Friday, April 26, 2024

‘दलित साहित्य’ ही कहना क्यों जरूरी?

बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में दलित समाज की वेदना और उत्पीड़न को दलित साहित्य के माध्यम से दुनिया के समक्ष लाने का महत्वपूर्ण कार्य हुआ है। पिछली सदी के सातवें दशक में ‘दलित साहित्य’ का हिंदी पट्टी में शुरुआती लेखन आरंभ हुआ था तथापि स्वामी अछूतानंद ‘हरिहर’ एवं कुछ गैर दलितों द्वारा भी दलित जीवन पर स्फुट साहित्य लेखन बीसवीं सदी के दूसरे-तीसरे दशक से ही आरंभ हो चुका था, पर इसे दलित साहित्य के रूप में अलग पहचान सन् उन्नीस सौ अस्सी के आसपास ही मिल सकी।

तब से अब तक दलित साहित्य की सैकड़ों कृतियों का प्रकाशन हो चुका है और संप्रति, दर्जनों दलित साहित्यकार, दलित साहित्य के क्षेत्र में गंभीरता से कार्य कर रहे हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि, कंवल भारती, डॉ. धर्मवीर, डॉ. जयप्रकाश कर्दम, डॉ. तुलसीराम, डॉ. एसपी सुमानाक्षर, डॉ. श्यौराज सिंह बेचैन, सूरजपाल चौहान, अनिता भारती, रजनी तिलक, डॉ. विमल थोराट, डॉ. सुशीला टाकभौरे, माताप्रसाद जी, रत्न कुमार सांभरिया, बुद्ध शरण हंस, डॉ. डीआर जाटव, मुसाफिर बैठा, डॉ. तेज सिंह, डॉ. एन सिंह जैसे सुविख्यात और प्रतिष्ठित दलित साहित्यकार दलित साहित्य के माध्यम से अपनी वैश्विक पहचान बना चुके हैं।

छठे दशक में भारतीय उपमहाद्वीप के अंतर्गत महाराष्ट्र में सबसे पहले दलित साहित्य एक आंदोलनकारी साहित्य के रूप में स्थापित हुआ, उसके बाद अन्य भारतीय भाषाओं में दलित साहित्य की विधिवत् शुरुआत हुई। ब्लैक लिटरेचर, ब्लैक पैंथर के माध्यम से अमेरिका तथा अफ्रीकी देशों में सबसे पहले आरंभ हुआ था, उसी तर्ज पर महाराष्ट्र में ‘दलित पैंथर’ के माध्यम से ‘दलित लिटरेचर’ का आगाज हुआ।

आरंभिक दौर में नामदेव ढसाल, राजा ढाले, दया पवार जैसे मराठी दलित साहित्यकारों ने साहित्य की दुनिया में तूफान ला दिया था। इसका प्रभाव अन्य भारतीय भाषाओं पर भी पड़ना स्वाभाविक था। प्रज्ञासूर्य बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने तथागत बुद्ध, निर्गुण संत शिरोमणि कबीरदास और जोतिबा फुले के विचारों को हृदयंगम कर भारतीय समाज में उथल-पुथल मचा दी थी। भारत में उनकी प्रेरणा और प्रभाव से ही दलित साहित्य का प्रादुर्भाव हुआ।

डॉ. आंबेडकर साहेब ने दलित शब्द का सबसे पहले प्रमुखता के साथ प्रयोग किया था। जून, 1925 ई. में उन्होंने ‘दलित वर्ग संगठन’ की बंबई में स्थापना की थी। इसी तरह बाबू जगजीवन राम ने भी सन् 1937 ई. में बिहार विधानसभा चुनाव में ‘दलित वर्ग लीग कांग्रेस’ नामक संगठन बनाकर अपने छह उम्मीदवार भी निर्विरोध जिताए थे। इसका संदर्भ, भारत सरकार द्वारा प्रकाशित ‘बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर संपूर्ण वाङ्मय-खण्ड 36’ में मिलता है। अतः यह कहा जा सकता है कि ‘दलित’ शब्द,  हमारे बाबासाहेब द्वारा भी अंगीकृत हुआ है।

हां, यह बात अलग है कि भारत के संविधान में ‘दलित जातियों को अनुसूचित जाति’ के रूप में मान्य किया गया है। कुछ विद्वानों का विचार है कि ‘दलित साहित्य’ को ‘आंबेडकरवादी साहित्य’ क्यों न कहा जाए, पर आंबेडकरवादी साहित्य कह देने से तो गैर दलित साहित्यकार भी इस परिधि में आ जाते हैं, भले ही वे आंबेडकर साहेब के जीवन दर्शन को न मानते हों, इसी तरह ‘बहुजन साहित्य’ भी अन्य पिछड़ा वर्ग का पर्याय है, जो कि संवैधानिक और सामाजिक रूप से एक अलग श्रेणी है।

अतः ‘बहुजन साहित्य’ ‘दलित’ शब्द का विकल्प कभी नहीं हो सकता। इसी तरह ‘बौद्ध साहित्य’ में भी किसी भी व्यक्ति का बौद्ध धम्म विषयक लिखा साहित्य समाष्टि होगा। यहां यह बात ध्यातव्य है कि बौद्ध धम्म और उससे संबंधित साहित्य, केवल दलितों की ही पहचान नहीं है, वह तो चीन, जापान, कोरिया तथा अन्य बौद्ध राष्ट्रों के नागरिकों द्वारा लिखे गए साहित्य का भी पर्याय है। अतः नाम बदलना, यह सब व्यर्थ का वितंडावाद मात्र है।

आज दलित साहित्य ने भारतीय भाषाओं में मुख्य विधा के रूप में अपनी अलग पहचान बना ली है। इससे सवर्ण साहित्यकार, खासकर मनुवादी द्विज साहित्यकारों का सिंहासन डोल गया, वे अपने कल्पना पर आधारित पौराणिक साहित्य को हाशिए पर खिसकते हुए देखने को अभिशप्त हो गए हैं। उनका लिखा हुआ पौराणिक एवं मिथकों पर आधारित रसवादी-कलावादी साहित्य, विमर्श मूलक साहित्य के उभार से अप्रासंगिक हो चुका है।

सवर्णों की साहित्यिक दुनिया, बाबासाहेब के मानवतावादी समता मूलक विचारों के समक्ष रेत की तरह ढह गई। निराला, प्रसाद, पंत, अज्ञेय और दुबे, तिवारी नामधारी साहित्यकार अब दलित साहित्यकारों के समक्ष बौने साबित होने लगे हैं, वे इससे चिढ़ कर दलित साहित्य को खारिज करने की नाकाम कोशिश में लग गए हैं, जिसे दलित साहित्यकारों ने पुरजोर तरीके से नकार दिया है। अब कुछ द्विज साहित्यकार, हमारे चार-छह नौसिखिए दलित लेखकों को अपने खेमे में शामिल कर दलित साहित्य का नाम बदलने की हास्यास्पद कोशिश में लगे हुए हैं।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस देश में ‘भारतीय दलित साहित्य अकादमी’ जैसी साहित्यिक संस्था बाबू जगजीवन राम जी के संरक्षण में 1986 ई. में स्थापित हुई थी, जो आज भारत की एक सुपरिचित ‘दलित साहित्य अकादमी’ है। मध्य प्रदेश के उज्जैन में भी ‘कालिदास अकादमी’ की तर्ज पर मध्य प्रदेश शासन द्वारा ‘मध्य प्रदेश दलित साहित्य अकादमी’ लगभग पच्चीस-छब्बीस साल से कार्य कर रही है। हाल ही में पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा कोलकाता में भी ‘पश्चिम बंगाल दलित साहित्य अकादमी’ का गठन किया गया है।

‘दलित दस्तक’ जैसी सुप्रतिष्ठित मासिक पत्रिका मा. अशोक दास जी के संपादन में दशकों से वैचारिक आंदोलन का प्रसार कर ही रही है। यह सब, दलित साहित्य के गौरव स्तंभ हैं, साथ ही दलित साहित्य की बढ़ती लोकप्रियता और जन स्वीकार्यता के प्रमाण भी हैं। हमारी इसी पृथक साहित्यिक पहचान को मनुवादी साहित्यकार अब पचा नहीं पा रहे हैं। इसमें हमारे कुछ वामपंथी साहित्यिक साथी भी हैं, जो कि दलित साहित्य के स्थान पर बौद्ध साहित्य, बहुजन साहित्य या फिर आंबेडकरवादी साहित्य नामकरण करने के लिए लालायित हैं।

यह ठीक उसी प्रकार का असफल प्रयास है जैसा कि ‘भारत’ को ‘हिंदुस्तान’ ‘आर्यवर्त’, ‘ब्रह्मदेश’, ‘सप्तसिंधु प्रदेश’ आदि नामों से प्रचारित किया जाता रहा है, जबकि हमारे देश का संविधान प्रदत्त हिंदी नाम ‘भारत’ और अंग्रेजी नाम ‘इंडिया’ है।

यहां एक बात और स्मरण रखना चाहिए कि भाजपा सरकार दलित शब्द को ही प्रतिबंधित करने की कोशिश में क्यों लगी हुई है? स्पष्ट है, मनुवादियों को दलित शब्द से भारी असुविधा हो रही है। दलित रहेंगे, पर दलित शब्द नहीं रहेगा, दलित समाज रहेगा, पर उनकी दशा और दिशा निर्धारित करने वाला दलित साहित्य नहीं रहेगा, हमारे कुछ दलित और वामपंथी लेखकों की मंशा तथा सरकार की मंशा, एक ही क्यों है? इसका कारण अवश्य खोजा जाना चाहिए। हम अब उस दौर में प्रवेश कर चुके हैं, जब हम अपने बच्चों का नामकरण अपनी मर्जी से ही करते हैं, किसी पंडित-पुरोहित से पूछ कर अब हम सब अपने बच्चों का नामकरण नहीं करवाते हैं। तब सरकार और भटके हुए दलित संगठन तथा दलित लेखक, दलित साहित्य का नया नामकरण क्यों करना चाहते हैं?

किसी संस्था-शहर या फिर स्थान का प्रचलित नाम बदलना, अभी भी खतरे से खाली नहीं है, इसलिए बिना वाजिब कारण के नाम परिवर्तन कतई उचित नहीं कहा जा सकता है। आजकल, सरकार द्वारा कई शहरों और संस्थाओं तथा मंत्रालयों के नाम, राजनीतिक एजेंडे के तहत बदले जा रहे हैं, जिसकी लगातार आलोचना भी हो रही है। योजना आयोग को नीति आयोग,  इलाहाबाद को प्रयागराज कर दिया गया है,  जो अब विवाद के बड़े मुद्दे बने हुए हैं।

क्या ऐसा ही विवाद दलित साहित्य के नाम पर तो नहीं किया जा रहा है? इसका उत्तर है, हां, यही विवाद खड़ा करने की नाकाम कोशिश की जा रही है। विमर्शों की दुनिया में ‘दलित विमर्श’ अर्थात् ‘दलित साहित्य’ का लगभग पिछले चार-पांच दशकों से परचम लहरा रहा है।

बोधिसत्व बाबासाहेब की वैचारिकी पर आधारित दलित समाज की अंतर्वेदना-आक्रोश तथा उत्पीड़न,  इच्छा-आकांक्षा को इस साहित्य में समाविष्ट किया गया है। इस समय वैश्विक पटल पर दलित साहित्य, सुर्खियां बटोर ही रहा है। देश-विदेश के तमाम विश्वविद्यालयों में दलित साहित्य का अध्ययन-अध्यापन और उस पर गंभीर शोध कार्य हो रहे हैं। सैकड़ों शोधार्थी, डॉक्टरेट कर अकादमिक दुनिया में अपनी धाक जमा चुके हैं।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, नई दिल्ली द्वारा सैकड़ों अध्यापकों तथा शोध अध्येताओं को शोध परियोजनाओं के नाम पर करोड़ों रुपये अनुदान के रूप में दिए जा चुके हैं, साथ ही सरकार द्वारा राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय शोध संगोष्ठियों के लिए भी लगातार वित्तीय अनुदान दिया जा रहा है। देश-विदेश के अनेक प्रतिष्ठित पुस्तक प्रकाशकों द्वारा दलित साहित्य का व्यापक प्रकाशन किया जा रहा है। देश-विदेश के पुस्तकालय, दलित साहित्य की पुस्तकों से अटे पड़े हैं। भारतीय भाषाओं की अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने बड़ी संख्या में दलित साहित्य पर केंद्रित विशेषांक प्रकाशित किए हैं।

दलित साहित्य ने हिंदी साहित्य के साथ ही भारतीय भाषाओं के साहित्य को जीवंतता प्रदान करने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। इस समय विदेशी भाषाओं में दलित साहित्य तथा अन्य विमर्श मूलक साहित्य की महत्वपूर्ण कृतियों के बड़ी संख्या में अनुवाद किए जा रहे हैं। कुल मिलाकर इस समय दलित साहित्य, साहित्य की दुनिया में केंद्रीय विधा के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका है। इस साहित्य के माध्यम से भारतीय समाज को संविधान के अनुरूप ढालने की भरपूर कोशिश जारी है। ऐसे वक्त में दलित साहित्य के नामकरण को लेकर भ्रम फैलना तथा कृत्रिम बहस चलाने की नाकाम कोशिश करना अप्रासंगिक है।

एक अपने व्यक्ति ने ही मुझसे कहा, ‘‘सर जी, अब तो हम दलित नहीं हैं, हमें दलित शब्द, अपमानजनक लगता है, इसलिए इसका नाम बदल दिया जाए।’’ मैंने उनसे कहा है कि आपके पिता जी का क्या नाम है? उन्होंने बताया कि मेरे पिता जी का नाम कड़ोरे लाल है। मैंने पूछा और आपके दादा जी का नाम क्या है? वे बोले मेरे दादा जी नाम राम गुलाम है। मैंने उनसे पलट कर कहा कि क्या आपको यह नाम सम्मानजनक लगते हैं? क्या आपके पुरखों ने इस तरह के अपमानजनक नाम स्वयं ही रखे होंगे? वे बोले नहीं, इस तरह के नाम मनुवादियों ने ही रखे थे। तो मैंने कहा कि क्या आप इन नामों को बदल सकते हैं?

वे बोले नहीं अब तो बदलना असंभव है। मैंने कहा क्यों? उनका उत्तर था, सर जी, उनके नाम पर जो खेती योग्य जमीन तथा अन्य चल-अचल संपत्ति है, उसमें उनका यही नाम दर्ज है, यदि हम नाम बदलेंगे तो उस सबसे बेदखल हो जाएंगे। तब मैंने कहा कि ठीक यही हाल इस समय ‘दलित साहित्य’ का नाम बदलने से हो जाएगा। आप अपनी अब तक की उपलब्ध साहित्यिक विरासत से बेदखल हो जाएंगे।

मैंने उनसे अपना नाम बताते हुए कहा कि देखो, मेरा नाम ‘काली चरण’ है। मेरे पोते-पोतियां कहते हैं कि दादा जी, आप तो काले नहीं हैं, न ही आप, काली माता को मानते हैं। आप एक प्रोफेसर भी हैं, आपका यह नाम हमें अच्छा नहीं लगता है। अब बताओ, मैं उन्हें क्या उत्तर दूं? वैसे सच्चाई यह है कि मेरा गोरा बदन देख कर उस समय के मेरे कक्षा एक के स्कूली ब्राह्मण अध्यापक ने ईर्ष्यावश मेरा नाम ‘गोरे लाल’ न लिखकर कालीचरण लिख दिया था, जबकि मेरे पिता जी यह नाम नहीं लिखाना चाहते थे।

मेरे एक कट्टर आंबेडकरवादी मित्र हैं, राम गुलाम जाटव, वे रेलवे में बड़े अधिकारी हैं। वे राम और राम चरित्र, दोनों को कतई पसंद नहीं करते हैं, हां, उन्होंने अपने नाम को अंग्रेजी के ‘आरजी’ अक्षरों से ढंकने की कोशिश जरूर की है, पर उनके सरकारी अभिलेखों में तो राम गुलाम ही है तथा उनके जानने वाले उन्हें राम गुलाम के नाम से ही जानते-पहचानते हैं। आरजी कहने पर उनके लोगों को बड़ा ही अटपटा लगता है।

कुछ लोगों के नाम में व्याकरणिक दोष होता है, पर वह उनकी हाईस्कूल की अंक तालिका में अंकित हो चुका होता है, इसलिए एक समय-सीमा के बाद वे उसे नहीं बदल सकते हैं। जबकि ‘दलित साहित्य’ नामकरण तो हमारे साहित्यिक पूर्वजों ने सुविचारित तरीके से ही रखा है, इसे अब हम नहीं बदल सकते हैं। अब यह नाम, हमारे दलित समुदाय के अस्तित्व और अस्मिता का प्रतीक बन चुका है, अब हमारे साहित्य की वैश्विक पहचान, दलित साहित्य के रूप में ही स्थापित हो चुकी है, ऐसे में अब इसको कोई नया नाम देना पूरी तरह से असंभव और औचित्यहीन है।

(प्रो. कालीचरण ‘स्नेही’ लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं और दलित साहित्य समेत कई विषयों पर आपने किताबें लिखी हैं।)

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