तसलीमा नसरीन अपने बेबाक बोलों के लिए जानी जाती हैं। लैंगिक भेदभाव और महिला विरोधी धार्मिक कर्मकाण्डों पर सीधा प्रहार करती हैं। उनका यही बेबाकीपन और निर्भीकता उन्हें पुरुषसत्ता समर्थकों का दुश्मन बनाती है। और वे तसलीमा के खिलाफ फतवे जारी करते हैं। परिणाम यह होता है कि उन्हें अपना बांग्लादेश छोड़ना पड़ता है और निर्वासन का जीवन जीना होता है। मगर वे महिला विरोधी ताकतों व धार्मिक सामाजिक कुरीतियों से कभी समझौता नहीं करतीं और अपने लेखों के माध्यम से उनकी धज्जियां उड़ाती रहती हैं।
उनकी किताब पर बात करने से पहले आइए जान लेते हैं कुछ लेखकों बुद्धिजीवियों के विचार। लेखक प्रयाग शुक्ल कहते हैं : तसलीमा नसरीन एक ऐसी लेखिका हैं जो जीवन, समाज, जगत को खुली आंखों से देखती हैं, जो निराभिमानी होकर विचरण करती हैं, और जो मनुष्य मात्र को, और जीव-जन्तुओं को भी, उनकी सहज और प्रकृति दुनिया में जीवन का आनंद उठाते हुए देखना चाहती हैं। तसलीमा शोषक, अत्याचारी शक्तियों और सामाजिक कुरीतियों का प्रतिरोध करती हुई एक मुखर नारीवादी स्वर हैं, पर, इस मुखरता में भी शब्द-स्फीति नहीं है। इसीलिए वे हमेशा मर्म पर चोट करती हैं। सुप्रतिष्ठित अनुवादक अमृता बेरा द्वारा अनूदित तसलीमा के लेखों की यह किताब पाठकों के दिलों तक पहुंचेगी और कहीं न कहीं उन्हें उद्वेलित करेगी, ऐसा मेरा मानना है।”
इसी प्रकार लेखिका गरिमा श्रीवास्तव कहती हैं – ” एक सैपियोसेक्सुअल (बुद्धिमान और मानवीय लोगों की तरफ आकर्षित होने वाले) व्यक्ति का बौद्धिक, भावात्मक दस्तावेज है यह पुस्तक! जो अमृता बेरा की सहज प्रांजल शैली में बांग्ला से कब हिंदी की पुस्तक बन जाती है पाठक को पता ही नहीं चलता। यह है तसलीमा के ‘शब्दवेधी-शब्दभेदी’ का पुनर्प्रस्तुतीकरण प्रामाणिक अनुवाद के साथ जिसमें बांग्ला की सु-सांस्कृतिकता, मसृणता के साथ खड़ी बोली की रवानगी शामिल है-यह है अनिवार्यतः पठनीय पुस्तक जो परंपरा, धर्म, साहित्य, लोकतंत्र के छद्म और पितृसत्ता के आधुनिक रूपों को अपनी साहसी कलम की दोधार से चुनौती देती हुई अपने पढ़े जाने का आत्मीय इसरार करती है।”
प्रियदर्शन अपनी टिप्पणी करते हुए कहते हैं : ” पिछले तीन दशकों में तसलीमा नसरीन के लेखन ने निर्भीकता और असहमति को मूल्य बनाते हुए वैचारिक रूढ़ियों और सामाजिक पाखंड के विरुद्ध लगातार मोर्चा लिया है। उनका एक घर अगर भारत रहा है तो दूसरा घर ‘हंस’ जैसी पत्रिका भी है जहां वे बरसों से एक नियमित कॉलम लिखती आ रही हैं। बिल्कुल तात्कालिक मुद्दों पर लिखे जाने वाले इस कॉलम की टिप्पणियां लोगों को उद्वेलित करती रही हैं। यह महज संयोग नहीं है कि प्रेमचंद और राजेन्द्र यादव का ‘हंस’ भी उसी निर्भीकता और असहमति के सम्मान के लिए जाना जाता है। यह स्वाभाविक था कि तसलीमा नसरीन के लेखन को ‘हंस’ में ही जगह मिले। सुख्यात अनुवादक अमृता बेरा ने बांग्ला से हिंदी में इन टिप्पणियों का सहज अनुवाद कर इनकी अर्थवत्ता और धार-दोनों को सुरक्षित रखा है। इस किताब में हमेशा की तरह तसलीमा नसरीन लेखकीय स्वतंत्रता, वैयक्तिक गरिमा और वैचारिक प्रतिबद्धता के पक्ष में खड्गहस्त दिखती हैं और अपने पाठक को तर्क, विवेक और विचार का ऐसा आस्वाद सुलभ कराती हैं जो उसे कुछ और समृद्ध छोड़ जाता है।”
सुकृता पॉल कुमार की राय है- ” तसलीमा नसरीन ने अपने स्वत्व को पूरी शिद्दत से कायम रखा है। उनकी धारणाएं जितनी हिम्मत से उनके लेखन में सामने आती हैं वैसा ही उनके जीवन में भी देखा जा सकता है। सत्ता के पारंपरिक ढांचों से जूझते हुए राज्यसत्ता, पितृसत्ता या सामाजिक रूढ़ियों के खिलाफ लड़ाई में वे हमेशा ही आगे बढ़ती गई हैं, और इस दौरान जिंदगी को अपनी शर्तों पर जीने के मनोबल में भी उन्होंने कभी कोई कमी नहीं आने दी। महीने दर महीने ‘हंस’ में उनका कॉलम एक अनुभवजन्य विवेक की ईमानदार और निडर अभिव्यक्तियों को सामने लाया है। यही वजह है कि तमाम तरह के उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाने की नारीवादी चेतना को जगाने के लिहाज से ‘शब्दवेधी/शब्दभेदी’ एक प्रेरक पुस्तक है।”
तसलीमा का बेबाकीपन और सच बोलना पारंपरिक सोच के लोगों को अखरता है। तसलीमा अपनी एक कविता में कहती हैं- ” कुछ लोग हैं जो मेरे सच बोलने पर बहुत नाराज होते हैं/ कहते हैं तसलीमा, अब से और सच मत बोलो/यह गैलिलियो का युग नहीं है/लेकिन इस इक्कीसवीं सदी में भी सच बोलने पर समाज कर देता है बहिष्कृत/ देता है सजा/सच मत बोलो…./झूठ बोलने से तुम्हें निर्वासन से मुक्ति मिलेगी/ तुम्हें देश मिलेगा/बहुत से दोस्त मिलेंगे/हाथ-पांव की जंजीरे खोल दी जाएंगीं/तुम देख सकोगी रोशनी और आकाश/इस तरह तुम्हें अकेले, अंधेरे में मुंह फाड़े मृत्यु के मुंह में कोई नहीं फेंकेगा।”
प्रगतिशील कथा मासिक ‘हंस’ ने उनके इस बेबाक लेखन को ‘शब्दवेधी/शब्दभेदी’ कॉलम के माध्यम से धारावाहिक प्रकाशित किया। बाद में उन्हीं लेखों का संकलन पुस्तक रूप में प्रकाशित किया।
चाहे मुस्लिम धर्म हो या हिंदू धर्म दोनों के महिला विरोधी कार्यकलापों की तसलीमा नसरीन तीखी आलोचना करती हैं। वह पितृसत्ता समर्थक पुरुषों के बारे में अपने एक लेख में कहती हैं कि ‘पुरुष कभी बड़ा नहीं होना चाहते। शादी से पहले अपनी मां पर अपने निजी कार्यों के लिए निर्भर होते हैं और शादी के बाद पत्नी पर निर्भर होे जाते हैं।”
उनके लेखों के शीर्षक भी बेबाक होते हैं जैसे ‘सुनील गंगोपाध्याय बड़े लेखक थे, बड़े इंसान नहीं’, ‘मुस्लिम कट्टरपंथियों से भी बदतर हैं कुछ प्रसिद्ध लेखक’ ‘तीन किस्से अंधी आस्था के’ आदि।
तसलीमा की खासियत यह है कि वह गोपनीयता में विश्वास नहीं करतीं और खुले व प्राकृतिक जीवन को महत्व देती हैं। यही कारण है कि वह उन बातों को भी सार्वजनिक कर देती हैं जिन्हें अक्सर लोग गोपनीय रखते हैं। वह अपने परिजनों की गोपनीय समझी जाने वाली बातों का भी खुलासा कर देती हैं। साथ ही उन लोगों और लेखकों के साथ बिताए निजी पलों का भी बखान कर देती हैं। उनका ये बेबाकीपन उनके साथी लेखकों को पसंद नहीं आता। यही कारण है कि तसलीमा की आत्मकथा का एक भाग ‘द्विखंडितो’ की आलोचना करते हुए सुनील गंगोपाध्याय कहते हैं – ” सभी जानते हैं कि व्यस्क अनकहे समझौतों के आधार पर अपने यौन संबंध बनाते हैं, इसीलिए वे सारे खिड़की-दरवाजे बंद रखते हैं। अगर कोई इस विश्वास को तोड़ दे तो यह गोपनीयता का संधि-भंग करना है जो कि न सिर्फ अप्रिय है बल्कि एक अपराध है।” (पृष्ठ 22)
अपने प्रेमियों की खूबियों और खामियों का भी वह खुलासा करती हैं। और कोई फुलटाइम प्रेमी न होने को अच्छा मानती हैं। ‘फिदा होते पुरुषों का नर्क’ लेख में तसलीमा नसरीन कहती हैं – ” कभी-कभी सोचती हूं गलत प्रेमी की बजाय सही प्रेमी मिले होते तो मेरा बेड़ा गर्क हो जाता…गलत प्रेमियों ने मुझे इस जन्म में बचाया है।”
पुस्तक का नाम : तसलीमा नसरीन शब्दवेधी/शब्दभेदी
अनुवाद: अमृता बेरा
संपादक : संगम पाण्डेय
प्रकाशक : अक्षर प्रकाशन प्रा.लि.
4229/1, अंसारी रोड, दरियागंज,
नई दिल्ली- 110002
मूल्य : 300 रुपये
पृष्ठ : 225
बता दें कि तसलीमा नसरीन का जन्म बांग्लादेश के मयमनसिंह में हुआ। मयमनसिंह मेडिकल डॉक्टर से स्नातक करने के बाद उन्होंने 1993 तक एक सरकारी अस्पताल में डॉक्टर के रूप में काम किया। लेकिन ‘सरकारी सेवा में रहने के दौरान लेखन कार्य नहीं कर सकते’ – यह निर्देश मिलने पर उन्होंने अस्पताल की नौकरी से इस्तीफा दे दिया।
लेखन के क्षेत्र में तसलीमा का प्रवेश कविता के माध्यम से हुआ। जल्द ही वे गद्य की ओर भी मुड़ीं, जहां उन्होंने स्त्री विद्वेष और मजहबी संकीर्णता के विषय से जुड़े विषयों पर प्रमुखता से लिखा। सन् 1994 में उनका उपन्यास ‘लज्जा’ जो बांग्लादेश में अल्प्संख्यक हिंदुओं के खिलाफ मुस्ल्मि सांप्रदायिकता पर आधारित था, प्रकाशित हुआ। जिसके विरोध में मुस्लिम कट्टरपंथियों द्वारा दिए फतवों के कारण उन्हें अपना देश छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। तब से वे लगातार निर्वासन में हैं।
अंग्रेजी, हिंदी, फ्रेंच, स्पेनिश, इतावली सहित कुल तीस भाषाओं में उनकी रचनाओं का अनुवाद किया गया है। तसलीमा के ‘हंस’ में प्रकाशित स्तंभ ‘शब्दवेधी/शब्दभेदी’ का बांग्ला से हिंदी में अनुवाद अमृता बेरा ने किया है। अमृता बेरा का जन्म कोलकाता में हुआ। वे दिल्ली में रहती हैं। हिंदी, बांग्ला और अंग्रेजी तीनों भाषाओं में परस्पर अनुवाद एवं लेखन करती हैं।

इस पुस्तक का संपादन संगम पाण्डेय ने किया है। वह पिछले 35 वर्षों से लेखन व पत्रकारिता में सक्रिय हैं। तसलीमा नसरीन, अमृता बेरा और संगम पाण्डेय का परिचय पुस्तक के अंत में दिया गया है।
तसलीमा इस पुस्तक के बारे में कहती हैं – ” यदि पाठक इस पुस्तक को स्वीकार करते हैं तो महिलाओं के समानाधिकार, मानवाधिकार, मानवता, समता और समाज के लिए मेरे चार दशकों का यह संघर्ष सफल होगा।”
अनुवादक अमृता बेरा तसलीमा नसरीन के बारे में कहती हैं – ” तसलीमा नसरीन पूरे विश्व में एक मुखर, निर्भीक, पुरजोर नारी स्वर है एवं अभिव्यक्ति की आजादी के पक्ष में एक आंदोलन का नाम है। उनका लेखन मात्र लेखन नहीं बल्कि धर्मांध कट्टरपंथियों से लड़ने का एक कारगर हथियार है। तसलीमा ने जीवन में खुद को जलाकर अंधेरे रास्तों को रोशन किया है और हमेशा सच का दामन थामे रखा है। मैं उन्हें सलाम करती हूं।”
इस पुस्तक के संपादक संगम पाण्डेय ‘संपादक की ओर से’ कहते हैं- ”ये किताब ऐसे लेखों का संचयन है जो प्राय: किसी तात्कालिक अनुभव या अनुभूति पर लिखे गए हैं। जिसमें कोई सार्वजनकि विडंबना, कोई निजी दुख, कोई अंतर्राष्ट्रीय प्रसंग, कोई यात्रा विवरण, कोई स्मृति आदि काफी बिखरे हुए विषय शामिल हैं। लेकिन तसलीमा नसरीन की जीवन दृष्टि वो चीज है जो इन बिखरे विषयों को आपस में जोड़ देती है।… इनका निष्कर्ष है या कहें की-नोट है व्यक्ति स्वातंत्र्य, जिसकी शाखाएं स्त्री-आजादी, मानवाधिकार आदि के रूप में सामने आती हैं। उनके अनुभव इसी स्वातंत्र्य के हनन या उल्लंघन की कथाएं हैं।”
पुस्तक में कुल 42 लेख हैं। यथास्थिति और धार्मिक सामाजिक कुरीतियों से टकराने वाले प्रगतिशील मानवतावादी पाठकों के लिए पुस्तक पठनीय और प्रेरणादायक है।
(राज वाल्मीकि स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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