जाता है जिसे सुबह सुबह माता को शांत करने के लिए नीम के पेड़ की जड़ों में बहा दिया जाता है। इसके अलावा चेचक के शिकार को फूसला और मुनक्का को उबाला हुआ पानी पिलाया जाता है। झाड़-फूंक करने वाले सयाने मंत्र फूंक कर पीने को पानी देते हैं, मोरपंख से झाड़ा लगाते हैं।

अन्य उपायों में सुनहरी धागे से राख का या लाल धागे से पारे और मार्जन का ताबीज़ बांधना, मरीज़ और उसकी मां का ज़मीन पर सोना, जांडी के पेड़ की जड़ों में लस्सी और पानी डालते हुए वापसी पर उसका छिड़काव घर तक पूरे रास्ते में करना आदि आदि स्थानीय प्रकारांतर वाले भिन्न भिन्न उपाय देखने को मिलते हैं।

शीतला माता का रूप

शीतला माता अभी तक शास्त्रीय स्वरूप में स्थापित नहीं हो पाई हैं। लेकिन चेचक की महामारी समाप्त होने के बाद उसके स्वरूप में भी तेज़ी से परिवर्तन हो रहा है। गुरुग्राम जैसे स्थान में शीतला का मंदिर और मूर्ति शास्त्रीय रूप की ओर अग्रसर है।

लोकजीवन में एक विकराल बीमारी के प्रकोप वाली देवी के रूप की कल्पना लीक से हटकर रही है। उसकी सवारी गधे की है, उसके कान हाथी के कानों की तरह चोड़े हैं। बड़े बड़े दांत बाहर को निकले हैं, मुंह खुला है, आंखे बड़ी बड़ी और डरावनी हैं। उसके एक हाथ में झाड़ू है, दूसरे में गागर है और सिर पर छाज है।

इस प्रकार से शीतला के रूप की कल्पना किसी भी प्रकार से सौम्य नहीं है बल्कि भयंकर बीमारी के अनुरूप एक विभत्स और विकराल रूप में बड़ी माता की तस्वीर लोकमानस में स्थापित रही है। जब चेचक फूटती थी तो इसे बड़ी माता निकलना कहा जाता रहा है जबकि चिकनपॉक्स, खसरा, शरीर पर दाने निकलना आदि ग़ैर जानलेवा बीमारियों में छोटी माता निकली है कहा जाता है।

छोटी माताएं बड़ी माता शीतला की छः बहनें है जिनका स्थान आमतौर पर शीतला की थोड़ी बड़ी मढ़ी के दोनों और तीन तीन मढ़ियों के रूप में मिलता है। मढ़ी एक छोटे से चबूतरे पर तिरछी ईंटों को खड़ी करके बनाया गया ढांचा होता है जिसमें देवी या देवता की मूर्ति नहीं होती है या फिर बहुत ही छोटी मूर्ति टिका दी जाती है।

पारम्परिक मंदिरों की अपेक्षा मढ़ियां शुद्ध-अशुद्ध या सात्विक-तामसिक सरोकारों से बाहर होती हैं। आमतौर पर गांव की परिधि से बाहर जोहड़ के आसपास मढ़ियां होती हैं जहां कुत्ते पेशाब करने को स्वतंत्र होते हैं और अग़ल बग़ल में गंदगी का ढेर भी आस्था के बीच कोई रुकावट पैदा नहीं करता है।

शीतला की छः बहनों के नाम हैं- बसंती, मसानी, फूलंमदे, लमकारिया, महामाई और अगवानी। अनेक गांवों में शीतला का या किसी ना किसी छोटी माता का स्वतंत्र पूजा स्थान भी मिल जाते हैं। मसलन हरियाणा में जींद ज़िले के दनौदा ख़ुर्द गांव में केवल मात्र बसंती का पूजा स्थान है और इसी प्रकार से हिसार ज़िला के बिचपड़ी गांव में फूलमंदे का ही मंदिर है।

गुरुग्राम में शीतला का भव्य मंदिर है और उसकी बहन मसानी का मंदिर थोड़ी दूरी पर है। आजकल शीतला के पुराने पूजास्थानों पर अन्य पारम्परिक मंदिरो की तरह इमारतें खड़ी की जा रही हैं और उसकी मूर्ति भी दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती जैसा रूप लिए है।

पूजा पाठ का तरीक़ा

शीतला माता का किरदार प्रकोप से जुड़ा हुआ है और प्रकोप क्रोध की गरमाहट से जुड़ा है। यदि माता निकली है तो उसे शांत करने के लिए ठंडी वस्तुओं का चढ़ावा चढ़ाया जाता है। ठंडी दही, ठंडे दूध की लस्सी, ठंडे गुलगुले, खिचड़ी, दलिया, चूरमा आदि का भोग शीतला माता को चढ़ाया जाता है।

बड़ी माता कभी ना ही निकलें इसके लिए हर साल होली के बाद चैत्र महीने की सप्तमी को एक विशेष उपाय किया जाता है जिसके अनुसार पिछली रात को बनाया गया बासी भोजन सुबह सुबह देवी को अर्पित किया जाता है। इसमें खिचड़ी, गुलगुले, राबड़ी, दही और स्थानीय पारम्परिक खाद्यपदार्थ शामिल होते हैं। इस दिन को सिली सातम भी कहा जाता है।

चढ़ावे के बाद बचा हुआ बासी भोजन परिवार के सदस्यों द्वारा बिना स्नान किए और बिना वस्त्र बदले ग्रहण किया जाता है। बासी भोजन के चढ़ावे और खाने वाली परम्परा को बासीड़ा या बासोड़ा कहा जाता है।

अनेक परिवारों में बासी भोजन का चढ़ावा घर के अंदर ही पानी के घड़े रखे जाने वाले चबूतरे (पैंडी) की जड़ में गिली राख या भिगोए गए बाजरे की सात पिंडियों के रूप में अस्थायी पूजास्थान बनाकर उनकी सात माताओं की तरह बासी भोजन अर्पित करते हुए, धूप-दिया-बाती जलाकर धोक मारी जाती है।

गांव के बाहर खुले मैदान में शीतला की मढ़ी होने की वज़ह से इसे मदानन नाम से भी पुकारा जाता है और कई जगहों पर चौराहे के बीच में भी चौराहा माता के नाम से भी शीतला की पूजा की जाती है। टोने के नाम पर हमें कई बार चौराहे के बीच में नारियल, लाल कपड़ा, कलावा, मिट्ठाई और कुछ सिक्के छोटी मटकी या मिट्टी के बर्तन में रखे मिलते हैं। एक तीसरा नाम भी प्रचलित है जिसे खुली जगह में स्थापित होने की वज़ह से चौगानन माता कहा जाता है।

पहाड़ी इलाक़ों में मदानन की पूजा एक विशिष्ट शक्ति प्राप्त करने के लिए रात के अंधेरे में गुप्त रूप की जाती है और इस पूजा में मुर्ग़े की बलि दिए जाने का विधान है। मदानन को अनिष्टकारी शक्ति की देवी माना जाता है और उसकी सिद्धि भी किसी व्यक्ति विशेष का अनिष्ट करने के लिए प्राप्त की जाती है यानी ये काला जादू से भी जुड़ी है।

मसानी माता को शांत करने के लिए आज भी गुरुग्राम में उसके मंदिर में बकरे और सूअर की बलि दिया जाना सामान्य प्रैक्टिस है। बाल्मीकी समुदाय मसानी को अपनी कुलदेवी मानता है और अनेक ओझे -सयाने ये दावा करते हुए मिल जाएंगे कि उनमें मसानी की शक्ति उतरती है जो ओपरी से ग्रसित व्यक्तियों के कष्टों का निवारण करती है।   

कैसे समझा जाए?

मानव सभ्यता ने आदिम युग से प्रत्येक प्राकृतिक शक्ति की एक दैविय रूप में कल्पना की है। अग्नि, सूर्य, वर्षा, मेघ, वायु,  जल आदि को संचालित करने वाला कोई ना कोई दैविय शक्ति वाला देवी या देवता है। जब भी कोई प्राकृतिक आपदा आती है तो संबंधित देवी या देवता को शांत करने के उपाय मंत्रोचारण, स्तुति, यज्ञ में आहुति आदि आदि से किया जाता रहा है।

कालांतर में अनेक देवी-देवता अपना अर्थ खो बैठे और नए देवता की कल्पना में साकार होते रहे है। इसी प्रक्रिया में लोकजीवन में भयंकर आपदा पैदा करने वाली महामारियों के देवी और देवता लोकमानस में उभरे जिनमें से प्रकोप से जुड़ी विभत्स और डरावने किरदार वाली दैविय शक्तियों को शांत करने के लिए उनकी पूजा का विधान भी अजीबोगरीब रूप से असामान्य रहा है। 

कुछ दिलचस्प उदाहरण यहां दिए जा रहे हैं-

  • “बकरियों में महामारी आई। जब बीमारी शोबा इलाक़े में पहुंची तो लोग कोठी की चण्डिका की शरण में पहुंचे। चण्डिका ने कहा-मुझे कश्मीर (बग़ल में एक स्थान) ले चलकर खूब पूजा चढ़ाओ, मैं महामारी को भगा दूंगी। चण्डिका ने प्रत्येक घर से एक एक बकरा मांगा। कुल सौ से अधिक पशु आए थे।

देवी ने हुक्म दिया कि प्रत्येक गांव से एक एक बधिक लिया जाए। तीन बधिकों के गले में देवी का प्रसाद हरे रेशम की रूमाल बांधी गई। उन्होंने लम्बे डंडे का खांडा हाथों में सम्भाला। माता साब घूम-घूम कर झूम-झूम कर एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाती और छटपटाकर पांच पशु काट दिए जाते। दर्शकों के चेहरों पर बड़ी प्रसन्नता थी, किसी के मुख पर ग्लानि का चिन्ह नहीं था।“

(‘किन्नर देश में’- राहुल सांकृत्यायन)            

  • “रूपिन-सुपिन के मिलन स्थल- संगम तट पर पहाड़ी शैली में सुंदर नक्काशीदार लकड़ी से बना पोखू देवता का मंदिर आकर्षक है। मान्यता है पोखू आसुरी वृति के देव हैं। क्रोध और आक्रोश उनका स्थायी गुण है। अतः देवता की अप्रसन्नता और कोप से भयभीत ग्रामीण इनकी उल्टी उपासना करते हैं यानी पीठ करके मंदिर में प्रवेश करते हैं। नैटवाड़ के साथ लगती रूपिन घाटी में जाख जांगलिक देवता भी आसुरी भावों से भरे हैं। डोडरा-क्वार के निवासी उनके प्रकोप से भयभीत उन्हें मदिरा और मांस का भोग अर्पित करते हैं।”

(‘कदम कदम किन्नौर’- डॉ बी मदन मोहन)

  • “यदि एक या अनेक सयानों द्वारा किए गए उपायों के बावजूद पितरदोष ख़त्म नहीं होता है तो अंतिम उपाय के लिए हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले में एक ऊंचे पहाड़ की रेंज में स्थित हरिपुरधार में बड़ी देवी (देवी का असली नाम पुकारना असम्मानजनक माना जाता है इसलिए यहां भी नहीं लिखा जा रहा है) को छेली और भेली का चढ़ावा चढ़ाया जाता है। छेली के नाम पर बकरे के मेमने की क़ीमत के तौर पर आजकल 275 रुपये और भेली के नाम पर पांच सेर गुड़ होता है। स्पष्ट है कि बलिप्रथा पर रोक लगने के बाद अनेक प्रथाएं अब केवल प्रतीकात्मक रूप में ही रह गई हैं।”

(‘मोरनी हिल्ज़: नरबलि और उसके बाद’ – सुरेंद्र पाल सिंह)

निष्कर्ष

हमारे लोकजीवन और क्लासिक रूप में स्थापित हो चुकी शास्त्रीय परम्पराओं के बीच आपसी संवाद और लेनदेन एक सतत सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया है। चेचक और उससे मिलती महामारियों को हमारी अवचेतन कल्पनाशीलता ने दैविय शक्ति का प्रकोप माना और उन दैविय प्रकोप का प्रतिनिधित्व करने वाली अनिष्टकारी लोकदेवी/ लोकदेवता के विशेष रूप की कल्पना हमारे अवचेतन मन में साक्षात रूप में स्थापित हो गई।

समाज में पावरफुल व्यक्ति हमसे नाराज़ ना हो जाए, हमें कोई नुक़सान ना पहुंचाए, वक्त-बेवक्त हमारी सहायता भी करदे, ऐसा एक विशेष प्रकार का रिश्ता बनाए रखने की मानसिकता के अनुरूप किसी भी दैविय शक्ति से भी हम वैसा ही समीकरण बनाने के लिए भिन्न भिन्न देवी- देवताओं से विशेष प्रकार की पूजा-पाठ और चढ़ावे के माध्यम से उनका स्तुतिगान करते हुए उन्हें प्रसन्न रखने का प्रयास करते हैं।

यदि दैविय शक्ति अनिष्टकारी है, प्रकोप से भारी नुक़सान कर सकती है तो हमारे लोकमन में उसकी तस्वीर भी एक डरावने रूप वाली उभरती है। और, उसे शांत रखने के लिए अजीबोग़रीब प्रपंच उसकी पूजा के नाम से स्थापित हो जाते हैं जिसके अनेक स्थानीय प्रकारांतर भी हमें दिखाई देते हैं।

समयानुसार जब हमारी आवश्यकताओं में परिवर्तन होता है तो विशेष दैविय शक्ति भी अपना अर्थ खोने लगती है। ऐसे में लोकास्था भी नए समीकरण तलाश करने लगती है।

वर्तमान में शीतला माता एक स्थापित क्लासिक देवी के रूप में ब्राह्मण पुजारी, पत्थर और सोने की बनी सौम्य मूर्ति, रोज़ाना के पूजापाठ और आरती, मुंडन संस्कार आदि में परिवर्तित हो रही है। विशेषकर शहरी इलाक़ों में अन्य हिंदू देवी देवताओं के समकक्ष शीतला के मंदिर दिखाई दे रहे हैं।

जब एक लम्बे और सतत टीकाकरण अभियान के बाद चेचक का प्रकोप नहीं बचा तो उससे जुड़ी देवी का रूप भी डरावना नहीं रहा। शीतला माता की मान्यता आज भी है। उसकी बहनों की पूजा अभी भी जारी है लेकिन आस्था और पूजापाठ का स्वरूप बदल रहा है। और, इस बदलते हुए स्वरूप का विशेष अध्ययन एक रुचिकर विषय हो सकता है।

(सुरेंद्र पाल सिंह का लेख।)

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Shiahram
Shiahram
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2 months ago

Sir awesome fue to this I am able to grasp more Knownledge about our culture and area sir thanks for this….

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