‘जंगलनामा-बस्तरां दे जंगल बिच’: एक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता का सफरनामा

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जंगलनामा-बस्तरां दे जंगल बिच, यह इस किताब का पंजाबी शीर्षक है जो सन 2004 में छपी थी। इसके लेखक सतनाम उर्फ गुरमीत सिंह हैं जो उनका असली नाम था। वह अति-वामपंथी दल के एक्टिविस्ट थे, पंजाबी और अंग्रेजी के लेखक थे और संभवतः उनकी पांच पुस्तकें प्रकाशित हुईं। मुझे उनके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। गूगल पर कुछ जानकारी तलाशी वह अपर्याप्त थी। लेकिन जो खबर छपी थी वह दुखद थी, आहत करने वाली थी। सतनाम ने 28 जुलाई 2016 को पंखे से लटक कर पटियाला में अपने आवास पर आत्महत्या कर ली थी। पता चला वह दो-तीन वर्षों से गहन अवसाद में थे। राजनीतिक परिदृश्य के प्रति निराशा, स्वप्नभंग और नाउम्मीद हो जाना कारण रहा होगा और कुछ पारिवारिक और निजी परिस्थितियां भी सहायक रहीं होंगी ऐसा खबरों में छपी रपट से पता चलता है।

खैर, जंगलनामा का पहला हिंदी अनुवाद सन 2006 में हुआ था। यह पुस्तक जो मेरे सामने है यह 2015 में संभावना प्रकाशन, हापुड़ से छपी है। यह किताब चार-पांच दिन पहले मुझे वरिष्ठ कवि ऋतुराज जी से मिली। बहुत दिनों से (कोई एक-डेढ़ वर्ष पहले रास्ते में मिल गये थे तब बात हुई थी) भेंट नहीं हुई थी, हालांकि हमारे घर के पीछे की गली में ही रहते हैं पर भेंट नहीं हो पाती, सो अचानक देखने-मिलने की तीव्र इच्छा हुई तो उनके घर चला गया। काफी बातें हुईं। उनकी सेंटर टेबल पर तीन-चार किताबें पड़ी थीं। उलट-पुलट कर देखा, कुछ खास नहीं लगी। जब मैं उठने लगा तो उन्हाेंने कहा कि कोई किताब अच्‍छी लगी हो तो ले लो। इस निर्देश के साथ कि लौटा जरूर देना। अतः जल्दी पढ़ना था। असल में अब किताबें विशेषकर साहित्यिक लेने में मेरी कोई रुचि नहीं है। मैं बहुत कम पढ़ता हूँ। उत्साह नहीं रहा। फुटकर वैचारिक-राजनीतिक लेख अवश्य पढ़ता हूँ और उन्हीं पर टिप्पणी करता हूँ। वही कुछ छोटे मोटे अखबारों में भेज देता हूँ।

ऋतुराज जी की बात सुनकर मुझे बस्तर के जंगलों का यह जंगलनामा देखने में रुचि जगी। जंगल और आदिवासी मेरे हृदय के बहुत करीब हैं। हालांकि पुस्तक के पहले प्रकाशन का वर्ष जब 2004 दिखा तो उत्सुकता कम हो गई। यह यात्रा तो संभवतः और दो वर्ष पहले यानि 2002 में की गई थी। तो यह अनुभव दो दशक पुराना था। तब की और आज की स्थितियों में बहुत अंतर आया है। बहुत पानी बहा है। लेकिन मुद्दे तो अब भी वही हैं अतः ले ली किताब।

यह पुस्तक दरअसल एक सफरनामा (यात्रा वृतांत) है जिसमें कुछ पुट रिपोर्ताज का भी है। बैलाडीला के रास्ते गुप्त रूप से पैदल बस्तर के घने जंगलों में घुसना, साथी और मार्गदर्शक गुरिल्ला सेना के जवान। उनका अनुशासन, सतर्कता और साथियाना भाव यहाँ वर्णित है, चित्रित है। तीन दिन, तीन रात बीहड़ जंगलों की कष्टप्रद यात्रा, कंकडीले, खुरदुरे रास्ते, नीरवता, पानी और भोजन का अभाव इन सबका रोचक, प्रभावी और यथार्थ चित्रण उत्सुकता बढ़ाता है। फिर अंततः एक कैंप में पहुंचना, उनकी रूटीन कार्यशैली देखना, नियमित गतिविधियों से परिचित होना, सीमित भोजन और अभावग्रस्त तथा कष्टदायक स्थितियां जो आदिवासी जीवन का दुखद अध्याय हैं उसका साक्षात अनुभव चित्र यहाँ देखा जा सकता है। इन परिस्थितियों के बीच युवा गुरिल्ले अपने उद्देश्य के प्रति कितने समर्पित और प्रतिबद्ध दिखते हैं इसका यथार्थपरक वर्णन है।

राज्यसत्ता का आदिवासियों के दमन और उत्पीड़न के खिलाफ युवाओं का (छत्तीसगढ़, तेलंगाना, झारखंड, महाराष्ट्र और आंध्र) यह खतरों से भरा उद्यम और उनका दुस्साहस रोमांचित करता है। जल, जंगल और जमीन पर आदिवासियों के हक, उनके आत्मसम्मान के प्रति सजग और संवेनशील ये युवा अपनी जान हथेली पर लेकर निकलते हैं और अपना शक्तिशाली प्रतिरोध प्रकट करते हैं। उनके जीवन को हमेशा खतरा होता है वे इससे भलीभांति वाकिफ हैं पर एक जुनून है, दृढ़ इच्‍छाशक्‍ति है। उन्हें पूरी उम्मीद है कि वे इस दमनकारी सत्तातंत्र से लड़कर जीतेंगे। यही भाव उनमें उत्साह का संचार करता है और वे अपने मोर्चे पर डटे रहते हैं।

कैंप से निकलकर सतनाम जी संघर्ष केंद्र की परिधि पर घूमते हैं और आदिवासियों की अभावग्रस्त जिंदगी का वर्णन करते हैं। स्वास्थ्य की दयनीयता और खाद्यान्न का अभाव, यहां हर तरह की बुनियादी सुविधाओं का अभाव है पर सत्ता की मिलीभगत से संसाधनों की आपराधिक लूट निरंतर, निर्बाध जारी है। दशकों से यह सिलसिला चल रहा है। इसी के प्रति असंतोष और आक्रोश है। इससे यह आभाषित होता है कि यह एक समुदाय विशेष और अंचल विशेष की लड़ाई है।

खनिज पदार्थ, वनोत्पाद तथा जंगलों और नदियों की जमीन कब्जाना एवं बलपूर्वक आदिवासियों को विस्थापित करना, उनपर हर तरह से जुल्म करना, जबर्दस्ती करना, पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाना सत्ता का प्रमुख एजेंडा है। इसी के खिलाफ इन गुरिल्लों की यह जंग है। इसी बात को सहज भाव से लेखक ने रेखांकित किया है। लेखक ने पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि ‘यह जंगलों के बारे में में कोई खोजपरक पुस्तक नहीं है। यह बस्तर के जंगलों में क्रियाशील कम्युनिस्ट गुरिल्लों की रोजाना जिंदगी की यथार्थ तस्वीर और वहाँ के कबायली लोगों के जीवन हालातों का विवरण है।’

इसीलिए न इसमें उनके एक्शन और मुठभेड़ का जिक्र है न ऐसे वाकयातों की कोई गहन जानकारी और उनका विश्लेषण ही है। कोई विचारधारात्मक विचार-विमर्श भी नहीं है। यह भी कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संघर्षों और प्रतिरोध से इसका क्या साम्य है। सिर्फ देखे हुए अनुभव का यथार्थ चित्रण मात्र है। प्रश्न यह है कि अगर आप किसी विचार, संगठन और बदलाव के समर्थक हैं तो उसकी संभावनाओं, सीमाओं और आवश्यकताओं का वस्तुगत विश्लेषण तो करना होगा ताकि पाठकों के मन पर और विचारों पर अपेक्षित प्रभाव अंकित हो सके। यह यात्रा सोद्देश्य थी महज पर्यटन तो नहीं था इसलिए यह तो अपेक्षित था।

(शैलेन्द्र चौहान लेखक-साहित्यकार हैं और जयपुर में रहते हैं)

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