कवयित्री के रूप में भाषा सिंह को अनेक बार सुना है, कभी मंडी हाउस में श्रीराम सेंटर के बाहर फुटपाथ पर उनका काव्य पाठ हो या फिर दिल्ली में हुई एक काव्य गोष्ठी में। उनकी कविताएं हमेशा मुझे चकित करती रहीं। भाषा सिंह पत्रकार हैं और सबसे बड़ी बात है कि प्रतिपक्ष की पत्रकार हैं।
लगभग तीन दशकों से उन्होंने अख़बार से लेकर वेबसाइट और यूट्यूबर तक का सफ़र तय किया है। एक लेखिका के रूप में उन्होंने मैला ढोने वाली औरतों से लेकर शाहीन बाग की लड़ती औरतों के संघर्ष को अपनी लेखनी में उतारा है। वे अपनी कविता के साथ ज़िन्दगी के हर मोर्चे पर खड़ी हैं, शाहीन बाग और किसान आंदोलन से लेकर फिलिस्तीन तक।
गुलमोहर प्रकाशन दिल्ली ने उनकी कविताओं को एकत्रित करके उनका पहला संग्रह ‘योनि-सत्ता संवाद, पलकों से चुनना वासना के मोती’ प्रकाशित किया है। इस कविता संग्रह में कुल 29 कविताएं हैं। जिनमें से 4 कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद भी है। इसका अनुवाद अमृता बेरा और शोध छात्रा खिलखिल भाषा नंदिनी ने किया है।
कवयित्री भाषा; भाषा की सारी वर्जनाओं को तोड़कर कथित सभ्य समाज और सत्ता को चुनौती देती हैं। किताब का शीर्षक हमें चौंकाता है, क्योंकि प्रेम और सेक्स को लेकर हमारे समाज में एक दोहरी मानसिकता है। एक ओर तो इसे एक गंदा वर्जित फल माना जाता है, दूसरी ओर लड़कियों से यौन शोषण की घटनाएं हमारे समाज में परिवारों में ही सर्वाधिक अपने लोगों द्वारा ही होती हैं।
60-70 के दशक में साहित्य में विद्रोह के नाम पर एक भूखी,नंगी और दिगम्बरी अराजक पीढ़ी पैदा हुई। जिसने वर्जनाओं से मुक्ति के नाम पर साहित्य में अश्लीलता और वर्जनाएं परोसीं। यही कारण है कि कवयित्री मोना गुलाटी की अनेक कविताएं और राजकमल चौधरी की कई कहानियां कला और आज़ादी के नाम पर वितृष्णा ही पैदा करती हैं।
बाद के दौर में नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह की ऊर्जा से साहित्य में क्रांतिकारी कविताएं ज़रूर पैदा हुईं, इसमें अतिवादी मूल्य भी थे, जो एक झटके से समाज को बदलना चाहते थे, लेकिन इसमें भी स्त्री विमर्श के मूल प्रश्नों की उपेक्षा ही हुई। भाषा सिंह की कविताएं इन दोनों के बरक्स एक नयी ज़मीन तोड़ती हैं।
वे भूमिका में लिखती हैं, “मेरे लिए कविता बतौर एक विधा वह ताक़त है, जो ख़ुद को बेपर्दा खंगालने की वैसी कूची देती है, जो अमृता शेरगिल की न्यूड पेंटिंग में नज़र आती है। अपने और अपनों को उधेड़ना मुश्किल ज़रूर है, लेकिन इसके बिना औरत की मुक्ति की राह नहीं निकलती। बिंब से बिंब टकराते हैं, सरहदों को बेनामी करते हैं और गुंजा देते हैं। राजनीतिक दृष्टि हर रचना का अनगूंज स्वर तय कर देती है।”
वास्तव में भाषा यह कहना चाहती हैं, कि कविता लिखना और कविता की तरह जीना एक राजनीतिक कर्म भी है। इस दृष्टि से अगर भाषा की कविताओं का मूल्यांकन करें, तो इसमें स्त्री की प्रेम की चाहत है, उसकी यौनिकता है और दुनिया को बदलने की एक उत्कृष्ट अभिलाषा भी है। वे अपनी कविताओं में स्त्री के सौंदर्य चित्रण के बहाने अशोक बाजपेयी की तरह नखशिख वर्णन नहीं करतीं। उनकी कविताओं में औरत प्रेम और सौंदर्य के नये प्रतिमान तो गढ़ती ही है, लेकिन प्रश्न भी करती है-:
जितना सुख मिल रहा है
क्यों नहीं सुखी रह सकती उसमें
क्यों चाहिए
पूरी रोटी
पूरा रिश्ता
भरपूर प्रेम
पूरा हक़
और इस तरह से सनातनी एकतारा पर जपने वाला तान
कानों में पिघले शीशे की तरह उड़ेला जाता……
….जिस विधि राखे राम उसी विधि रहिए……..
(पलकों से चुनना वासना के मोती,पृष्ठ संख्या-18)
एक दूसरी जगह उसे अपने प्रेमी से प्रेम की उद्दाम चाहत भी चाहिए-
वासना की गीली ज़मीन पर
लथपथ होकर मैं
गढ़ना चाहती हूँ अपने
प्रेमी को
बची हुई उम्र
में एक-एक पल
क़ीमती है
हरेक पर चाहती हूँ
दर्ज़ रहे
उसके खुरदुरे हाथ की पकड़ सख़्त पकड़ का दाब
सूखे चुभते होंठ कटीली जीभ
जो ज़िंदा रखे मेरे शरीर को
आवेग से भर दे।
(देह की चाक पर वासना के आकार, पृष्ठ संख्या-24)
उनकी कविताओं में केवल प्रेम और दैहिकता ही नहीं है, लड़ती हुई औरत भी है, जो ग़ाज़ा से लेकर दिल्ली, मेवात ,भोपाल और गोरखपुर तक ज़ुल्म के खिलाफ़ सीना तानकर खड़ी है-
तुम्हारे ज़ुल्म के खिलाफ़
खड़ी हूँ मैं ग़ाज़ा में
तुम्हारे बमों के गुबार के नीचे
ढूँढ रही हूँ अपनी गुम औलादों को
मैं खड़ी हूँ
दिल्ली-मेवात-भोपाल-गोरखपुर……में
तुम्हारे हत्यारे बुलडोजर के सामने
ढूँढ रही हूँ गुम हो रहे अपने संविधान को
(अपने लहू में डुबोई कलम की निब,पृष्ठ संख्या-72)
उनकी एक और कविता में औरत का एक नया रूप है। एक मैला ढोने वाली औरत, जो एक औरत से मैलन दादी बन जाती है। भाषा ने अपनी इस कविता में मैला ढोने वाली औरत के भूत, भविष्य और वर्तमान का बहुत मार्मिक चित्रण किया है-
रचते काला संसार
मैले के इर्द-गिर्द
जहाँ जीने की दूसरी लौ न रहे ज़िंदा
न इस दलदल से निजात पाने का कोई रास्ता
आख़िर ऐसे ही तो ये दादी मैलन दादी बनी
और फिर बनती ही चली गई
मैले की जागीरदारिन
जोकि इस दुनिया में भी सब कुछ वैसा नहीं होता जैसा दिखता है
जिस दादी को मैले से घिन न आती है
और
जो 100 तक के अपने कच्चे पैख़ाने
गिनवाने में कोई हिचक न महसूस करती
(टोकरी उलीचने की शिद्दत,पृष्ठ संख्या-98)
भाषा सिंह की यह लम्बी कविता मुझे उनकी सबसे अच्छी कविताओं में से एक लगती है, जो स्त्री विमर्श को एक नया आयाम देती है। उनकी कविताओं में केवल स्त्री विमर्श नहीं है बल्कि अमानवीय हो रही इस व्यवस्था का भयानक चेहरा भी है। उनकी एक कविता भारत को माता कहने की झूठी राष्ट्रीयता का पर्दाफाश करती है,वो विकसित भारत के दावों की भी पोल खोलती है-
भारत निर्माता
भारत माता दम तोड़ रही है
प्लेटफॉर्म पर मरी माँ को
सोया जान
उसके कपड़ों से खेलता नन्हा मासूम
2020 के विकसित भारत का आईना है
और देश का भविष्य है
हमने दरअसल
अपने लोकतंत्र को
इसी तरह लावारिस छोड़ दिया है
(प्लेटफॉर्म पर दम तोड़ती भारत माता, पृष्ठ संख्या-106)
एक दूसरी कविता में फासीवादी सत्ता को कवयित्री ललकारती हैं-
सुनो राजा
जब ख़ून टपक रहा है
उसे रोकना तुम्हारे बस का नहीं
एक-एक क़तरा ख़ून का
माँगता है हिसाब
नीरो हो या हिटलर
सदियों से
सदियों तक
इंसानियत
इनके नाम पर थूकती ही
रहेगी
याद रखना तुम
तुम्हारे नये घर की दीवारों पर
छाप होगी
सारे कोरोना मृतकों के हाथों की
वे ही अपनी लहू भरी हथेलियों
से बनाएँगे रंगोली
(राजा नंगा है तो नंगा ही कहना, पृष्ठ संख्या-62)
भाषा सिंह की अनेक कविताओं में प्रकृति के गहरे रंग भी हैं, विशेष रूप से उनकी ‘अमलतास की तरह’ कविता में वे अमलतास की तरह खिलना चाहती हैं। इस कविता के बिंब बहुत ही खूबसूरत हैं-
फिर-फिर खिलना चाहती हूँ मैं
अमलतास की तरह
धू-धू करती जला देने वाली सच्चाइयों के बीच
उस धूसर सपनों की तरह, जो सोख लेता है
रेगिस्तानी तपिश को
लहकना चाहती हूँ उदास आँखों में चटक उजास की
सूरत
नामाकूल सा खिलना और बिखरना फितरत नहीं मेरी
नज़र से दूर… बहुत दूर चमकना चाहती हूँ
(पृष्ठ संख्या-135)
इस संग्रह की कुछ महत्वपूर्ण कविताओं की बानगी ही मैंने पेश की है। उनकी ढेरों अत्यंत महत्वपूर्ण कविताओं को पढ़ने के लिए इस संग्रह को पढ़ना बहुत ज़रूरी है। भाषा सिंह की कविताएं एक अंधेरी बंद सुरंग से गुजरते हुए देश-दुनिया की शिनाख्त तो हैं ही, साथ ही साथ उनमें बदलाव की चाहत और तड़प भी है।
औरत की गुलामी पितृसत्ता के साथ-साथ इस व्यवस्था से भी है। इस दोहरी गुलामी की अभिव्यक्ति भी उनकी कविताओं में बार-बार आती है। ये अपने-आपको नारीवादी,मार्क्सवादी और अम्बेडकरवादी कहती हैं। इनकी कविताएँं भी आलोचनात्मक यथार्थवाद से मार्क्सवादी यथार्थवाद तक पहुंचती हैं। रूप और अंतर्वस्तु दोनों में उनकी कविताएं अच्छी हैं, लेकिन अभी उनकी और बेहतरीन कविताएं आनी बाकी हैं, यूनानी मिथकों के उस फ़ीनिक्स पक्षी की तरह, जो अपनी राख से बार-बार जी उठता है और एक बार फिर लम्बी उड़ान भरता है-
फ़ीनिक्स हूँ मैं
जी ही उठना है
अपनी राख से
सील मछली की तरह
मौत की ठंड
को चीर
निकलना है
साँस भरने
फेफड़ों में
(फ़ीनिक्स हूँ मैं,पृष्ठ संख्या-137)
(स्वदेश कुमार सिन्हा स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखक हैं।)
+ There are no comments
Add yours