शहादत दिवस पर विशेष : सांप्रदायिक राजनीति के धुर विरोधी थे भगतसिंह

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भगत सिंह हिंदुस्तान के भविष्य को लेकर बहुत चिंतित थे। स्वतंत्रता का अर्थ उनकी नजर में अंग्रेजों से मुक्त भारत कतई नहीं था बल्कि उनकी स्वतंत्रता में राजनीतिक अधिकारों के साथ आर्थिक स्वतंत्रता भी शामिल थी। उनका आशय हर व्यक्ति को अपने आर्थिक स्तर को ऊंचा करने के लिए उद्यम के चयन की स्वतंत्रता से था। उनका कहना था कि ऐसी स्वतंत्रता से क्या फायदा जिसमें गोरे अंग्रेजों की जगह काले अंग्रेज बैठ जाए। इस स्वतंत्रता से आम आदमी का क्या भला होगा अगर उसको अपने आर्थिक स्तर को ऊंचा करने में तमाम बंदिशें पेश आए।

वे व्यक्ति को व्यक्ति के रूप में देखने के आग्रही थे न कि जाति या धर्म के खांचे में। वे धर्म को व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला मानते थे। वे धर्म की राजनीति के सख़्त खिलाफ थे। आज जब धुर संप्रदायवादी राजनीतिक लाभ के लिए नेहरू के खिलाफ भगतसिंह को इस्तेमाल करते हैं तो वे घटिया राजनीति कर रहे होते हैं। भगतसिंह नेहरू और सुभाष दोनों के प्रशंसक थे। पर वे सांप्रदायिक राजनीति को किसी भी दशा में स्वीकार करने के इच्छुक नहीं थे।

आज जिस तरह दक्षिणपंथी नेहरू पर आक्रमण करते हैं, वे ही सुभाष या भगतसिंह को तब न छोड़ते यदि वे स्वतंत्रता पश्चात नेहरू की जगह सरकार के मुखिया बने होते। आखिर पता तो चले कि ये दक्षिणपंथी भगतसिंह के किन सिद्धांतों पर आस्था रखते हैं। किस आधार पर वे उन्हें अपना बताते हैं? जिनसे भगतसिंह की शहादत पर दो बोल न बोले गए, जिनसे कभी उनसे जेल में मिलने न जाया गया और जिनसे भगतसिंह के मूल्यों के प्रति कभी आस्था न व्यक्त की गई, वे आज अपने मुख्यालयों में भगतसिंह और आजाद की फोटो लगाए हुए हैं। ये भगतसिंह, आजाद और सुभाष के कंधों का इस्तेमाल सिर्फ गांधी-नेहरू पर निशाना साधने के लिए करते हैं। इससे ज्यादा इनके लिए सुभाष, भगतसिंह की उपयोगिता नहीं !

हमारा दायित्व है कि हम भगतसिंह को इस्तेमाल न होने दें। हम उनके विचारों को प्रमुखता से रेखांकित करें। भगतसिंह अपने लेख में कहते हैं कि हिन्दुस्तान की दशा इस समय बड़ी दयनीय है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं। अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है।

यह मार-काट इसलिए नहीं की गई कि कौन दोषी है, वरन इसलिए कि कोई हिन्दू है, सिख है या मुसलमान है। बस किसी व्यक्ति का दूसरे धर्म का होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था। जब स्थिति ऐसी हो तो हिन्दुस्तान का ईश्वर ही मालिक है। ऐसी स्थिति में हिन्दुस्तान का भविष्य बहुत अन्धकारमय नज़र आता है। इन ‘धर्मों’ ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे हिंदुस्तान का पीछा कब छोड़ेंगे।

भगत सिंह कहते हैं कि इन कौमी दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया है। और हमने देखा है कि धार्मिक अंधविश्वास के सैलाब में सभी बह जाते हैं। धर्म के यह नामलेवा अपने धर्म के रौब को कायम रखने के लिए डण्डे-लाठियां, तलवारें-छुरे हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में लड़कर मर जाते हैं।

भगतसिंह उस समय की मीडिया पर भी अपनी राय रखते हैं जो आज की पीत पत्रकारिता के लिए भी उतना ही सच है। वे कहते हैं कि साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में अखबार विशेष हिस्सा लेते रहे हैं। पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊंचा समझा जाता था। आज बहुत ही गन्दा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएं भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। ऐसे लेखक बहुत कम हैं जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो।

अखबारों का असली कर्त्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएं मिटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था, लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, सांप्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आंसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘हिंदुस्तान का बनेगा क्या?’

आज जरूरत है कि भगतसिंह की इन चिंताओं को हम अपने चिंतन में शामिल करें, उनको विमर्श की विषयवस्तु बनाएं। सच्ची श्रद्धांजलि तभी होगी। जो लोग कहते हैं कि संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी और धर्मनिरपेक्षता शब्द जोड़कर संविधान से छेड़छाड़ की, उन्हें बताया जाय कि यह मूल्य भगतसिंह सहित सभी क्रांतिकारियों के प्रिय मूल्य थे। पता हो कि क्रांतिकरियों के संगठन हिसप्रस में समाजवादी शब्द भगतसिंह के आग्रह पर ही जोड़ा गया था। अखंड पाखंड और भगतसिंह दोनों एक साथ नहीं चल सकते।

(संजीव शुक्ल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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