Saturday, April 20, 2024

प्रगतिशील लेखक संघ और उसकी विरासत

साल 1936 में लखनऊ में अज़ीम उपन्यासकार प्रेमचंद की सदारत में एक बड़े जलसे के साथ ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की स्थापना हुई। उसके बाद पूरे मुल्क में इसकी इकाईयों का विस्तार हुआ। बंबई में भी ‘अंजुमन तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ़ीन’ की मुक़ामी शाख़ के हर हफ़्ते जलसे हुआ करते थे। मारूफ़ तरक़्क़ीपसंद अदीबों के अलावा दूसरे बेश्तर अदीब और शायर भी इन जलसों में शरीक होते थे।आज प्रगतिशील लेखक संघ और उसकी विरासत को संभालने का संकट आ गया है।

मुक़ामी शाख़ के सेक्रेटरी हमीद अख़्तर इन इजलास (सभा) की रूदाद (वृत्तांत) लिखते थे। जो उस वक़्त बंबई से शाया (प्रकाशित) होने वाले हफ़्तावार ‘निज़ाम’ में शाए होकर बर्र-ए-सग़ीर (तक़्सीम से पहले का भारत) के कोने-कोने तक पहुंचती थी। मुल्क के तमाम बड़े-बड़े अदबी मराकिज़ (केन्द्रों) में इसका बेचैनी से इंतज़ार किया जाता था।

ये तरक़्क़ीपसंद तहरीक के उरूज का ज़माना था। और इस तहरीक से मुताल्लिक़ तक़रीबन सभी बड़े नाम सज्जाद ज़हीर, अली सरदार जाफ़री, मजरूह सुल्तानपुरी, कृश्न चंदर, सआदत हसन मंटो, ख़्वाजा अहमद अब्बास, अख़्तर-उल-ईमान, विश्वामित्र आदिल, इस्मत चुग़ताई, सुल्ताना बेगम, मजाज़, कैफ़ी आज़मी, कुद्दूस सहबाई, मीराजी, साहिर लुधियानवी, जांनिसार अख़्तर, राजिंदर सिंह बेदी, प्रेम धवन, मोहम्मद मेहदी, मधुसूदन, सागर निज़ामी और ज़ोय अंसारी इसके अलावा और भी कई बड़े नाम उस वक़्त बंबई में मौजूद थे। जिनकी अक्सरियत इन हफ़्तावार अदबी जलसों में शरीक होती।

1946-47 का ज़माना तरक़्क़ीपसंद तहरीक के लिए इस लिहाज़ से भी अहम था कि इस ज़माने में मुल्क में आज़ादी की लहर जारी और सारी थी। और तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ़ीन की तंज़ीम आज़ादी की इस जद्दोजहद का एक इंतिहाई सरगर्म हिस्सा थी। चूंकि उस ज़माने में तक़रीबन सभी नामवर तरक़्क़ीपसंद अदीब और शौहरा बंबई या पूना में मौजूद थे। और बाक़ायदगी के साथ अंजुमन के हफ़्तावार जलसों से शरीक भी होते थे। इसलिए इन जलसों की रूदाद और उसके रिकार्ड को यक़ीनन तारीख़ी हैसियत का हामिल क़रार दिया जा सकता है।

इन जलसों में उठाए जाने वाले सवालात जिनका तअल्लुक़ उस दौर की सियासी, तहज़ीबी, सक़ाफ़ती (सांस्कृतिक) और अदबी ज़िंदगी से था। उनमें होने वाली बहसों से यह अंदाज़ा किया जा सकता है कि उन लोगों की सोच क्या थी। 1946-47 के डेढ़ बरसों में ‘अंजुमन तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ़ीन’ की मुंबई शाख़ के हफ़्तावार जलसों की यह रूदाद किताब ‘रूदाद-ए-अंजुमन’ में मौजूद है। जिसे साल 2006 में ‘तख़्लीक़कार पब्लिशर’ दिल्ली ने उर्दू में शाए किया था। 75 साल पहले 26 जनवरी, 1947 आज ही के दिन ‘अंजुमन तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ़ीन’ के जलसे में क्या हुआ था ? पेश है उसकी पूरी रूदाद, जो इस अहमतरीन किताब में दर्ज है। इस इजलास में डॉ. मुल्कराज आनंद ने अपनी तक़रीर में जो अंदेशा ज़ाहिर किया था, क्या वह सच साबित नहीं हुआ है?

देवधर स्कूल ऑफ म्यूजिक बंबई में कुल हिंद तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ़ीन का इज्तिमा (जलसा) एक नुमाइंदा इज्तिमा था। कुछ अरसे से तमाम जु़बानों के तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ़ीन का मुश्तरका (संयुक्त) इज्तिमा भी नहीं हुआ था। और इत्तिफ़ाक़ से इसी इतवार 26 जनवरी को यौमे आज़ादी भी था। हर जु़बान के शायर और अदीबों ने तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ़ीन के एक मुश्तरका इज्तिमा के मुताल्लिक़ अपना ख़याल ज़ाहिर किया था। इसलिए ठीक दस बजे सुबह को ये जलसा मुन’अक़िद (आयोजित) हुआ।

26 जनवरी को आज़ादी का वो यादगार दिन था, जबकि अंग्रेज़ी साम्राज्य के ख़िलाफ़ अवाम के रहनुमाओं ने आज़ादी मिलने तक साम्राज्य के ख़िलाफ़ एक मुसलसल जद्दोजहद ज़ारी रखने के अहदनामे पर अमल करने का अमल किया था। और अवाम को हर क़िस्म की आज़ादी हासिल करने पर आमादा किया था। आज फिर उसी अहद को दोहराने और जद्दोजहद को ज़ारी रखने की क़सम खाने का दिन था।

तक़रीबन तीन सौ से ज़्यादा आर्टिस्ट, अदीब और शायर इस जलसे में शरीक थे। हर जु़बान के नुमाइंदे इस जलसे में जमा हुए थे। तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ़ीन के अलावा हिंदुस्तानी अवाम थियेटर एसोसिएशन के नुमाइंदे और हिंदुस्तानी आर्टिस्ट भी मौजूद थे। मामा वरेरकर मराठी के मशहूर-ए-ज़माना तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ़ और अदीब ने जलसे की सदारत की। काबिले ज़िक्र असहाब (साथी) में हस्ब-ज़ेल (निम्नलिखित) अदीब, शायर मौजूद थे।

डॉ. मुल्कराज आनंद, शाहिद लतीफ़, इस्मत चुग़ताई, सज्जाद ज़हीर, रज़िया सज्जाद ज़हीर, विश्वामित्र आदिल, सफ़दर, अली सरदार जाफ़री, कैफ़ी आज़मी, सुल्ताना बेगम, आबिद गुलरेज़, निशात शाहिदवी, ज़ोय अंसारी, भोगीलाल गांधी, (एडिटर ‘संस्कार’), एम देसाई (एडिटर ‘बंबई वर्तमान’) वीटी असर (एक्टिंग एडिटर ‘भारत समाचार’), रति कुमार व्यास (गायक), शमशेर बहादुर सिंह, राजीव सक्सेना, रमेश सिन्हा, बलराज साहनी, नूरजहॉं, दमयंती साहनी, शांता गांधी, मोहन सहगल कपूर और अनिल डि सिल्वा।

जलसे की इब्तिदा हिंदुस्तानी अवामी थिएटर एसोसिएशन के सांस्कृतिक दस्ते के उन गानों से हुई, जिनका मौज़ू आज़ादी से तअल्लुक़ रखता था। फिर कुछ नज़्में पढ़ी गईं। जिसके बाद जनरल सेक्रेटरी सज्जाद ज़हीर ने एक तक़रीर की। जिसमें उन्होंने तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ़ीन की तहरीक की नश्व-ओ-नुमा (परवरिश) का तज़्किरा (ज़िक्र) करते हुए अदबी तक़ाज़ों का तारीख़ी पस-ए-मंज़र पेश किया। सज्जाद ज़हीर ने अपनी तक़रीर में तफ़्सील के साथ वो मनाज़िल (मंज़िलें) बयान कीं जिन्हें तय करके तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ़ीन मौजूदा मंज़िल तक पहुंचे हैं। उन्होंने बताया कि हर दौर में इस तहरीक के मुख़ालिफ़ जगह-जगह से अग़राज़ (स्वार्थ) या दूसरे उद्देश्य के पेश-ए-नज़र सरगर्म-ए-कार (किसी काम में पूरी तन्मयता से लगा हुआ) रहे हैं।

लेकिन तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ़ीन, मुख़ालिफ़ों की मुख़ालफ़त को नज़रअंदाज़ करके बढ़ते चले गए। उन्होंने इस बात की परवाह भी नहीं की कि उन्हें ढिंढोरची कहा जाता है। और इस बात पर ज़ोर दिया कि आज के अदब को सियासत और प्रोपेगंडा से अलहदा नहीं किया जा सकता। उन्होंने बताया कि आज़ादी, इंक़लाब और तरक़्क़ी हमेशा नये अदीबों का मौज़ू रहा है। और उन्होंने सियासी, मुआशरती (सामाजिक) और मुआशी (आर्थिक), शहरी, शख़्सी और आज़ादी तहरीर-ओ-तक़रीर की न सिर्फ़ तब्लीग़-ओ-हिमायत की है, बल्कि अक्सर अदीबों ने इस मक़सद के लिए अमली कु़र्बानियां भी दी हैं। और अब भी कुर्बानियां देने का इरादा रखते हैं।

अदब में खुले रज़अत-पसंदों (प्रतिक्रियावादियों) का ज़िक्र करने के बाद सज्जाद ज़हीर साहब ने बताया कि कुछ ऐसे दुश्मन भी पैदा हो गए हैं, जो खु़द इस तहरीक में दाख़िल होकर रख़्ना-अंदाज़ी (बाधा डालने वाला) करना चाहते हैं। और महज़ अल्फ़ाज़, ‘इबारत-आराई (अलंकृत या लच्छेदार शैली में चित्रण), फार्म और हैय्यत (बनावट) की तब्लीग़ कर अदब और ज़िंदगी के बुनियादी मक़ासिद (उद्देश्यों) की बेख़-कनी (जड़ खोदना) करना चाहते हैं। ये नये रज़अत-पसंद आस्तीन के सांप हैं। और इनसे अदबी तहरीक को पाक-ओ-साफ़ रखने के लिए तरक़्क़ीपसंद मुसन्निफ़ों, आर्टिस्टों, और शायरों ने सिर्फ़ अपने मक़ासिद के प्रचार-प्रसार में बल्कि अमली ज़िंदगी में ज़्यादा सरगर्मी और ज़्यादा ख़ुलूस का इज़हार करना पड़ेगा।

सज्जाद ज़हीर की तक़रीर के बाद डॉ. मुल्कराज आनंद ने एक रेजोल्यूशन (संकल्प) पेश किया। इस रेजोल्यूशन के ज़रिए कम्युनिस्ट पार्टी के ख़िलाफ़ हमा-गीर (सर्वव्यापी) खाना-तलाशियों, गिरफ़्तारियों और मुक़दमों की मज़म्मत (निंदा) की गई थी। और मुतालबा (अपने हक़ की मांग) किया गया था कि ‘ब्लिट्ज़’ के एडिटर के ख़िलाफ़ जो मुक़दमा चलाया जाने वाला है, वापस ले लिया जाए। वो तमाम काग़ज़ात जो कम्युनिस्ट पार्टी के दफ़्तरों से ले जाए गए हैं, वो भी वापस कर दिए जाएं। और हिंदुस्तान की आरज़ी (अस्थायी) हुकूमत को चाहिए कि वो फौरन एक तहक़ीक़ाती कमेटी के ज़रिए उन इल्ज़ामात की तहक़ीक़ (जाँच-पड़ताल) कराए, जो ‘ऑपरेशन असेलुम’ में पेश किए गए हैं।

डॉ. आनंद ने रेजोल्यूशन की तहरीर पढ़ते हुए अपनी तक़रीर में कहा कि ‘‘ऐसे हमले आने वाले ज़माने के वाक़िआत की एक तस्वीर हैं। अगर ऐसी चीज़ें ज़ारी रहती हैं, तो मैं आपको आग़ाह करता हूं कि मुल्क में अदब, आर्ट और कल्चर की नश्व-ओ-नुमा (विकसित होना) कोई मौक़ा बाक़ी न रहेगा। और हमारी इस पचास साला जद्दोजहद का हासिल जीरो के बराबर रह जाएगा। जो हमने एक आज़ाद बेहतरीन ज़िंदगी गुज़ारने के लिए की है।

अगर हम ऐसे हमलों के ख़िलाफ़ उठ खड़े नहीं होते हैं, जो ख़्वाह (चाहे) कम्युनिस्ट पार्टियों के ख़िलाफ़ किए गए हों, या अवामी थिएटर के ख़िलाफ़ या मुल्क की किसी दूसरी जमात (समुदाय) और इदारे के ख़िलाफ़ तो कल ऐसा ही हमला हमारे ख़िलाफ़ भी होगा। और यक़ीन कीजिए कि वो तमाम मुसन्निफ़, अदीब, फ़नकार और आर्टिस्ट जो साफ़-गोई और तल्ख़ी के साथ बात कहना चाहेंगे, ख़ामोश कर दिए जाएंगे। हम पर मुक़दमें चलाए जाएंगे, उस वक़्त न हिंदुस्तान में जमहूरियत होगी, न आज़ादी, न आर्ट, न कल्चर, न अदब।’’

रेजोल्यूशन की ताईद (समर्थन) बलराज साहनी (हिंदुस्तान के मशहूर अदाकार) ने की। उन्होंने ताईदी तक़रीर में कहा कि ‘‘ये हमारे रहनुमाओं के मुंह पर एक तमाचा है। ये तमाम अवाम के मुंह पर एक तमाचा है। और हमें इसका मुनासिब जवाब देना चाहिए। आज जबकि हम फिर यौम-ए-आज़ादी के मौके पर अपनी ज़िंदगियों को ख़िदमते मुल्क की नज़्र करने का अहद कर रहे हैं, हमको बरतानवी साम्राज्य से साफ़-साफ़ कह देना और उसे आग़ाह कर देना चाहिए कि हम ऐसी दस्त-दराज़ियों (दखल) को बर्दाश्त नहीं करेंगे।’’ रेजोल्यूशन बिल इत्तिफ़ाक़ राय तमाम हाज़रीन ने मंज़ूर किया। ये जलसा तक़रीबन दो घंटे मुनअक़िद रहने के बाद ख़त्म हुआ।

(लिप्यांतरण-ज़ाहिद ख़ान और इशरत ग्वालियरी।)

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