जन्मदिन पर विशेष: अदाकारी, इंसानियत और दरियादिली में बेमिसाल थे पृथ्वीराज कपूर

भारतीय सिनेमा में पृथ्वीराज उस बेमिसाल शख़्सियत का नाम है, जिनकी शानदार अदाकारी के साथ-साथ उनकी बेजोड़ इंसानियत और बेपनाह दरियादिली के भी कई क़िस्से मक़बूल हैं। पृथ्वीराज कपूर जब कामयाबी के उरूज पर थे, तब उन्होंने बॉम्बे में एक ट्रैवलिंग थियेटर कंपनी के तौर पर ‘पृथ्वी थियेटर’ की क़ायमगी की। इस ग्रुप का मोटो था ‘कला देश के लिए’। ‘पृथ्वी थियेटर’ के मार्फ़त देश के छोटे-बड़े शहरों में उन्होंने ढाई हज़ार से ज़्यादा नाटकों का मंचन किया।

पृथ्वी थियेटर में तक़रीबन डेढ़ सौ लोग शामिल थे। तीन घंटे का शो खत्म होने के बाद, पृथ्वीराज कपूर गेट पर झोला लेकर खड़े हो जाते थे, ताकि शो देखकर आ रहे दर्शक उसमें अपने दिल से कुछ मदद करें। शो के ज़रिए जो पैसा इकट्ठा होता, उससे उन्होंने एक ‘वर्कर फंड’ बनाया था। जो ‘पृथ्वी थिएटर’ में काम करने वाले कलाकारों, टेक्नीशियनों और कर्मचारियों की मदद के काम आता था।

बीसवीं सदी का चौथा दशक मुल्क की सियासत में बड़ा उथल-पुथल भरा और निर्णायक दौर था। अंग्रेज़ हुकूमत ने जब भारत पर अपनी गिरफ़्त कमजोर होती देखी, तो उसने देश के दो बड़े समुदायों- हिंदू और मुस्लिम की एकता को तोड़ने के लिए उनके बीच मतभेद बढ़ाने शुरू कर दिए। ताकि ये दोनों क़ौमें आपस में भिड़ी रहें और वे आराम से उन पर हुकूमत करते रहें।

पृथ्वीराज कपूर ने ‘पृथ्वी थियेटर’ के ज़रिए उस वक़्त जो ड्रामे ‘दीवार’, ‘पठान’, ‘गद्दार’ और ‘आहुति’ का मंचन किया, वे राष्ट्रीय एकता को बढ़ाने वाले थे। उन्होंने अपने इन नाटकों के माध्यम से देशवासियों में जहां एकता का पाठ पढ़ाया, वहीं अंग्रेज़ हुकूमत की चालबाजियों की तरफ़ भी इशारा किया। देश की आज़ादी के लिए उन्हें बेदार किया।

पृथ्वीराज कपूर ‘भारतीय जन नाट्य संघ’ यानी इप्टा के संस्थापक सदस्यों में से एक हैं। साल 1943 में जब मुंबई में इप्टा की दागबेल डली, तो वो उससे जुड़ गये। पृथ्वीराज कपूर मुंबई इप्टा के ऑनरेरी प्रेसीडेंट भी रहे। बंगाल में जब भयानक अकाल पड़ा, तो इप्टा ने अकाल पीड़ितों की मदद के लिए, देश भर में नाटकों के कई शो किये। ताकि चंदा इकट्ठा किया जा सके।

रेबा रॉय चौधरी जो इप्टा की एक अहम साथी थीं, उन्होंने अपनी आत्मकथा में मुंबई के उस वाक़िआत का तफ़्सील से ब्यौरा दिया है, जिसमें पृथ्वीराज कपूर अकाल पीड़ितों की मदद के लिए आगे आये थे। 1944 में चर्चगेट रेलवे स्टेशन के पास मराठी सेंटेनरी के अहाते के विशाल आंगन में मंच बनाकर हमने ‘वॉयस ऑफ़ बंगाल’ का प्रदर्शन किया। पहले ‘है..है..जापान’ गीत के साथ डांस, फिर हारीन चट्टोपाध्याय का डांस ‘दही बेचनेवाला.. ‘उसके बाद हमने उनका गीत गाया ‘सूर्य अस्त हो गया गगन मस्त हो गया।’ एक के बाद एक गीत और नृत्य चल रहे हैं। ..

.. दर्शक दीर्घा में फ़िल्मी दुनिया की बड़ी-बड़ी हस्तियां बैठी हैं- पृथ्वीराज कपूर अपनी बीवी के साथ। जयराज, बनमाला, वी शांताराम और शोभना समर्थ वगैरह। मंच पर गीत चल रहा है ‘सुनो हिन्द के रहने वाले..’ अचानक पृथ्वीराज कपूर मंच पर आकर माइक पर ऐलान करते हैं कि, “हमें बंगाल के अकाल पीड़ितों की मदद के लिए कुछ करना चाहिए।” फिर वे अपने सर की टोपी हाथ में लेकर, दर्शकों के बीच पहुंच गए और अपने बॉलीवुड के सभी साथियों के साथ बीस हज़ार रुपये बतौर चंदा इकट्ठा करके हमें दे गए।”

पृथ्वीराज कपूर के बारे में ऐसे कई क़िस्से मशहूर हैं, जब उन्होंने अपने साथी कलाकारों या जूनियर कलाकारों की आगे बढ़कर मदद की। अदाकारा दुर्गा खोटे ने अपनी आत्मकथा में इस बात का तफ़्सील से ब्यौरा दिया है कि किस तरह से उन्होंने अपने मामूली कर्मचारी को प्लेग की अफ़वाहों के बीच, कंधे पर रखकर उसे अस्पताल पहुंचाया। यही नहीं वे उस वक़्त तक अस्पताल में रहे, जब तक कि वह कर्मचारी सेहतमंद नहीं हो गया।

लेखक, गीतकार विश्वामित्र आदिल को अस्थमा की बीमारी थी, सड़क पर उड़ने वाली धूल उन्हें परेशान कर डालती थी। पृथ्वीराज कपूर को जब यह बात मालूम चली, तो उन्होंने यह रोज़ाना का मामूल बना लिया कि सुबह-सुबह सड़क पर पानी का छिड़काव करवाते। ताकि धूल न उड़े।

पृथ्वीराज कपूर की दरियादिली और इंसानियत के कई क़िस्सों का ज़िक्र शौकत आज़मी ने अपनी आत्मकथा ‘याद की रहगुज़र’ में किया है। शौकत आज़मी जब उनके नाटकों में रिहर्सल के लिए जातीं, तो उन्होंने छोटी बच्ची शबाना के लिए बाक़ायदा एक आया का बंदोबस्त किया। ताकि शौकत अपनी रिहर्सल बिना चिंता के कर सकें।

पृथ्वीराज कपूर अपनी पूरी टीम के साथ ही खाना खाते और उन्हीं के साथ इकट्ठा रहते। उन्हीं के साथ सोते। अपनी टीम के साथ उनका एक सा बर्ताव होता। अपने साथियों के दुखों और परेशानियों में वे हर दम उनके साथ खड़े रहते।

पृथ्वीराज कपूर का अदब और अदीबों से भी बड़ा लगाव था। ख़ास तौर पर वे जोश मलीहाबादी की शख़्सियत और शायरी के शैदाई थे। अदीब, जर्नलिस्ट हमीद अख़्तर ने अपनी एक किताब ‘आशनाईयां क्या-क्या’ में जोश मलीहाबादी का एक बहुत अच्छा ख़ाका लिखा है, इस ख़ाके में जोश के बहाने पृथ्वीराज कपूर का किरदार भी क्या ख़ूब सामने आया है।

साल 1946 में हिंदी सिनेमा से जुड़े रहे हमीद अख़्तर लिखते हैं कि पृथ्वीराज कपूर नये लोगों को अक्सर ये सीख देते रहते थे कि “अगर अच्छे अदाकार बनना चाहते हो और मकालमों की अदायगी में कमाल हासिल करने की आरज़ू है, तो जोश को पढ़ो।” वो ख़ुद भी सेट पर वक़्तन-फ़वक़्तन जोश के अशआर गुनगुनाते रहते थे।

मुंबई में क़याम के दौरान एक वक़्त ऐसा भी आया, जब जोश मलीहाबादी को काफ़ी परेशानी थी। उन पर कुछ क़र्ज़ था, जिसी वजह से वे काफ़ी परेशान थे। हमीद अख़्तर ने पृथ्वीराज कपूर को जोश साहब की हालत-ए-ज़ार से आगह किया।

बहरहाल आगे का क़िस्सा उन्हीं की जुबानी, “खै़र शायर-ए-इंक़लाब के हालात सुनके पृथ्वीराज ख़ासा रंजीदा हुआ। उस ज़माने में वो ग़ालिबन सबसे ज़्यादा मुआवजा लेने वाला अदाकार था। फ़िल्मों के अलावा ‘पृथ्वी थिएटर’ से उसे माकूल आमदनी होती थी। पृथ्वीराज ने जोश साहब की रूदाद सुनने के बाद उनसे फ़रमाया, आपसे दरख़्वास्त है कि आज से आप अपने आप को ‘पृथ्वी थिएटर’ से जुड़ा हुआ समझें। आप पर यहां आकर बैठने की कोई पाबंदी नहीं है। न ही लिखने-लिखाने के सिलसिले में हमारी कोई शर्त है। बस, आपका जो जी चाहे और जब चाहे आप पृथ्वी थिएटर के लिए नज़्म या नस्र जो मुनासिब समझें, लिखकर हमें नवाज़ दिया करें।”

इसके बाद उसने एक लिफ़ाफा दोनों हाथों में पकड़कर जोश साहब को पेश करते हुए कहा, “ये पहले महीने का एडवांस है। हम आपकी बड़ी हैसियत के मुताबिक़ तो अदायगी नहीं कर सकते, ताहम ये हक़ीर मुआवजा आपको हर माह मिलता रहेगा।”

थोड़ी देर वहां बैठने के बाद हम टैक्सी के ज़रिए, वापस रवाना हुए। जोश साहब ने लिफ़ाफ़ा मुझे थमाता हुआ कहा, ‘देखो, कितने हैं?’

मैंने गिना, तो उसमें पन्द्रह सौ रुपये थे। जो उस ज़माने में बड़ी रकम थी। जिस कंपनी में मैं और साहिर मुलाज़िम थे, वहां साहिर को उन दिनों गाने लिखने की तनख़्वाह चार सौ रुपये और मुझे मकालमा-नवेसी की मुआवजा साड़े तीन सौ रुपये मिलता था।

बहरहाल, कुछ अरसे के बाद जब हमीद अख़्तर, जोश मलीहाबादी से मिले तो उन्होंने उनसे पूछा,

“पृथ्वीराज से बंबई में उनका निभाह कैसा रहा? पृथ्वीराज के साथ उनका वक़्त कैसा गुज़रा?, उसने अपना वादा निभाया भी या नहीं? वगैरह-वगैरह।”

“भई क्या ख़ूब आदमी है वो।” जोश बोले, “हमको दस माह तक बराबर पन्द्रह सौ रुपये हर माह भिजवाता रहा और हमने एक लफ़्ज़ भी उसको लिखकर नहीं दिया।”

(ज़ाहिद ख़ान स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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