हिन्दी साहित्य के शीर्ष आलोचक, प्रो. मैनेजर पाण्डेय विगत जुलाई से बीमार थे। कोरोना से संक्रमित होने के बाद दिल्ली के फोर्टीज हास्पिटल में भर्ती हुए थे। बीमारी का समाचार मिलते ही मैंने फोन मिलाया था जो उनकी पुत्र वधू, रेखा पाण्डेय ने उठाया था और समाचार से अवगत कराया था। रेखा पाण्डेय विगत पांच माह से लगातार पाण्डेय जी की सेवा में लगी थीं। उनकी सेवा और देखरेख के बाद मैनेजर पाण्डेय की सेहत में कुछ सुधार हुआ। वह घर आए मगर सांस लेने की परेशानी बनी रही। कमजोरी बढ़ती जा रही थी।
वह बैठ नहीं पा रहे थे और दूसरी बार फिर उसी अस्पताल के तीसरी मंजिल पर भर्ती हुए। उन्हें आई.सी.यू. में रखा गया। मेरी आशंका तभी बढ़ गई थी। पाइप पीने की लत के कारण उनके फेफड़े पहले से कमजोर थे और कोविड से उबरने के बाद भी वे साथ नहीं दिए। 81 वर्ष की उम्र में मैनेजर जी चले गए। उनके जाने का समाचार भले ही सत्ता प्रतिष्ठानों के लिए महत्वपूर्ण खबर न हो मगर सोशल मीडिया ने जिस रिक्तता को आज महसूस किया है, उसे श्रद्धांजलियों से समझा जा सकता है। यह सम्मान उन्हें पाठकों, चाहने वाले लेखकों, मित्रों और गांव-जवार, सभी से मिल रहा है।
प्रो. मेनेजर पाण्डेय, अपनी वैचारिकी, खनकती और दहाड़ती आवाज से स्तब्ध कर देने वाले एकलौते आलोचक थे। जो कहते थे, वह साफगोई से। जो लिखते थे, सरोकारों को साधते हुए। उनके हां और ना के विन्यास को समझना, पाठक और श्रोताओं को उद्वेलित कर देने वाला होता। वह गद्य बोलते हुए काव्य-रस में डुबो देते थे। सामाजिक संदर्भों पर टिप्पणी करते समय अनुप्रास को मथकर, आकर्षक बना देते। श्रोताओं का मन करता था वह बोलते रहें।
मैनेजर पाण्डेय गोपालगंज जिले के लोहटी नामक गांव में जन्म लिए थे। गांव उनकी आत्मा में बसा था। यद्यपि इसके लिए उन्होंने बड़ी कुर्बानी दी थी। बिहार के ग्रामीण सामंती परिवेश ने एक समतावादी ब्राहमण परिवार को स्वीकार नहीं किया और उनके एकमात्र बेटे की हत्या कर दी गई थी। बेटे की हत्या ने मैनेजर पाण्डेय को जो दुख दिया, उसकी भरपाई न हो सकी।
बीएचयू से पी-एच.डी. पूरी कर, शिक्षक के पेशे में आए। बरेली कॉलेज और फिर जोधपुर विश्वविद्यालय में हिन्दी प्राध्यापक हुए। वहां से जे.एन.यू. विभागाध्यक्ष के पद पर आ गए थे।
प्रो मैनेजर पाण्डेय लोकरंग के शुरुआती मार्गदर्शक रहे और लगातार चार साल तक इस आयोजन के मुख्य अतिथि के रूप में आए और बाद में एक बार फिर, यानी कुल पांच बार लोकरंग आयोजन को उन्होंने संबोधित कर हमें ऊर्जावान बनाया। लोक संस्कृति के गहरे अध्येता, प्रो मैंनेजर पाण्डेय ने लोक संस्कृतियों के उन पक्षों को रेखांकित किया जो प्रकृति और लोक समाज से ऊर्जा पाती रही हैं और लोक भी उससे ऊर्जा प्राप्त करता रहा है। ‘लोकरंग 2012’ में उन्होंने अपने संबोधन में कहा था कि ‘लोक संस्कृति प्रकृति के साथ रची-बसी होती है। जब-जब मनुष्य पर प्रहार होता है, वह प्रकृति की शरण में जाकर उससे सांत्वना पाता है, उससे साहस और ऊर्जा पाता है। इसके बरक्स अभिजात्य संस्कृति व साहित्य परलोकवादी हैं यानी लोक का उल्टा ही परलोक है। जब-जब उसकी प्राण-धारा सूख जाती है तो वह लोकरूपों से ही ताकत ग्रहण करती है।’
मैनेजर पाण्डेय का गंवई मिजाज, लोक साहित्य से चहकता रहता। उनका कहना था कि लोक की रक्षा कर के ही लोक संस्कृति की रक्षा की जा सकती है। इसलिए सरकारों को लोक संस्कृतियों के प्रदर्शन का दिखावा करने के बजाय लोक को बचाने, उसे मदद करने का काम करना चाहिए। हिन्दी कथा साहित्य के साथ, अपने परिवेश और समाज से जुड़ने, अपने आसपास के ओझल इतिहास की छानबीन करने की प्रेरणा मुझे प्रो मैनेजर पाण्डेय से ही मिली थी।
उन्होंने ही मुझे ‘चौरी चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आंदोलन’ पर काम करने को प्रेरित किया था। वह वैश्विीकरण के जमाने में स्थानीयता को महत्व देते थे। वह कहते थे-‘कभी-कभी लोग शाश्वत और सार्वभौम होने की चिन्ता में ऐसा साहित्य रचते हैं जिसका स्थानीयता से कोई सम्बन्ध नहीं होता और प्रायः समकालीनता गहरे अर्थों में जब स्थानीय होती है और अनुभव की तात्कालिक समग्रता में व्यक्त होती है तभी उसके पाठक, अपने समय और समाज का बोध प्राप्त करते हैं’(कथादेश, जुलाई 2003)।
वामपंथी वैचारिकी ने उन्हें जनपक्षधर बनाया था और उनके लिए आलोचनाकर्म सामाजिक सरोकारों की कसौटी पर परखा जाने वाला कर्म था। वह गांवों की वर्तमान दशा पर एक ही पंक्ति में किताब खोलकर रख देते। कहते कि आज गांवों में झूठ, फूट और लूट का आतंक है। वह पूंजीवाद की क्रूरता पर बराबर प्रहार करते। ‘लोकरंग 2009’ में उन्होंने कहा था कि पूंजीवादी विकास को खारिज कर वैकल्पिक विकास का मॉडल तैयार करना होगा। कॉस्मेटिक चेंज से काम चलने वाला नहीं है। पूंजीवादी विकास से सामाजिकता, सामूहिकता और भाईचारे का विनाश हो रहा है। हमें समाजवाद पर नये सिरे से विचार करना चाहिए।’
प्रो. मैंनेजर पाण्डेय की आलोचना शैली निरंकुशता का निषेध करती है। उन्होंने ‘लोकरंग 2011’ में कहा था कि ‘सत्ता लोक की धन सम्पदा का ही अपहरण नहीं करती बल्कि संस्कृति और दिमाग पर भी कब्जा करने की कोशिश करती है। इसलिए मिथकों पर कब्जा करने की राजनीति पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।’
आलोचना की सरोकारी दृष्टि का पहला साक्षात्कार मुझे उनके एक आलेख से हुआ था, जो इण्डिया टुडे की 2002 की साहित्य वार्षिकी में छपा था। दो दशक पूर्व लिखे लेख-‘सरोकारों से साक्षात्कार’ में आप वर्तमान को निहार सकते हैं। उन्होंने लिखा था- ‘नब्बे के दशक यानी बीसवीं सदी के अंतिम दशक में रचनाकारों की जो नई पीढ़ी हिंदी साहित्य में आई उसके सामने अनेक चुनौतियां पहले से मौजूद थीं। दुनिया के विभिन्न भागों में जो समाजवादी व्यवस्थाएं थीं, उनका विघटन हो चुका था या हो रहा था। उस विघटन के साथ ही पूंजीवादी शोषण और दमन से मुक्ति का समाजवादी स्वप्न भी टूट कर बिखर रहा था।
इसके समानांतर पूंजीवाद, भूमंडलीकरण के नारे के साथ भारत में तेजी से फैल रहा था और उसके साथ ही उपभोक्तावाद और बाजार की संस्कृति का जादुई असर लोगों के दिलो-दिमाग पर छा रहा था। भूमंडलीकरण के नारे का सम्मोहन और चित्त-विजय का सर्वग्रासी अभियान नई पीढ़ी को जितना चकित कर रहा था उससे अधिक आतंकित क्योंकि भूमंडलीकरण का लक्ष्य है, पूंजीवाद को दिग्विजयी बनाना, सारी दुनिया का पश्चिमीकरण करना, जिसका वास्तविक अर्थ है अमेरिकीकरण। इसका परिणाम होगा मानव समाज में आर्थिक विषमता का विस्तार, प्रकृति तथा पर्यावरण का विनाश और हिंसा की संस्कृति का उत्तरोत्तर प्रसार, जो पूंजी की संस्कृति की अनिवार्य विशेषताएं हैं।’
मैनेजर पाण्डेय के उपरोक्त कथन, आज यथार्थ बनकर हमारे सामने हैं। आर्थिक विषमता चरम पर है। एक व्यक्ति चंद सालों में दुनिया का सबसे अमीर बन बैठा तो देश की अस्सी प्रतिशत जनता भूख की आग में तपने को मजबूर कर दी गई। हिंसा, अराजकता, दमन, सब कुछ हमारे सामने नग्नरूप में मौजूद है। उन्होंने अपनी इस पीड़ा को ‘कथा में गांव’ की भूमिका में लिखा था-‘भारत में दो भारत हैं। पहला भारत दस प्रतिशत अमीरों का है और दूसरा भारत नब्बे प्रतिशत गरीबों का है। दूसरे भारत की 72 प्रतिशत जनता भारत के गांवों में रहती है जो देश में सबसे अधिक शोषित और उत्पीड़ित हैं।
पहले भारत में भूमंडलीकरण का जश्न मनाया जा रहा है और दूसरे भारत के किसान भुखमरी के शिकार हो रहे हैं तथा आत्महत्याएं कर रहे हैं। पहले भारत में उपभोक्तावाद का राज है और दूसरे भारत में असमानता, आर्थिक विपन्नता तथा दमन का। भारत के गांवों में अब भी दलितों, स्त्रियों और दश्तकारों की गुलामी बड़े पैमाने पर मौजूद है। पहला भारत विश्व-ग्राम का हिस्सा हो रहा है और दूसरा भारत पहले भारत का चारागाह बना हुआ है। भारत के असली गांव तबाही के कगार पर हैं और नकली विश्व-ग्राम के गीत गाए जा रहे हैं।
भविष्य की नब्ज को टटोलने वाले ऐसे मूर्धन्य आलोचक की आज जब नब्ज थम गई तो दिल का एक कोना खाली सा हो गया। मेरे होने में बहुत कुछ प्रो. मैनेजर पाण्डेय का हाथ है। उन्होंने कई बार मेरी कहानियों पर टिप्पणी की थी और लोकरंग की विचार गोष्ठियों में बोलते हुए मिथकों और लोक साहित्य पर विस्तार से बात की थी।
साहित्य के सामाजिक सरोकार की चर्चा करते हुए प्रो. मैनेजर पाण्डेय ने बीस वर्ष पहले लिखा था- कविता, उपन्यास और कहानी में नई पीढ़ी की रचनाशीलता से गुजरने के बाद यह देख कर बहुत आश्चर्य होता है कि किसी भी विधा में भूख जैसी ज्वलंत और महत्वपूर्ण समस्या पर कोई महत्वपूर्ण रचना नहीं दिखाई देती। भूख मनुष्य की पहली चिंता है और मानव सभ्यता के विकास का पहला कारण भी। वह आज के भारतीय समाज का सबसे बड़ा प्रश्न भी है। अखबारों में लगातार ऐसी खबरें छप रही हैं कि देश के अनेक भागों में आदिवासी, दलित, मजदूर और किसान भूख से मर रहे हैं। सत्ता इस सच को स्वीकार नहीं करती, लेकिन नई पीढ़ी के रचनाकार भी इसकी उपेक्षा करें, यह चिंताजनक है।
पाण्डेय के आलोचना कर्म में जो इतिहास दृष्टि थी उसी के चलते वे अंतिम दिनों में दाराशिकोह की समतावादी दृष्टि पर काम कर रहे थे। शायद यह काम अधूरा रह गया हो पर जितना भी हुआ हो, उसे पाठकों के सामने लाया जाना चाहिए। उनके पास बिरहा गायक बिसराम के लगभग 40 गीत थे। उनमें से कुछ मैंने लोकरंग में प्रकाशित किया था। पाण्डेय जी कहते थे कि, ‘इसे एक संग्रह के रूप में प्रकाशित करने की इच्छा है। अगर नहीं कर पाया तो आपको दे दूंगा। आप इसे लोकरंग में छाप दीजिएगा।’
साहित्य और इतिहास दृष्टि, साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका, भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य, शब्द और कर्म, संकट के बावजूद, सीवान की कविता, मुक्ति की पुकार तथा अनभै सांचा उनकी प्रमुख कृतियां हैं जो आने वाले दिनों में हिन्दी साहित्य के प्रगतिशील धारा में मील का पत्थर होंगी। आज हिन्दी साहित्य का एक सरोकारी पक्ष हमसे छिन गया, जिसकी वर्तमान में होने की जरूरत थी। आतंक और दमन के दौर में हम मैनेजर पाण्डेय के शब्दों के बल पर तन कर खड़े हों, यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
(सुभाष चन्द्र कुशवाहा इतिहासकार और साहित्यकार हैं। आप आजकल लखनऊ में रहते हैं।)
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