‘घोड़े को जलेबी खिलाने जा रिया हूं’ फिल्म में यथार्थ का प्रभावशाली चित्रण

अनामिका हक्सर की फिल्म ‘घोड़े को जलेबी खिलाने जा रिया हूं’ बहुत गहरा प्रभाव छोड़ती है। यह फिल्म कई मायने में सफल कही जाएगी। फिल्म देखने के बाद उसके असर से आप लंबे समय तक मुक्त नहीं हो पाते। यह फिल्म आपको मथती रहती है। इसके सक्षम किरदार, फिल्म का कथ्य, उसकी जादुई फेंटेसी, उसमें अति यथार्थ का चित्रण और दृश्य संयोजन एक अलग दुनिया रचता है।

यह दुनिया हमारे बिल्कुल बगल की है, हमारे सपनों की है, हमारे सिस्टम की विफलताओं की है। अच्छी बात है कि अब यह फिल्म ओटीटी (OTT) प्लेटफॉर्म पर आ चुकी है-GUDSHO पर। हालांकि यह भी खुशी और तसल्ली की बात है कि इस फिल्म को सिनेमाहॉल तक पहुंचाने में फिल्म की निदेशक और उनकी प्रतिभाशाली टीम कामयाब रही। कुछ शहरों में चुनिंदा सिनेमाहॉल में दिखाई गई यह फिल्म अब निश्चित तौर पर ओटीटी प्लेटफॉर्म पर आने के बाद ज्यादा लोगों तक पहुंचेगी।

इस फिल्म के केंद्र में हैं-समाज की नंगी सच्चाइयां और उसकी क्रूर सच्चाइयों से लड़ता भिड़ता आम इंसान। कैसे वह जीने की राह तलाशता है। सुख-दुख ओढ़े मेहनतकश की जिंदगी को बड़ी ही खूबी से फिल्माया गया है। फिल्म में एक दृश्य है जहां ठेले खींचते मजदूर के पसीने की बूंदों के जरिये एक अलग कहानी रची गई है। इसमें इंसान से दिल-दिमाग में उपजने वाले अनगिनत भावनाओं को बेहद कलात्मक ढंग से फिल्माया गया है।

अनामिका हक्सर की वर्ग दृष्टि इतनी सशक्त है कि दृश्य कोलाज बन पैनी मार करते हैं। मालिकों के अपशब्दों को झेलता श्रमिक जो अपनी कल्पना में मालिक को विद्रूप कार्टून सा बना देता लेकिन हकीकत में उसकी हिकारत का बोझ ढोता है। कूड़ा बिनती या कूड़े के ढेर में काम की चीजें तलाश करतीं महिलाएं, बच्चियां और उनके सपनों में तैरते कार्टून अलग दुनिया में पहुंचाते हैं। उनकी स्वगत बातें धीमी बुदबुदाहट लगता सीधे आज की व्यवस्था और गरीबों की उपेक्षा बिना लाउड हुए परदे पर पसर जाती।

कचरे के ढेर पर सोई भूखी लड़की सपने में खाने की थाली देखती है। यह फिल्म, खामोशी से हमें रोजमर्रे के जीवन में देखकर अनदेखे किए गए दृश्य जैसे सड़क के किनारे या पार्क में बड़ा सा मटमैला थैला या बोरा उठाए औरतें, बच्चे-बच्चियां जो फैंकी बेकार चीजों से अपने काम की चीज ढूंढते दिख जाती हैं-सब असंगठित मजदूरी की मार को मजबूती से सामने रखते हैं।

पुरानी दिल्ली बिल्कुल अलग रूप में सामने आती है। प्रचलित छवि-जहां पर्यटक हैं, लज़ीज खाने की खुशबू है और इस परदे के पीछे मेहनत करता श्रमिक जीवन। मजदूर अनेक रूपों में नजर आते हैं और उनका परिवर्तन का सपना बना रहता है। वे जो विस्थापित होकर इस शहर में आने पर भी उसकी जड़ें उसे खींचती हैं। गहरी उमस भरी रातें, बंद अंधेरे कमरे में बंद आक्रोश, नासू्र न बन जाए, इसके लिए मजदूर के सपने हैं उनका अतीत गांव-घर सैलाब, यादों के तैरते शव अतृप्त प्रेम ज्वार से भरे सपने जैसे उन्हें यथार्थ की क्रूरता में स्वाहा होने से रोकते हैं।

इस फिल्म को अलग परवाज़ देता है, आकाश जैन का किरदार। वह दिल्ली-6 यानी पुरानी दिल्ली की सैर कराने वाले गाइड हैं। इलाके की नवाबी विरासत, खंडहर होती इमारतों की तहजीब संभाले टूरिस्ट गाइड आकाश, जिनकी नफीस उर्दू, गौण-सी दिखने वाली चीजों की खूबसूरत व्याख्या से दर्शक मुग्ध हो जाता है। वह इमारतों का सैर कराते, इतिहास बताते, साझी विरासत की बातें करतें, गालिब और सूफी कव्वाली से परिचय करवाते-पूरे दौर का माहौल बनाते हैं।

हालांकि, इस फिल्म में कव्वाली का सीन लंबा हो गया है। फिल्म का प्रमुख पात्र पतरू है-जो बहुत से रूप भरता है। जीने के लिए कभी पाकेटमारी करता और पैसे अपने साथियों में उदारता से बांट देता। कभी बहुरुपिए का स्वांग भरता वह आकाश जैन का काम एक दिन चालाकी से हथिया कर टूरिस्ट गाइड बनकर, सबाल्टर्न सैर कराता। पुरानी दिल्ली की मुफलिसी की सैर। फिल्म में पेचीदा गलियां और देसी भाषा के डॉयलाग बहुत दिलचस्प है।

पतरू अपने साथ के टूरिस्ट ग्रुप को जब कचौड़ियां खिलाता, तो दुकानदार को लगता कि लक्ष्मी मैया पैसे की बारिश कर रही हैं। दूसरी जगह आलू मेथी की भाजी खिलाता और उसकी जबरदस्त व्याख्या करता है। इस तरह दिल्ली की संकरी गलियों में गरीब-मुफलिस, मजदूरों की जिंदगी पर कैमरा दौड़ता। वहीं साथ में दौर की नंगी सच्चाइयां सामने आती है। कूड़े के ढेर लाशें लावारिश कूड़े के ढेर जैसे उठाई जाती हुई। सैर पर निकली टूरिस्ट इस क्रूर हकीकत से विचलित होकर कहती हैं कि यहां आने के बजाय मैं साउथ पोल जा कर पोलर बीयर पर काम करती तो अच्छा था। यह बहुत तगड़ा कटाक्ष है।

दो वर्गों का दृष्टिकोण स्पष्ट है। कुछ लोग हैं जो गरीबी, गंदगी, बदहाली नहीं देख पाते और कुछ लोग तटस्थ रहते हैं। यह हकीकत भरी ट्रिप फिल्म का मजबूत पक्ष सामने लाती है। इससे मौजूदा दौर का नंगापन पोस्टर बनकर सामने आता ही। रंगबाज पतरु जीवंत पात्र है। पुलिस से बराबर प्रताड़ित होता और दुख में रूखी दीवार से माथा सटा अपने से ही बातें करता है। संकरी और वीरान गली में सोचता है अगर वह अमीर हो गया तो क्या करेगा पैसे का।

यहां उसका सपना-गरीब की आंख का सपना है-जहां सबके लिए जगह है। वह कहता है कि पैसा आया तो वह किसी को भूखा नहीं रहने देगा, सबके लिए घर होगा, बच्चे कूड़ा बिनने नहीं जाएंगे, पढ़ने जाएंगे। यह सपना टकराता है हमारे दौर के कॉरपोरेट लूट के सपने से। दर्शक के दिमाग में अडानी-अंबानी की लूट का तस्वीर और फटेहाल पतरू के सपने का कैनवास साथ-साथ उभरता है। यही इस फिल्म की ताकत है।

फिल्म के कुछ दृश्य फिल्म देखने के बाद भी संग-संग चलते रहते हैं। जैसे-ऊंचाई से लाल झंडा फहराता मजदूर, लक्ष्मी धन की देवी के चेहरे से टकराता है और उनके चेहरे पर नागवारी के भाव है। यूं कल्पना के बहुत से आयाम रंग भरते हैं। समय के आर-पार देखती है फिल्म की आंख। पूरी फिल्म में किरदार जैसे दौड़ते भागते आते हैं छपाक से और अपना किरदार निभा कर हट जाते हैं। इसमें बीच-बीच में रंगमंचीय नाटक का अहसास भी होता है। जीवन की तरह सरल गति से बहती है फिल्म। सपने-हकीकत, हकीकत-सपनों के बीच कार्टूनों-इलस्ट्रेशन्स के जरिए एक जबर्दस्त कोलाज रचती है। किरदारों का अभिनय बिलकुल स्वाभाविक है। पतरू की भूमिका में रविंद्र साहू, छद्मी की भूमिका में रघुवीर यादव, साझी तहजीब की खूबसूरत जुबान बोलने वाले गाइड आकाश का किरदार निभाया लोकेश जैन ने और मजदूर एक्टिविस्ट लाल बिहारी की एक्टिंग तो लाजवाब रही।

यह जरूर है की इस फिल्म के नाम ने मुझे चौंकाया उत्सुकता भी जगाई थी। यह जुबान पुरानी दिल्ली के तांगेवालों व फेरी वालों की है। ये उनका कोड वर्ड रहा है। जब वे थक जाते, या घोड़ा भी थक कर चूर हो जाता तो ऐसे में रास्ते में अगर कोई सवारी बुलाती तो वे इसका इस्तेमाल करते, तांगेवाला कहता, घोड़े को जलेबी खिलाने जा रहा हूं…लहजा तहजीब और यथार्थ को परेशान करने वाली तस्वीरों का कोलॉज़ है,अनामिका हक्सर की यह फिल्म।

फिल्म के अंत में रघुवीर यादव जो छद्मी का किरदार निभा रहे हैं, उनके मुंह से यह गाना बढ़ा मानीखेज़ लगता हैः

तुझको ख़ुदा कहूं या ख़ुदा को ख़ुदा कहूं
दोनों की शक्ल एक हैं, किसको ख़ुदा कहूं
तो संभलकर बैठना, ऐ हुस्न-ए-लैला देखने वालों
तमाशा ख़ुद न बन जाना, तमाशा देखने वालों
तमाशा ख़ुद न बन जाना, तमाशा देखने वालों….।

(शोभा सिंह कवयित्री हैं और दिल्ली में रहती हैं।)

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