मशहूर तरक्कीपसंद अदीब और नगमाकार जावेद अख्तर को इस बात पर गहरा अफसोस है कि उर्दू को सिर्फ मुसलमानों की जुबान मान लिया गया है। पाकिस्तान दौरे के बाद चंडीगढ़ आए जावेद अख्तर ने कहा कि अगर उर्दू महज मुसलमानों की जुबान होती तो बांग्लादेश के 10 करोड़ मुसलमान उर्दू बोलते, बांग्ला नहीं। तमिलनाडु, केरल और अन्य कई सूबों में रह रहे मुसलमानों की जुबान भी उर्दू नहीं है।
जावेद अख्तर ने कहा कि पंजाबी के कालजयी लेखक सहादत हसन मंटो, राजेंद्र सिंह बेदी, कृष्ण चंद्र, बलवंत सिंह सरीखे बड़े कलमकार भी उर्दू में लिखते थे। सत्तर और अस्सी के दशक तक पंजाब के लोग उर्दू अखबार और मूल उर्दू में लिखा साहित्य पढ़ते थे। इस सिलसिले का कम होना बेहद अफसोसनाक है। वह बोले कि पंजाबियों ने बहुत गलत किया कि उर्दू छोड़ दी। यह साझा जुबान है।
चंडीगढ़ में एक लिट फेस्ट में खासतौर पर शिरकत के लिए आए जावेद अख्तर ने कहा कि पाकिस्तान में 26/11 और दहशतगर्दी पर उन्होंने जब पाकिस्तान में बोला तो वहां 3000 से ज्यादा लोग मौजूद थे और सब ने खड़े होकर तथा तालियां बजाकर उनकी हिमायत की। इस इस्तेकबाल को वह हमेशा याद रखेंगे।
उन्होंने कहा कि पाकिस्तानी हुक्मरानों और फौज की नीतियां समूचे पाकिस्तान की सोच हरगिज़ नहीं है। पाकिस्तान के हालिया दौरे में उन्होंने बखूबी यह पाया है।
चंडीगढ़ में जावेद अख्तर की किताब ‘मेरा पैगाम मोहब्बत है’ पर वरिष्ठ लेखिका-पत्रकार निरुपमा दत्त के साथ उनकी विशेष चर्चा हुई। उन पर आई किताब ‘जादूनामा’ पर भी। इस दौरान अख्तर ने अपने फिल्मी सफर से लेकर पंजाब के साथ अपने गहरे रिश्ते और पंजाबी व उर्दू भाषा पर खुलकर बात की।
जावेद अख्तर ने कहा कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान का सांस्कृतिक जुड़ाव बेहद गहरा है। उर्दू में लिखने वाले ग़ालिब दिल्ली के थे और मीर लखनऊ के। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ लाहौर में रहते थे। इन सब को खूब पढ़ा जाता है। पाकिस्तान के सियासतदान क्या करते हैं, सबको बखूबी मालूम है।
जावेद अख्तर ने कहा कि पाकिस्तानी अवाम का बड़ा तबका हिंदुस्तान से बेहतर रिश्ते चाहता है। वहां के ईथोस यानी मानसिक मौसम में यह बात है। वहां का साहित्य और शायरी हिंदुस्तान में खूब पढ़ी जाती है और पाकिस्तान में भारतीय फिल्में बेहद मकबूल हैं। वहां के लोग भी हिंदुस्तानी साहित्यकारों के लेखन को उर्दू और अंग्रेजी में शिद्दत से पढ़ते हैं।
जावेद अख्तर ने इस बात पर जोर दिया कि किसी भी भाषा का व्याकरण महफूज रहेगा तो भाषा भी महफूज रहेगी। जुबान और भाषा को किसी भी मजहब से नहीं जोड़ा जाना चाहिए।
(पंजाब से वरिष्ठ पत्रकार अमरीक की रिपोर्ट)