बन्ने भाई उन लोगों में से हैं, जिनका आदमी एहतिराम ही एहतिराम कर सकता है। एक मक़सद के लिए ज़िंदगी सुपुर्द कर देना हर शख़्स के वश में नहीं होता। लेकिन सज्जाद ज़हीर ने अपनी सारी ज़िंदगी एक ठोस नज़रिये के साथ वाबस्ता रहकर, उसके लिए अमली जद्दोजहद करके, हर तरह की मुसीबतों का मुक़ाबला करके, अपनी और अपने से जुड़े लोगों की ज़िंदगी की हर तरह क़ुर्बानी देकर, ये साबित कर दिया कि वो वाक़ई वो एक सच्चे इंक़लाबी थे।
बन्ने भाई का इब्तिदाई दौर लखनऊ में वैसे ही गुज़रा, जैसे कि जस्टिस सर वज़ीर हसन के सब ही बच्चों का। हर नैमत हासिल थी। दौलत की रेल-पेल, ज़िंदगी की हर सहूलियत नसीब थी। रहन-सहन बहुत ही ऊँचे दर्जे का था। हर तरह नौकर खि़दमत बजा लाने के लिए हाज़िर थे। शानदार कोठी थी और माँ-बाप दोनों ही मुहब्बत करने वाले थे।
बन्ने भाई ने चैन व आराम और ख़ुशहाली की ये ज़िंदगी गुज़ारी और 1927 में लखनऊ यूनीवर्सिटी से बी.ए. किया और अप्रैल, 1930 में वो लंदन गए। ऑक्सफ़ोर्ड में एंट्रेस के लिए एक और यूरोपियन ज़बान का सीखना ज़रूरी था। बन्ने भाई ने फ्रेंच पढ़ी और फिर यूनीवर्सिटी में दाखि़ला मिला। छुट्टियाँ आयीं, तो अपने भाई हुसैन ज़हीर से मिलने हायडलबर्ग गए। वहाँ खांसी और बुख़ार ने सताया। हुसैन ज़हीर उन्हें एक डॉक्टर के यहाँ ले गए।
डॉक्टर ने बन्ने भाई से सीधे तो कुछ नहीं कहा, लेकिन हुसैन को एक तरफ़ हटाकर उन्हें बताया कि तुम्हारे भाई पर टी. बी. का हमला हुआ है, इनका फ़ौरी इलाज ज़रूरी है। फिर बन्ने भाई स्वीट्जरलैंड गए। वहाँ तीन महीने रहे। इलाज भी होता रहा और वो अपनी फ्रेंच भी ठीक करते रहे। फिर वहाँ से बेहतर इलाज के लिए इटली के सेनिटोरियम में दाखि़ल हुए और इस तरह एक साल यूँ गुज़र गया। फिर वो ऑक्सफ़ोर्ड लौटे। ‘यूरोप की तारीख़’ और ‘इकॉनोमिक्स’ उनके मज़्मून (सब्जेक्ट) थे। वहाँ तीन साल गुज़ारकर ऑनर्स के साथ डिग्री ली। फिर लंदन मुंतक़िल (स्थानांतरित) हुए। लंदन के लिंकन…में दाखि़ला लिया। क़ानून में दिलचस्पी नहीं थी, लेकिन वालिद के इसरार पर पढ़ना पड़ा।
एक सुबह जब वो बिस्तर में ही थे, कमरे की घंटी बजी। आने वाले मेहमान साहिबज़ादा इम्तियाज़ अली ख़ाँ थे। उन्होंने ‘टाइम्स’ अख़बार आगे कर दिया। इसमें बार के नतीजे थे। सज्जाद ज़हीर पास हो चुके थे। ये 1935 की बात है। अब उन्हें हिंदुस्तान लौटना था। लौटते हुए चार माह पेरिस में रहे और वहाँ ‘लंदन की एक रात’ नॉवलैट लिखा।
‘‘बन्ने भाई ! हिंदुस्तान लौटकर आपने लीगल प्रैक्टिस भी की ?’’
‘‘हाँ असद ! दो साल मुफ़्त में ज़ाए हुए। हमारे वालिद साहिब हमें इलाहाबाद में जमाना चाहते थे। हमने पहले ही से फै़सला किया हुआ था कि ज़्यादा दिन प्रैक्टिस नहीं करेंगे। चुनांचे, दो साल बाद सब छोड़-छाड़कर बंबई चले गए।’’
‘‘इंग्लिस्तान के दिनों में आपके क़रीबी दोस्त कौन थे ?’’
‘‘एक तो वही इम्तियाज़ अली ख़ाँ, फिर महमूदुल ज़फ़र, ख़्वाजा मंजूर हुसैन, हथी सिंह, शौकतुल्लाह अंसारी, फ्रेंक मोरिस, डॉ. अशरफ़, मजूमदार, सेन गुप्ता और उफ़्ती यानी अपने मियाँ इफ़्तिख़ारुद्दीन। तुम्हारे दोस्त आरिफ़ इफ़्तिख़ार के वालिद।’’
‘‘आपने कम्युनिस्ट पार्टी कब जॉइन की ?’’
‘‘सही मा’नों में ऑक्सफ़ोर्ड में, जब आख़िरी साल में पढ़ते थे। 1929 में ‘मेरठ साज़िश केस’ के कुछ लोग किसी तरह भागकर इंग्लिस्तान पहुँच गए थे और वहीं मुकीम (निवासरत) थे। हम इंग्लिस्तान 1930 में पहुँचे, तो कुछ ही अरसे बाद उन लोगों ने हमें ढूंढ़ निकाला और हमने उनको। फिर दिन-रात मुबाहिसा करते। हमारी आँखें खुल गईं और हमें ज़िंदगी का रास्ता मिल गया।’’
बन्ने भाई और मैं जब तन्हा होते, तो मैं उनसे सवाल पर सवाल किया करता था और वो सिगरेट पीते, मुस्कराते और कभी-कभी मेरे सवालों से ख़फ़ा होते थे। फिर भी हर सवाल का जवाब ज़रूर देते थे। सोशलिस्ट मुल्कों में मेरा और उनका बहुत साथ रहा। फिर मैं बार-बार उनके घर 22, हौज़ ख़ास दिल्ली में उनका मेहमान रहता। इसलिए मेरे सवाल ख़त्म होते थे, न उनका मुस्कराकर जवाब देना। उनकी वो दिलकश मुस्कराहट जिसके सबब वो हर एक की आँखों का तारा और मंजूर-ए-नज़र थे। क्या ख़ूबसूरत मुस्कराहट थी ! पाक, शफ़्फ़ाफ़ (उज्जवल) मुस्कराहट। उनके हसीन चेहरे पर मुस्कराहट देखकर ज़िंदगी खूबसूरत लगने लगती थी और उस अज़ीम शख़्सियत की शराफ़त-ए-नफ़्स (शिष्ट स्वभाव वाला) पर ईमान लाना पड़ता था।
‘‘बन्ने भाई ! आप पहली दफ़ा कब गिरफ़्तार हुए ?’’
‘‘हम इलाहाबाद में रहते थे। ये 1936 की बात है। पुलिस वारंट लेकर आई और हमें गिरफ़्तारी का वारंट दिखाया। हमारी माँ को ख़बर हुई, तो उन्होंने माली से जल्दी से फूल लाने को कहा। वो हमसे बहुत मुहब्बत करती थीं। फूल देकर ज़ब्त करती रहीं कि आँसू निकल न आएँ। फिर हमें पुलिसवाले जेल ले गए। दूसरी बार मसूरी में 1937 में गिरफ़्तार हुए और तीसरी बार 13 मार्च, 1940 को पकड़े गए। रिहाई 14 मार्च, 1942 को हुई।’’
‘‘दरमियान में क्या होता रहा ?’’
‘‘जब जेल में नहीं होते थे, तो उसी दौर में पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ काम किया। एक दिन पंडितजी ने हम से पूछा, ‘बन्ने ! क्या तुम कम्युनिस्ट हो?’ हमने कहा, ‘पंडितजी ! हमारी पार्टी पर पाबंदी है, लेकिन आप पूछ रहे हैं इसलिए हमें छुपाना नहीं चाहिए। जी हाँ ! हम कम्युनिस्ट हैं।’ हमने बतला दिया। पंडितजी ये सुनकर मुस्कराए। कहा कुछ नहीं। असल में असद ! डॉक्टर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, लाल बहादुर शास्त्री और गोविंदवल्लभ पंत हमारी, जे़ड अहमद और डॉक्टर अशरफ़ की शिकायत करते रहते थे कि ‘पंडितजी ! आपने तो सारे कम्युनिस्टों को अपने गिर्द जमा कर रखा है।’’
‘‘फिर आगे की कहानी क्या है बन्ने भाई ?’’
‘‘चुनांचे, हमने बंबई जाने का फ़ैसला कर लिया और 30 जनवरी, 1943 को बंबई पहुँचे और वहाँ अगस्त, 1947 तक क़ियाम रहा। वो साल सही मायनों में जद्दोजहद के साथ थे, जिंदा रहना था अच्छा, और ज़रूरी लगता था। ‘नया ज़माना’ और ‘क़ौमी जंग’ निकाल रहे थे। और इन पर्चों की मांग बढ़ती ही जा रही थी। तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ़ीन की तहरीक फैल रही थी और उसकी शाखें जगह-जगह क़ाइम हो रही थीं। उस ज़मानें में हमें पार्टी से 40 रुपए मिलते थे। जब रज़िया भी वहाँ आ गईं और नजमा भी, तो हमारे अब्बा से हमें 150 रुपए माहाना की इम्दाद मिलने लगी।’’
‘‘1947 में हिंदुस्तान की तक़्सीम हुई और पाकिस्तान वजूद में आ गया। वहाँ से क्या कहानी शुरू होती है ?’’
‘‘वो सब तो तुम्हें मालूम है। फिर हमसे क्यों पूछते हो ? खै़र ! पूछा है, तो सुनो। कलकत्ता कांग्रेस में फ़ैसला हुआ कि हम पाकिस्तान जाएँ और पार्टी की तंज़ीम करें। चुनांचे अप्रैल, 1948 को हम बज़रिए हवाई जहाज़ कराची पहुँचे। एहतियातन टिकट मुबीन अहमद के फ़र्ज़ी नाम से ले लिया था। कराची एयरपोर्ट पर उमर एंड संस के उमर, जो अलीगढ़ के रहने वाले थे, हमें देखते ही घबराकर हमारी तरफ़ बढ़े और परेशानी से कहा, ‘आपके ख़िलाफ़, तो यहाँ वारंट है और आप बेफ़िक्री से यहाँ खड़े हैं।’ फिर उन्होंने गै़र मामूली फुर्ती के साथ एक टैक्सी ढूंढ़ी और जहाँ हमारे क़ियाम (ठहरने) का इंतिज़ाम था, हम वहाँ पहुँच गए। पाकिस्तान में हम 27 अप्रैल, 1951 को गिरफ़्तार हुए। 5 जनवरी, 1953 को चार साल कै़द और पाँच सौ रुपए जुर्माना हुआ। कै़द के दिन हैदराबाद सेंट्रल जेल, सेंट्रल जेल बलूचिस्तान में गुज़रे।’’
‘‘बन्ने भाई ! आपकी वहाँ रिहाई 8 जुलाई, 1955 को हुई थी ना ?’’
‘‘हाँ ! 8 जुलाई को रिहा हुए और 30 जुलाई, 1955 को हम लखनऊ लौटे। लखनऊ के रेलवे स्टेशन पर हमें लेने हमारी बीवी रज़िया और भाई अली ज़हीर आए थे। हम अली ज़हीर से बग़लगीर (गले मिले) हुए। रज़िया एक तरफ़ खड़ी थीं। फिर हम उनसे मिले। बहुत से तालिब-ए-इल्म लाल झंडा उठाए जुलूस की शक्ल में हमें स्टेशन से लेकर चले और फिर हम ‘वज़ीर मंज़िल’ पहुँचे। उस वक़्त हमारी माँ ज़िंदा थीं। पहली अक्टूबर, 1955 को ऐलान हुआ कि ‘रावलपिंडी साज़िश केस’ के कै़दियों की सज़ा माफ़ कर दी गई है। ये ख़बर हमें लखनऊ में मिली।’’
30 जुलाई, 1955 से 14 मई, 1957 तक बन्ने भाई लखनऊ में रहे। अब उनके पास हिंदुस्तान की शहरीयत नहीं थी, पासपोर्ट नहीं था, क़ौमियत नहीं थी। 15 मई, 1957 को वो पहली बार बाहर गए। इंडियन गवर्मेंट ने सफ़र के काग़ज़ात दे दिए थे और बन्ने भाई ने बर्लिन, प्राग, वारसा, मास्को, पेरिस और लंदन का सफ़र किया। उसके बाद बन्ने भाई से 1960 में मिलना हुआ। अब मैं बर्लिन में मुक़ीम था। वहाँ एक राइटर्स कॉन्फ्रेंस थी। सिर्फ़ यूरोप के राइटर्स की। मैंने बहुत दौड़-धूप की और ख़ुशी की बात है कि जून में बन्ने भाई ऑब्जर्वर बनकर बर्लिन आए। तीन साल बाद हम लोग फिर इकट्ठे हुए। बर्लिन से बन्ने भाई मास्को गए और पहली बार उन्होंने ब्लैक सी देखा और सोची में कुछ हफ़्ते गुज़ारे।
फ़रवरी, 1962 में एफ्रो-एशियन राइटर्स कॉन्फ्रेंस क़ाहिरा में हुई। क़ाहिरा से बन्ने भाई को मास्को बुलाया गया और उन्होंने कुछ दिन रोमानिया जाकर बुखारेस्ट में भी क़ियाम किया। 1962 में ही एफ्रो-एशियन राइटर्स की ब्यूरो मीटिंग कोलंबो में हुई। उसमें भी बन्ने भाई ने शिरकत की। लेकिन उसी साल का ख़ूबसूरत प्रोग्राम मास्को में ‘वर्ल्ड पीस कांग्रेस’ का आयोजन था। बन्ने भाई ने उसमें शिरकत की। नाज़िम हिकमत, पाब्लो नेरूदा, फै़ज़ वहाँ ये सब ही मौजूद थे। उन दिनों में भी मास्को में ही था। वोल्गा की सैर और लेनिनगार्ड का दौरा इस कॉन्फ्रेंस के प्रोग्राम का हिस्सा थे।
अगस्त, 1963 में बन्ने भाई ने मिडिल ईस्ट, लेनिनगार्ड और मास्को का दौरा किया। बन्ने भाई जब लखनऊ से देहली मुंतक़िल हुए, तो अप्रैल 1958 में उनका क़ियाम 163 नॉर्थ एवेन्यू के दो कमरों के फ़्लैट में था। मेरे भी उस फ़्लैट में कुछ दिन गुज़रे। ये फ़्लैट दरअसल, कम्युनिस्ट पार्टी के पार्लियामेंट मेंबर दामोदर का फ़्लैट था। वो ज़्यादातर बंगाल में रहते थे। और सिर्फ़ पार्लियामेंट के सेशन के दिनों में देहली आते थे और जब देहली आते थे, तो ख़ुद किसी दोस्त के साथ कहीं और ठहरा करते थे। जब रज़िया आपा लखनऊ के मुख़्तसर क़ियाम के लिए आती थीं, उन दिनों मुझे और बन्ने भाई को सलीके़े का खाना नसीब होता था। बन्ने भाई तो दरवेश क़िस्म के आदमी थे। सूफ़ी मिज़ाज के इंसान थे। जो मिल जाए, खा लेते थे। लेकिन में सोशलिस्ट मुल्कों से देहली आया था और हिंदुस्तानी खानों के लिए तरसता था। इसलिए देहली में जब कभी रज़िया आपा आ जातीं, तो बहार ही बहार के दिन होते थे।
बन्ने भाई से 1958 से उनकी मौत 13 सितंबर, 1973 तक हर साल मिलना होता रहा। देहली के अलावा मास्को, प्राग, सोफ़िया, क्यूबा में उनका साथ था। वो आलिम इंसान थे। यूरोप की तारीख़ का उन्हें बड़ा गहरा इल्म था। उन्होंने हिंदुस्तान की पाँच हज़ार साला तारीख़, तहज़ीब और अदब को ख़ूब पढ़ा था और उससे वो पूरी तरह आशना (परिचित) थे। साथ ही ख़ूबसूरत लोग, ख़ूबसूरत शामें और संजीदा गुफ़्तगू उन्हें बहुत पसंद थी। फूलों के वो आशिक़ थे। जब हौज़ ख़ास में रहने लगे थे, सुबह-सवेरे उठकर दरख़्तों को पानी दिया करते थे। दिन तो वो लिखने-पढ़ने में गुज़ारना चाहते थे, लेकिन शाम को उनकी ख़्वाहिश होती थी कि कुछ दोस्त जमा हों, और शाम इकट्ठे गुज़रे। कहने को तो 13 सितंबर, 1973 को वो ये दुनिया छोड़ गए, लेकिन क्या ऐसे लोग वाक़ई मर जाते हैं, वो मरकर दोस्तों, लोगों के दिलों में ज़िंदा रह जाते हैं। और फिर तारीख़ में अमर हो जाते हैं। और तारीख़ का सुनहरा बाब (अध्याय) बन जाते हैं।
(अक्टूबर-दिसंबर 2005 में साहित्यिक मैगज़ीन ‘शेष’ में प्रकाशित लेख का संपादित अंश। पेशकश : ज़ाहिद ख़ान )
पढ़ कर बहुत खुशी और सुकून मिला । लेख काफी शार्टकट में दिया गया है । तफसील से पढ़ने को मिलता तो कुछ और ही बात होती ।