जैसे-जैसे डा. रत्नाकर लाल की पुरानी-नई कलाकिृयां मेरी नज़रों से गुज़रती जाती हैं वैसे-वैसे कला को समझने में बिल्कुल ही नादान मेरी अक़्ल, अनुभूति, आवेग, अचरज और संभावनाओं की दुनिया में डूबती चली जाती है। ये दुनिया सिखा रही है मुझे।
कलाकार चाहे जिस भी विधा का हो, कलाकार विद्रोही होता है। उसे होना ही चाहिये। वो हर पल कुछ नया रचता है। वो इतिहास और वर्तमान की छन्नियों से भविष्य छानता है। ज़रूरत होने पर वक़्त के तेवरों को भांपते हुए उससे आगे निकलकर लोग समाज, देश-दुनिया के हश्र की तस्वीर पेश करता है। ये कलाकार का दायित्व है। उसका धर्म है कि वो- ‘‘ढोल, गंवार, शूद्र, पशु और नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी’’ विधान स्थापित करने वाले तथाकथित धर्म की शूद्र महत्वाकांक्षा को तार-तार कर दे। ‘‘वसुधैव कुटुंम्बकम’’ की चित्तकार करने वालों को सबक दे कि असल में इसके मायने क्या हैं।
पितृसत्ता-सामंतवाद, और पूंजीवादी-साम्राज्यवाद के भेड़ियों को खुबसूरत-बेशक़ीमती, देसी-विदेशी लिबास में सजाकर लोकतंत्र की कुर्सी पर बैठा दिया जाए अगर तो क्या उनकी फितरत बदल जाती है? ये सवाल और इसका जवाब डा. रत्नाकर की रचनाओं की ताकत बयान करता है।
ऐसे समय में जबकि नागरिकों के हक़-अधिकारों की रक्षा करने का दावा करने वाले दुनिया के महान लोकतंत्रों के संविधान सत्ता की बेड़ियों से बंधे किसी कोने में पड़े हुए हों। उनकी रक्षा-व्याख्या करने वाली अदालतें कानून की देवी की आंखों पर बंधी पट्टी नोचकर अपने मुंह और आंखों पर लपेट लेती हों तब रत्नाकर जी की निडर, बेबाक कला का तन कर खड़े होना मुबारक़ है।
वो गाय जिसका मास और खाल ‘‘श्रेष्ठ आर्य’’ खाने-पहनने, तंबू तानने के काम में लाते थे। खेती का हुनर आने के बाद उन्होंने उसे शिव की कामधेनु और कृष्ण की माता बना दिया। एक सींग पर पूरा ब्रहमांड संभालने वाली इस गाय माता की हाजिरी आजकल सत्ता की कुर्सी संभालने पर लगा दी गई है। नतीजा दूध देने वाली श्वेत माता रक्त रंजित है। अपनी और अपने पालन हार किसान की लाश ढोने का सिलसिला अब और नहीं। वक़्त आ गया है पूंजी के सत्ता सिंहासन को सींगों से झटक कर खुरों से तहस-नहस करने का। यही तो एक उपाय है प्रकृति के चक्र को उसकी खुद की गति से घूमने देने का। मानव जाति को, इस धरती को सुरक्षित रखने का। वर्तमान समय की ये चुनौतियां जो प्रतीकों से भारतीय लगती हैं पर जिनकी डोर विश्व पूंजीवाद के हाथ में है। डा. रत्नाकर की रचनाएँ सत्ता के इस मायाजाल को एक नज़र में समझना संभव बना जाती हैं।
डा. लाल रत्नाकर कहते हैं – ‘‘दुनिया जिसे आधी आबादी कहती है वही आधी आबादी मेरे चित्रों की पूरी दुनिया है।’’
पितृसत्ता से जूझती उनकी आधाी आबादी की पूरी दुनिया जितनी सादी-खूबसूरत है उतनी ही ताकतवर और तीखी भी लगी मुझे। इनकी आंखों में जहां रूढ़िवाद की चुगलखोरी है वहां उससे लड़ने के लिए सवाल भी हैं। और सबसे महत्वपूर्ण है घूंघट ओढ़े-ओढ़े उनका हर मुकाम पर लगातार परिश्रम करते जाना। उनकी रचनाओं की गऊ और देवी समान औरत अब धर्म की अफीम को भी चुनौती दे रही है। सत्ता के गलियारों में अपने वोट का हिसाब मांग रही है।
डा. रत्नाकर की कला एक ज़रूरी प्रस्ताव दुनिया के सामने पेश करती है। जहां कायनात के कल्याण के लिए किसी ख़ास नस्ल का अवतार न पूजा जाना है, न उसे कभी अवतरित होना है। प्रकृति पर्यावरण का रक्षक हरेक बिना किसी लिंग, जाति-धर्म, देश की सीमाओं के भेदभाव के एक-दूसरे के अस्तित्व, इच्छा, अस्मिता को सलाम करता, धन-संसाधनों पर एकाधिकार की हवस से खाली हरेक का मुक्तिदाता है।
संस्कृति समाज में आज जिनकी रचनाएं आपको हैरान, परेशान और उत्साहित कर रही हैं यूं तो वो ग्रामीण परिवेश के पिछड़े समाज से आते हैं पर इन्होंने संस्कृति और कला की दुनिया में अपनी प्रतिभा, मेहनत, लगन और संघर्ष के बल पर कला की दुनिया की अग्रिम पक्ति में अपनी जगह बनाई है। हम बात कर रहे हैं 12 अगस्त 1957 को जौनपुर जनपद के गाँव बिशुनपुर में जन्में चित्रकार, मूर्तिकार एवं कवि डॉ.लाल रत्नाकर जी की।
रत्नाकर जी ने पूर्वी उत्तर प्रदेश की लोक कला में बीएचयूए वाराणसी से वर्ष 1985 में (प्रो. आनंद कृष्ण के मार्गदर्शन में) पीएचडी की है। आप एम.एम.एच. कॉलेज, गाजियाबाद, यूपी में चित्रकला विभाग (ललित कला) के एसोसिएट प्रोफेसर और अध्यक्ष के बतौर कार्यरत रहे। देश की लगभग सभी प्रतिष्ठित गैलरियों में अनेकों बार उनकी एकल एवं समूह प्रदर्शनियां आयोजित की गई हैं। देश-विदेश के विभिन्न निजी एवं प्रतिष्ठित प्रतिष्ठानों में उनकी कलाकृतियां संग्रहीत हैं। दुबई में उनके काम को बहुत सराहा गया है।
गाजियाबाद में उनकी पहल और अगुआई में कलाधाम एवं स्कल्पचर पार्क का निर्माण प्रशासन द्वारा किया गया है। शहर के मुख्य स्थलों पर मूर्तियां लगाई गई हैं। प्रतिष्ठित कवियों और उपन्यासकारों ने अपने प्रकाशनों के कवर के लिए रत्नाकर जी के चित्रों और रेखाचित्रों को तरजीह दी है। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं, पुस्तको, डिजिटल माध्यमों एवं फिल्मों में उनके रेखांकनों एवं कलाकृतियों का प्रदर्शन हुआ है। डॉ. रत्नाकर ने अनेकों चित्र एवं मूर्तिकला कार्यशालाओं का आयोजन किया है। वर्तमान में सेवानिवृत्ति के उपरान्त कला सृजन, सामाजिक एवं राजनीतिक सरोकारों से सम्बद्ध हैं।
रत्नाकर जी के चिकित्सक पिता स्व. डा. रमापति यादव खेती-किसानी और अपने ग्रामीण परिवेश से भी गहरे से जुड़े रहे। उन्होंने अपने बच्चों को भी शिक्षा का महत्व और भारतीय समाज के ताने-बाने में लगी गांठों की मौजूदगी और उसके कारणों से रूबरू करवाया। इसका असर ये था कि उस वक़्त प्रतिष्ठा और धन का प्रर्याय चिकित्सा के पेशे को नज़रअंदाज करके रत्नाकर जी ने कलाकार होना चुना। और ग्रामीण परिवेश की उस सौंधी-मेहनती, अभावों में हंसती-रोती, संघर्ष करती जिन्दगी को देश दुनिया को महसूस करवाया है।
घर में ईमानदारी का झंडा बुलंद रखने वाली डॉ. रत्नाकर की दादी मां और हाड़तोड़ मेहतन की आदी उनकी मां श्रीमती रामरति यादव जी ने यक़ीनन उनके ज़हन में, उनकी कला में जगह बनाई है। दिन-रात घूंघट संभालते हुए बिना रुके-थके बिना मेहनताने जीवन खपाने का धैर्य लिए हुए। दहलीज के भीतर से ही सपनीली आंखों से दुनिया घूम आने वाली उनकी नायिकाओं में मां-दादी नमूदार हैं। डॉ. रत्नाकर के शब्दों में – ‘‘मेरी स्त्रियां सीता नहीं हैं कृष्ण की राधा नहीं हैं और न ही रानी लक्ष्मीबाई हैं। ये स्त्रियां खेतों-खलिहानों में अपने पुरूषों के साथ काम करने वाली हैं जिन्हें वह अपना राम और कृष्ण समझती हैं। लक्ष्मीबाई जैसे नहीं लेकिन अपनी आत्म रक्षा कर लेती हैं। वही मुझे प्रेरणा देती हैं। यही वह आबादी है जो सदियों से सांस्कृतिक सरोकारों को सहेज कर पीढ़ियों को सौंपती रही है। वही संस्कारों का पोषण करती रही है। मुझे बार-बार लगता है की हम उस आधी आबादी के ऋणी है।’’
चुनाव का मौसम है। बतौर एक जागरुक कलाकार रत्नाकर जी भी लोकतंत्र के प्रहरी की भूमिका बखूबी निभा रहे हैं। उनके कैनवास पर जागरुकता के ये रंग और लकीरें, उनके काव्यमयी अंदाज़ में हर आमों-ख़ास की समझ के दायरे में हैं।
(वीना पत्रकार, व्यंग्यकार, डाक्यूमेंट्री फ़िल्ममेकर हैं।)
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