वेलेंटाइन डे पर विशेष: प्रेम और विद्रोह के अंतर्विरोध

ये इश्क नहीं आसां इतना तो समझ लीजै।

इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।।

जिगर मुरादाबादी ने यह शेर न जाने किन मन:स्थिति में लिखा होगा, परन्तु इस बात में कोई मतभेद नहीं होना चाहिए,कि हिन्दुस्तानी समाज में आज भी एक बड़ी आबादी में स्त्री-पुरुष के बीच का प्रेम आग के दरिया में डूबने के समान ही है। हमारे यहां सूफी कवियों ने ख़ुदा को प्रेमी-प्रेमिका मानकर जो भक्ति की लौ जलाई, उसे शुद्ध आध्यात्मिक माना गया। इसमें शरीर की उपस्थिति नहीं है, यद्यपि हमारे समाज में शरीर की उपस्थिति या अनुपस्थिति हमेशा विवादों में रही। सूफी संत प्रेम में सम्पूर्ण समर्पण मानते थे, क्योंकि सम्पूर्ण समर्पण के अभाव में प्रेम सम्भव ही नहीं है-

जब मैं था तब हरि नहीं,अब हरि हैं मैं नाय।

प्रेम गली अति सांकरी, जामे दो न समाय।।

प्रेम एक पीड़ा पहुंचाता हुआ एहसास है, एक सहता-सहता, एक अनहसता-अनसहता सा दर्द है।

जो मैं ऐसा जानती, प्रीत किये दुख होय।

नगर ढिंढोरा पीटती, प्रीत करियो कोय।।

हमारे यहां धार्मिक मिथकों में हमेशा दो ध्रुवों का प्रेम मौज़ूद रहा है-एक ओर राम-सीता का मर्यादित दाम्पत्य प्रेम है, दूसरी ओर राधा-कृष्ण का प्रेमी-प्रेमिका का, या फिर शिव-पार्वती का अर्द्धनारीश्वर होकर किया गया महारास।‌ ये सभी आमजन समान रूप से पूज्य हैं। एक ओर शिव पार्वती के साथ महारास भी करते हैं, तो दूसरी ओर तप में बाधा डालने पर काम और प्रेम के देवता कामदेव को तीसरा नेत्र खोलकर भस्म भी कर देते हैं।

लैला-मजनू, शीरी-फरहाद, सोहनी-महिवाल और हीर-रांझा और रोमियो-जूलियट जैसी प्रेम-गाथाओं में प्रेमी-प्रेमिकाओं ने‌ अपने प्रेम के लिए अपने प्राणों का विसर्जन कर दिया। त्याग, बलिदान और प्राण देने की यह अवधारणा; सामंती समाज में जहां सभी तरह का प्रेम निषेध था, व्यवस्था के ख़िलाफ़ आत्मघाती विद्रोह के रूप में सामने आती है। प्रेम-विवाह को सार्वजनिक और राजनीतिक अधिकार समूचे पश्चिमी जगत में सत्रहवीं-अट्ठारहवीं‌ शताब्दी में ही मिल गया था। यूरोप और अमेरिका में प्रेम के लिए बलिदान देने का रोमांच और रोमांस समाप्त हो गया है, वहां तो अब शत-प्रतिशत विवाह जाति-धर्म और वर्ण के बंधन से ऊपर उठकर हो रहे हैं, जहां प्रेम और विवाह; लड़का हो या लड़की उसकी निजी आज़ादी का मामला है जिसमें अभिभावकों की शायद ही कोई भूमिका होती है, हालांकि प्रेम-विवाह में वर्ग ज़रूर हावी है, लेकिन यह तो वर्तमान पूंजीवादी समाज की अनिवार्यता है।

पश्चिमी जगत में प्रेम की जगह विवाह और सेक्स के अन्य मुद्दे बहस में हैं, जैसे- लिव इन रिलेशनशिप या फिर विवाह पूर्व सेक्स जैसे मुद्दे वहां पर आम बहस में हैं। प्रेम का असली मुद्दा तो भारत सहित पूरब के अन्य मुल्कों में है,जहां स्त्री-पुरुषों के प्रेम को नैतिकता के बंधनों में बांध दिया गया है। एक प्रेम और स्त्रीविरोधी समाज में बॉलीवुड की‌ प्रेम‌-प्रधान‌ फिल्में‌ और‌ गीत मुग़ले आज़म, देवदास से लेकर बॉबी तक का जादू आज भी लोगों के सिर पर चढ़कर बोलता है, भले ही हिन्दी हिंसा प्रधान हो गया हो, लेकिन प्रेम का तत्व अभी उसमें महत्वपूर्ण बना हुआ है। अगर इसे निकाल दिया जाए तो सिनेमा के पास कहने के लिए कुछ नहीं बचेगा।

उसमें अंतर्विरोध यह है कि यह उस समाज में जहां पर गोत्र-जाति से विवाह करने वाले प्रेमी जोड़ों को खाप पंचायतों के हुक्म से फांसी पर लटकाया जाता है, ऑनर किलिंग के नाम पर पिता बेटी की भाई बहन की हत्या करता हो,अतिवादी धार्मिक संगठन छोटे शहरों को तो छोड़ दें, मुम्बई, दिल्ली बंगलूरू जैसे महानगरों में भी बड़े-बड़े मॉल, शॉपिंग कॉम्प्लेक्स तथा पार्कों में प्रेमी जोड़ों की पिटाई करते हो और यह सब उस देश में; जहां प्राचीन संस्कृत साहित्य में प्रेम का उत्सव, मदनोत्सव मनाने का वर्णन आता हो,जहां राधा-कृष्ण, शिव-पार्वती पूज्य हैं।

इन्हीं विरोधाभासों को वेलेंटाइन डे पर बाज़ार भुना रहा है। जहाँ दमन है वहां प्रतिरोध भी है, बाज़ार ने इस प्रतिरोध को अपने मुनाफ़े में बदल दिया है। महानगरों तथा छोटे-छोटे शहरों में भी वेलेंटाइन डे या वेलेंटाइन वीक में महंगे गिफ्ट या शॉपिंग मॉल-रेस्टोरेंट में दावतें या चोरी-छिपे अथवा खुलेआम प्रेमी जोड़ों का मिलना शायद इसी विद्रोह की परिणति या परिचायक है। जब तक प्रेम विरोधी इन समाजों में संघर्ष का कोई औजार विकसित नहीं हो जाता,ऐसे उत्सवों का रोमांच बना रहेगा और इससे बाज़ार गुलजार रहेंगे विरोध की लाख कोशिशों के बावज़ूद।

(स्वदेश कुमार सिन्हा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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