हिंदी साहित्य: अप्रासंगिक होती आलोचना

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हिंदी साहित्य में आज यह स्थिति है कि स्वतः कोई पाठक आपकी रचनाएं नहीं पढ़ता। उन्हें पढ़वाने के लिए आपको स्वयं प्रयास करना पड़ता है। लिखने से लेकर छपवाने और पाठकों तक पहुंचाने के लिए लेखक को ही खटना होता है जब तक कि आप एक बड़े और प्रतिष्ठित लेखक न बन चुके हों।

प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए पर्याप्त अध्ययन और बेहतर कहन के अतिरिक्त और भी कारक होते हैं। मेधा के साथ-साथ अच्छी व्यवहारिक समझ, संबंध और चातुर्य भी आवश्यक होता है। खैर, इसका तो कोई विकल्प नहीं है। दूसरी बात यह कि सार्वजनिक स्तर पर ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जो आपकी रचनाओं को पाठकों तक बेहतर ढ़ंग से पहुंचा सके।

साहित्यिक संस्थाएं, प्रकाशक और विश्वविद्यालय प्रायः अपने आसपास के साहित्यकारों और नामचीनों को ही पहचानते हैं। साहित्य के प्रचार प्रसार के अतिरिक्त साहित्य के बारे में रुचि विकसित करना भी आवश्यक है। साहित्य अनुरागी पाठकों के लिए विद्वान आलोचक यह जिम्मेदारी उठाते हैं।

इस संबंध में अनंत विजय कहते हैं कि “समकालीन हिंदी साहित्य में होने वाले विमर्शों में अधिकतर लेखक आलोचना को लेकर उदासीन दिखाई पड़ते हैं। कुछ युवा और कई अधेड़ होते लेखक तो आलोचना के अंत की घोषणा करते नजर आते हैं।..

.. फेसबुकजीवी लेखक तो आलोचना की आवश्यकता को ही नकार रहे हैं। उनके मुताबिक साहित्य को न तो आलोचक की आवश्यकता है और न ही आलोचना की। हिंदी आलोचना पर कई तरह के आरोप लगते हैं। कुछ कहते हैं कि आलोचना रचना केंद्रित नहीं रही और वो लेखक केंद्रित हो गई है।”

एक समय लेखक संगठनों से उम्मीद होती थी पर उनकी भूमिका अब दयनीय हो चुकी है। विद्वान आलोचकों को भी कुछ ही लोग दिखते हैं| अब एक मित्र आलोचक बस तीन लोगों की बात करते पाए जाते हैं। उनके पसंदीदा लेखक हैं- राजेश जोशी, अरुण कमल और कर्मेंदु शिशिर। ऐसे ही सबके अपने-अपने दो, तीन, चार पसंदीदा लेखक हैं। कोई-कोई तो बस एक पर ही पूरी तरह फिदा है।

पत्रिकाएं भी प्रायोजित उपक्रम करती दिखती हैं। इनमें अदूरदर्शिता, दुराग्रह और सतहीपन स्पष्ट झलकता है। इनका अपना एजेंडा होता है। जिसे चाहें लेखक मानें। इनकी मर्जी। ऐसी स्थिति में आपको ही सब कुछ संभालना होगा। सोशल मीडिया इसमें थोड़ा सहायक हो सकता है लेकिन वहां भेड़चाल है। विवेकसम्मत ढंग से वहां कुछ बेहतर होना कठिन है।

आलोचकों के अलग अलग खेमे हैं और वो अपने खेमे के लेखकों की औसत रचनाओं को भी कालजयी साबित करने में जुटे रहते हैं। इसकी वजह से आलोचना की साख छीजती है। इसमें दो राय नहीं कि आलोचक की व्यक्तिगत रुचि और संबंधों के निर्वाह की वजह से आलोचना विधा को नुकसान पहुंचा है।

इसके अलावा एक महत्वपूर्ण तथ्य को भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि इस वक्त जो आलोचक सक्रिय हैं उनकी तैयारी भी उतनी नहीं है कि वो किसी रचना को व्याख्यायित करके पाठकों के सामने उसके अर्थ खोल सकें।

आलोचना पर लगने वाले तमाम आरोप सही हो सकते हैं लेकिन जो लोग आलोचना की आवश्यकता पर प्रश्न उठाते हैं उनको समझना चाहिए कि आलोचना के बिना रचना और रचनाकार की प्रतिष्ठा स्थापित नहीं हो सकती है।

यह वह दौर है, जब व्यक्तिवादी प्रवृत्तियों ने जीवन की सामुदायकिता को दरकिनार कर दिया है। मध्यवर्ग में पढ़ने की प्रवृत्ति बहुत कम दिखाई देती है, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के विकास के साथ अधिसंख्य लोग देखने की इच्छा रखते हैं। क्योंकि यह सुविधाजनक भी है और सुलभ भी है।

महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ने वाले जो हिंदी साहित्य के विद्यार्थी होते हैं वे, वह जो उनके पाठ्यक्रम में होता है, पढ़ते हैं। उनमें से कुछ निकलते हैं, जो साहित्य पढ़ते हैं, पत्र-पत्रिकाएं पढ़ते हैं। वो विद्यार्थी जिनको किसी कम्पटीशन वगैरह में बैठना होता है, ज्यादातर अंग्रेजी माध्यम से  पढ़ते हैं। जिनके पाठ्यक्रम में किताबें हैं यदि उन्हें कुछ उनसे इतर अच्छी किताबें मिलती हैं तो अवश्य पढ़ लेते हैं।

संख्या की दृष्टि से तो पहले के समय से पाठकों में बढ़ोत्तरी अवश्य हुई है पर असल में यह हुई है गैर-साहित्यिक पाठकों की संख्या में। साहित्य के लिए ये संख्या वृद्धि बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। उसके लिए तो असल वृद्धि होती है एक पढ़ने वालों का सुगठित समुदाय। वो समुदाय शहरों में अड्डेबाजी कह लें, कहीं बैठते हैं तो बात करते हैं कि भाई, आज क्या पढ़ा। कुछ गोष्ठियां चलाते हैं। साहित्य के पठन-पाठन लिए महत्व छोटे-छोटे हर कस्बे, और शहर का है।

दरअसल इस बात का संबंध उस पाठक समुदाय से है, जो साहित्य को जीवित रखता है और जो साहित्यकारों को खुराक भी पहुंचाता है, वो समाज संख्या की दृष्टि से बहुत बड़ा नहीं होता। हम देखते हैं कि साहित्य और साहित्यकारों की दुनिया भी दुराग्रहों, संकीर्णताओं और गैर-लेखकीय फजीहतों में कम फंसी नहीं लगती है।

एक समय में यहां हिंदी क्षेत्रों में रीतिकाल की कविताओं को कंठस्थ याद रखा जाता था, सुनाते थे लोग, उनका अर्थ बताते थे, उन पर बात करते थे। देव, घनानंद, बिहारी, पद्माकर इन तमाम कवियों को पढ़ते थे, याद रखते थे उन लोगों को। छोटे-छोटे समुदाय थे।

लोग भक्तिकाल की कविता को यानी तुलसीदास को गाते थे, सूर को गाते थे, कबीर को गाते थे, रहीम को गाते थे। इन्होंने इन कवियों को जीवित रखा, किताबें तब तक छपी नहीं थीं लेकिन कविताएं तब भी जीवित थीं।

19वीं शताब्दी के अंत और 20वीं शताब्दी के शुरू में शहरों में लोग इस तरह के हुआ करते थे। बिहार में होते थे, यूपी में होते थे। दूर-दूर तक हिंदी भाषी समाज में होते थे जो अनौपचारिक रूप से बैठते थे। आज की तरह नहीं कि अखबार में खबर छप जाए, बिना इसकी परवाह किए नियमित मिलते थे।

समाचार पत्रों में दैनिक सूचानाओं के साथ गंभीर लेख, साहित्य से जुड़े लेख, अग्रलेख और संपादकीय छपते थे। दुर्भाग्य यह कि आज समाचार पत्रों से साहित्य पूरी तरह गायब हो चुका है। साहित्य, कला, संस्कृति, नाटक, विज्ञानं और गणित की कोई चर्चा या महत्वपूर्ण खबर हमें इनमें नहीं पाते।  इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में तो इनका प्रवेश ही वर्जित है क्योंकि इनसे सनसनी नहीं पैदा होती। अतः उनकी टीआरपी बढ़ने की भी कोई गुंजाईश नहीं होती। 

एक जमाना था, जब हिंदी की साहित्यिक पुस्तकों के प्रकाशन की दुनिया में इलाहाबाद का बोलबाला था। मुंशी प्रेमचन्द तथा रवीन्द्रनाथ टैगोर से लेकर मैथिलीशरण गुप्त, रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी, उपेन्द्र नाथ अश्क, महादेवी वर्मा, मार्कण्डेय और अमरकांत जैसे देश के अनेकानेक नामीगिरामी साहित्यकारों की रचनाएं यहीं से प्रकाशित हुआ करती थीं।

लेकिन समय की बदलती रफ्तार ने बहुत कुछ बदल डाला तथा इलाहाबाद में प्रकाशन व्यवसाय देखते ही देखते बर्बादी के कगार पर पहुंच गया। साहित्यिक कृतियों के प्रकाशन के क्षेत्र में कभी केन्द्रीय भूमिका निभाने वाले इलाहाबाद के स्थान पर आज दिल्ली काबिज हो गई है। बनारस का भी यही हश्र हुआ।

साहित्य प्रेमियों के जेहन में आज भी हलाहाबाद के इंडियन प्रेस, माया प्रेस, सरस्वती प्रेस, हंस प्रकाशन, साधना प्रकाशन, किताबिस्तान, नीलम प्रकाशन, धारा प्रकाशन, लॉ जर्नल प्रेस, भारती भंडार, छात्र हितकारी प्रकाशन, संगम प्रकाशन, साधना सदन तथा चित्रलेखा प्रकाशन सरीखी प्रकाशन संस्थाओं का नाम है।

प्रकाशन की दुनिया में लाला रामनारायण लाल बुकसेलर ने भी काफी शोहरत और दौलत कमाई। मगर इनमें से अधिकांश संस्थान समय के साथ नहीं चल पाए। जो प्रकाशन संस्थान बचे भी हैं, वे किसी प्रकार अपना वजूद कायम किए हुए हैं तथा वे कमोवेश सरकारी खरीद के ही भरोसे अपना अस्तित्व बचाए हुए हैं। अब प्रकाशन व्यवसाय दलाली का धंधा बन चुका है। यही नहीं आज वे लेखकों से किताब छापने के लिए मनमाने पैसे वसूलते हैं और डेढ़-दो सौ पुस्तकें छाप देते हैं।

अब यह समय आ चुका है कि लेखक, पैसे देकर किताबें छपवा रहे हैं। अपने खर्चे से उनका विमोचन करा रहे हैं। दिल्ली के पुस्तक मेले के समय हजारों किताबों का विमोचन होता है। आज इस समकालीन साहित्य के पाठक समुदाय की जांच केवल हिंदी में प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं की पाठक संख्या के आधार पर ही की जा सकती हैं। इसके अलावा जानने को कोई साधन नहीं है।

कुछ संस्थाएं हैं, जिनमें कभी-कभी बैठक होती है, जिनसे हम अंदाजा लगा सकते हैं कि शायद पूरे हिंदी समाज की ये संख्या कुल मिलाकर कुछ लाख में पहुंच सकती है, इससे ज्यादा नहीं। तमाम कोशिशों के बावजूद साहित्य उन लोगों तक नहीं पहुंच पा रहा है, जिनके लिए वह रचा और लिखा जा रहा है।

अब स्थिति कुल मिलाकर यह हो गई है कि हिंदी में साहित्यिक पुस्तकों का कोई भविष्य ही नहीं है। इस स्थिति में साहित्य के नाम पर लेखन, सृजन आत्मभिव्यक्ति भर ही है? हिंदी में उत्कृष्ट साहित्यिक पुस्तकों का अभाव नहीं है मगर वे विभिन्न कारणों से पाठकों तक नहीं पहुंच पाती।

हिंदी भाषा-भाषी भारतवासी सालगिरह, विवाह, बरही, तेरही आदि मौकों पर आत्म प्रदर्शन के उद्देश्य से इलैक्ट्रिक डेकोरेशन, आतिशबाजी, डीजे, सूट-बूट, गिफ्ट, प्रीतिभोज वगैरह में पचासों हजार रुपये देखते ही देखते बर्बाद कर डालते हैं मगर वे हजार-पांच सौ रुपये में साहित्यिक पुस्तकें नहीं खरीद सकते।

विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में प्रेमचन्द, इलाचन्द्र जोशी, अमरकांत, निराला, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर, नागार्जुन, शमशेर बहादुर सिंह, अज्ञेय आदि रचनाकारों की जो साहित्यिक कृतियां निर्धारित हैं, वे भी छात्रों तथा शिक्षकों द्वारा खरीद कर नहीं पढ़ी-पढ़ाई जाती तथा विद्यार्थीगण गाइड खरीद कर वार्षिक परीक्षा की वैतरणी पार करने का जुगाड़ लगाने लगते हैं।

यदि विश्वविद्यालयी पाठ्यक्रम में साहित्यकारों की पुस्तकें निर्धारित न हों तो वे जो अल्प संख्या में बिकती हैं अन्यथा वे भी न बिकें। समाज के शिक्षित वर्ग में खास तौर से हिंदी पट्टी में संप्रति साहित्य के पठन-पाठन में दिलचस्पी घटती जा रही है। यद्दपि किताबें खूब छप रही हैं।

निकट अतीत में (गत शती के पांचवें, छठे, सातवें दशक तक) वह भी एक समय था जब लोग देव, घनानंद, बिहारी, पद्माकर आदि कवियों को सुनते थे, याद रखते थे। लोग तुलसीदास, सूरदास, रहीम, कबीर, रसखान आदि के पद्य को गाते थे। उन्होंने इन कवियों को जीवित रखा, किताबें तब छपती नहीं थीं, कविताएं तब भी जीवित थीं।

अतः गत शती तक समकालीन साहित्य के पाठक समुदाय का आकलन हिंदी में प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं की पाठक संख्या के आधार पर ही किया जा सकता है। शायद पूरे हिंदी समाज की यह संख्या कुछ लाख में पहुंचती थी, अब वे पत्रिकाएं बंद हो चुकी हैं। अखबारों के साहित्यिक परिशिष्ट समाप्त हो चुके हैं।

हिंदी प्रेमियों की तमाम कोशिशों के बावजूद साहित्य उन लोगों तक नहीं पहुंच पा रहा है, जिनके लिए वह रचा और लिखा जा रहा है। स्थिति यह हो गई है कि हिंदी में साहित्यिक पुस्तकों का कोई भविष्य ही नहीं है। यूं हिंदी में उत्कृष्ट साहित्यिक पुस्तकों का अभाव नहीं है, मगर वे विभिन्न कारणों से पाठकों तक नहीं पहुंच पातीं।

आज के युग में इंटरनेट सूचना प्रसार का सबसे बड़ा, लोकप्रिय और सशक्त माध्यम है। वर्तमान युग में इंटरनेट पर किसी भी सूचना को आसानी से प्राप्त करने के अवसर सुलभ हैं। नेट पर पुस्तकें, पत्रिकाएं और समाचार पत्र भी आसानी से पढ़े जा सकते हैं।

माना जाता है कि नेट की वजह से आज साहित्यिक पुस्तकों के पाठकों की संख्या कम हो गयी है लेकिन यह देखा गया है कि प्रायः प्रिंट माध्यम के पाठक और इंटरनेट के पाठक अलग-अलग होते हैं। जो लोग पुस्तक खरीद कर पढ़ने में रुचि रखते हैं, उन्हें इंटरनेट पर उपलब्ध मूल्यरहित सामग्री भी अच्छी नहीं लगती और वे पुस्तक खरीदकर ही पढ़ते हैं।

साथ ही लोग पुस्तकें इस लिये भी खरीदते हैं क्योंकि पुस्तकों का घर और पुस्तकालय में संकलन किया जा सकता है और जब चाहे उसे पढ़ा जा सकता है। पुस्तकों के प्रति लोगों की रुचि घटने का एक बड़ा कारण पुस्तकों का मूल्य है। इस महंगाई के दौर में किताब खरीदना पाठकों की जेब पर भारी पड़ रहा है। स्तरीय साहित्य अगर कम कीमत पर उपलब्ध हो तो पाठक इसे छोड़ना नहीं चाहते। वे श्रेष्ठ साहित्य को पढ़ने का लोभ संवरण नहीं कर पाते।

(शैलेन्द्र चौहान स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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