अथ संघ सरेंडर गाथा: आँखों देखा इमरजेंसी अध्याय

संघ के संग सरेंडर की संलग्नता सनातन है। यह इतनी सतत और सुदीर्घ है कि हिंदी के व्याकरण में एक अक्षर से शुरू होने वाले शब्दों के अलंकारों में एक नया अलंकार सृजित कर सकती है। यह सरेंडर दक्षता 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक के कुख्यात आपातकाल में पूरे परवान पर थी। तत्कालीन सरसंघचालक बाला साहब देवरस की इंदिरा गांधी को लिखी कातर स्तुति से भरी बिना शर्त समर्पण की चिट्ठियों के बारे में “विरोध का पाखंड: 1975 की इमरजेंसी के साथ खड़ा था संघ और जनसंघ” में विस्तार से लिखा जा चुका है।

सत्ता के चरणों में पूरी कातरता के साथ इनका शीर्ष इस हद तक लंबायमान था कि लिखापढ़ी में चारण और भाट बना हुआ था-‘याचना’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर रहा था। जब बुर्ज पर विराजमान खलीफा की हिलायमानता इस हद तक कंपायमान थी, तो नीचे की भुरभुरी ईंटों की चलायमानता कैसी रही होगी, इसे समझा जा सकता है।

मीसा में पूरे आपातकाल ग्वालियर जेल में रहने के चलते इन पंक्तियों के लेखक ने इस कुनबे की हताशा, निराशा, कायरता की सरेंडर गाथा के इमरजेंसी अध्याय को अपनी आँखों से देखा है। इन्हें #बैरक नंबर 10 बटा 4 सेंट्रल जेल ग्वालियर के नाम से संस्मरणों के रूप में दर्ज भी किया है। इनमें से दो-तीन वाकयों का संपादित रूप यहाँ प्रस्तुत है।

माफीनामों से ओवरफ्लो हुआ पोस्ट-कनस्तर

जेल से डाक भेजने के लिए परंपरागत लाल डिब्बा नहीं था-उसकी जगह एक कनस्तर, टिन की एक पतली चादर का 2 बाय 3 अनुपात का डब्बा इस्तेमाल होता था। यह कैंपस के लिए नियुक्त हेयर ड्रेसर की अठपहलू कटिंग “शॉप” की खिड़की पर रखा रहता था। रोज़ सुबह खाली होने जाता था-तुरंत लौट आता था।

कनस्तर की निकटतम अंग्रेजी “कंटेनर” है, जो उस छवि के बिंब को अभिव्यक्त करने के लिए नाकाफी है, जो कनस्तर सुनते ही दिमाग में उभरता है। बहरहाल, अचानक एक दिन देखा कि कनस्तर एक की जगह दो कर दिए गए हैं। पूछताछ की तो पता चला कि चिट्ठियाँ इतनी ज़्यादा तादाद में लिखी जाने लगी थीं कि बेचारा एक कनस्तर ओवरफ्लो होने लगा था।

जेल नियमों के हिसाब से हर मीसा बंदी को एक सप्ताह में दो पोस्टकार्ड मिलते थे। इस हिसाब से भी डिब्बे के ओवरफ्लो होने की कोई गुंजाइश नहीं थी। डाक मुंशी से पूछा तो उन्होंने मज़े लेते हुए बताया, “रोज़ इंदिरा गांधी और संजय गांधी के लिए लंबी-लंबी चिट्ठियाँ भेज रहे हैं तुम्हारे ये नेता। दिन में दो-दो बार भेज रहे हैं माफीनामा।”

हमारी बैरक नंबर 10/4, फर्स्ट फ्लोर की बैरक थी। ठीक हमारी खिड़की के सामने से नीचे दिखाई देते थे कनस्तर-पोस्टबॉक्स! देखरेख शुरू की-पाया कि रात 11 बजे फलाने जी चले आ रहे हैं, तो साढ़े ग्यारह बजे ढिकाने जी। लाइन लगाकर इतने माफीनामे अर्पित हो रहे हैं कि लाज से झुके जा रहे हैं कनस्तर जी।

कुल मिलाकर, हम सीपीएम वालों, जिनमें 5 किशोर से युवा होते भी शामिल थे (कामरेड शैलेंद्र शैली पूरे 18 वर्ष के भी नहीं हुए थे, बाकी 4 भी 19 से 21 वर्ष के बीच के थे), उन्हें तथा कुछ समाजवादियों और एक-दो सर्वोदयियों को छोड़कर पूरी जेल में ऐसा एक भी नहीं बचा था, जिसने इस शरणागत होने के राज़दार और माफीनामों के मेघदूत कनस्तर की गटर में बार-बार डुबकी न लगाई हो। पूरी जनसंघ-आरएसएस बरास्ते कनस्तर इंदिरा गांधी और संजय गांधी की शरण में पड़ी थी।

हम युवाओं को चुहल का नया मसला मिल गया था। एक दिन बातों-बातों में हवा फैला दी कि इंदिरा गांधी या संजय गांधी को चिट्ठी भेजने से क्या होगा? ना वे उन तक पहुँचेगी, ना वे पढ़ेंगे। भेजना है तो डॉ. धर्मवीर (तबके जिला कांग्रेस के नेता और उन दिनों की गुंडा-वाहिनी सेठी ब्रिगेड के संरक्षक, जो बाद में भाजपा के विधायक भी हुए), परिहार (युवा कांग्रेसी, जिनकी हैसियत उस जमाने में ग्वालियर के संजय गांधी जैसी थी), या विजय चोपड़ा (लोकल जगदीश टायटलर) को भेजो। उनकी सिफारिश ही चलेगी। घबराए हुए संघी कुनबे में यह गप्प ऐसी हिट हुई कि पता लगा कि उनके नाम से भी पत्र जाना शुरू हो गए!

चिट्ठी-सरेंडर सावरकर साहब के ज़माने से चल रहा है। उन्होंने मलिका-ए-बर्तानिया के हुज़ूर में 5 लिखी थीं और उनमें किए गए स्वतंत्रता संग्राम में फिर कभी हिस्सा न लेने के वचन को निभाया। 1948 के प्रतिबंध में भी संघ ने चिट्ठी-सरेंडर आज़माया था। इमरजेंसी कैसे छूट जाती? आगे भी ज़रूरत पड़ी तो अमल में लाया जाएगा।

वो यादगार खौफनाक रात, रुदन की चीत्कार, आँसुओं की बरसात

कुछ भ्रष्टाचार, कुछ जेल प्रशासन की निरंकुशता के चलते लंबित समस्याएँ ढेर सारी हो गई थीं। कुछ तनाव नए आए एक खुर्राट जेलर के अंग्रेजों के ज़माने की जेलरी दिखाने की वजह से पसर गया था। यह जेलर अपने आपको संजय गांधी से भी अधिक इंदिरा गांधी का समर्थक समझता था। हालात इतने बिगड़ चुके थे कि जेल अधिकारियों के साथ हर सप्ताह होने वाली मीटिंग बंद थी, जेल ऑफिस यहाँ तक कि अंदर के अस्पताल जाने पर भी अघोषित रोक-सी लगा दी गई थी।

इन हालात में सुबह-शाम की नारेबाज़ी या सामूहिक भूख हड़ताल भी काम नहीं आ रही थी। कुछ बड़ा करना ज़रूरी था। रास्ता ढूँढ़ने का ज़िम्मा आंदोलनसिद्ध सीपीएम वालों के साथ कुछ लोहियावादी–समाजवादियों पर आया और तय हुआ कि हुकुमचंद कछवाय साहब को मनाया जाए और उन्हें अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बिठाया जाए। कछवाय जी ग्वालियर जेल में बंद दो सांसदों में से एक थे, वे तब उज्जैन से जनसंघ से लोकसभा सदस्य थे। थे तो शेजवलकर भी, ग्वालियर से सांसद, मगर उन्हें शीशे में उतारना असंभव था।

कछवाय जी की दो खासियतें थीं: एक तो वे शुरू में कभी उज्जैन के एक कपड़ा कारखाने के मज़दूर रहे थे-मज़दूर नेता भी रहे थे। लिहाज़ा उनके तेवरों में मज़दूरवर्गी झंकार थी। दूसरा यह कि वे द्विज नहीं थे, दलित थे। इसलिए उनके अपने राजनीतिक कबीले में उनका कोई ज़्यादा महत्व नहीं था।

धीरे-धीरे हम लोगों ने कछवाय जी के साथ बैठना और उन्हें समस्याओं, जेल प्रशासन की हेंकड़ी और उनकी सांसदी की हैसियत का अहसास दिलाना शुरू किया। उनकी भूख हड़ताल किस तरह से अंतरराष्ट्रीय असर डालेगी (डाला भी, बीबीसी ने उसे आठों दिन कवर किया), यह बताना शुरू किया। लुब्बोलुबाब यह कि दो दिन की काउंसलिंग काम आई और सांसद हुकुमचंद जी कछवाय आमरण अनशन पर बैठ गए।

कछवाय जी के इस एलान से खुद उनकी पार्टी के वरिष्ठ नेता सदमे में थे-जेल प्रशासन हतप्रभ था। पाँचवें दिन कछवाय जी की स्थिति बिगड़ी तो उन्हें जेल अस्पताल ले जाने को लेकर भी झंझट हुआ। ‘बड़े नेताओं’ की सहमति से जेल अस्पताल ले जाने के लिए रज़ामंदी तो दे दी गई, मगर इस शर्त के साथ कि हमारे दो वॉलंटियर्स भी साथ जाएँगे। उन वॉलंटियर्स से कहा गया कि जैसे ही जेल प्रशासन या सरकार कोई हरकत करे, वे नारे लगाकर बाकी सबको सूचित करें।

आठवें दिन देर रात करीब 11 बजे अचानक अस्पताल से नारों की आवाज़ आई। हम चार-पाँच कामरेड्स अपनी बैरक में चाय पीते हुए शायद शतरंज या ब्रिज खेल रहे थे। जैसे ही नारों की आवाज़ सुनी, वैसे ही बाकी जेल हम युवाओं के नारों से गूँजने लगी। जुगलबंदी-सी शुरू हो गई। हमारी बैरक ऊपर की बैरक थी, इसलिए आवाज़ें भी पूरी जेल में गूँजी। उसके बाद जो हुआ, वह सचमुच में दिल दहलाने वाला था। हमारी बैरक सहित बाकी बैरकों के मीसा बंदी कीक (घबराहट और भय में निकलने वाली चीख) मारकर उठे और उनमें से ज़्यादातर बदहवासी में एक-दूसरे से लिपटकर रोने भी लगे।

हम बच्चों के लिए यह सचमुच बहुत ही खौफनाक नज़ारा था। हम लोग तुरंत उनके बीच फैल गए और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाकर समझाने लगे कि कुछ नहीं हुआ है-कछवाय जी को जेल अस्पताल से शहर के अस्पताल ले जाया जा रहा है। एक घंटा लग गया-हालात को सामान्य करने में! यह अनुभव बहुत दारुण था। दो दिन बाद जाकर हालात इतने सामान्य हुए कि ऐसा होने की वजह पूछी जा सके-मालूम पड़ा कि यह, कुछ ही दिन पहले, 3 नवंबर 1975 को ढाका की जेल में बांग्लादेश के उपराष्ट्रपति और अन्य अवामी लीग के नेताओं को मिलिट्री द्वारा भून दिए जाने और बाकी राजनीतिक बंदियों को संगीनों से भोंक-भोंक कर मार दिए जाने की खबर का असर था। हम लोगों के नारे सुनकर सोए हुए ज़्यादातर संघी मीसा बंदियों को यही लगा कि इंदिरा गांधी भारत की जेलों में ढाका दोहरा रही है।

इस रात को पता चला कि डर तो सबको लगता है, असल वह वैचारिक तैयारी होती है, जो यह शऊर और सलीका देती है कि उसे कैसे अभिव्यक्त किया जाए, उससे कैसे उबरा जाए-डर को किस तरह आक्रोश में रूपांतरित किया जाए।

तीनों डिब्बे घी में और सिर शर्मिंदगी में!

ज़्यादातर मीसा बंदी, करीब दो-तिहाई, बी क्लास के कैदी थे। जो नहीं थे, उन्हें बाकी में एडजस्ट कर लिया जाता था। बी क्लास का मतलब हर छह महीने में दो जोड़ी खादी भंडार के नए कुरते-पाजामे, सर्दी में पूरी बाँह के स्वेटर, हर दो-तीन माह में एक तौलिया आदि की प्राप्ति। नहाने के लिए सप्ताह में एक लाइफबॉय और कपड़े धोने के लिए सनलाइट के साबुन की बट्टी। लगाने के लिए हर रोज़ 20 ग्राम सरसों का तेल। खाने की खुराक समुचित से अधिक पर्याप्त थी। इस प्रसंग में जो खुराक का हिस्सा ज़रूरी है, वह रोज़ प्रति व्यक्ति 35 ग्राम शुद्ध देसी घी का है। अलग-अलग मेस के हिसाब से इकट्ठा लाया जाता था।

बाहर से आने वाले सामान की कम-से-कम तीन जगह चेकिंग होती थी। मगर अंदर से बाहर जाने वाले सामान, जो अमूमन खाली डब्बे, झोले-वोले होते थे, की जाँच सामान्यतः नहीं होती थी। मगर मर्फी के नियमों में से एक नियम के मुताबिक, जिसके होने की रत्ती भर भी संभावना है, मानकर चलना चाहिए कि वह होगा ही। सो, हो गया मर्फी के नियम का जादू और उस दिन बाहर से आने वाली मुलाकात के साथ आने वाले सामान की जाँच के साथ बाहर जाने वाले सामान-डब्बों, थैलों-की भी जाँच हो गई! इस जाँच में तीन डब्बे उस देसी घी से भरे निकले, जो दरअसल खाने के लिए दिया जाता था। दो बड़े-बड़े थैले लाइफबॉय साबुन की बट्टियों से भरे थे। अपने परिजनों के हाथ घर भेज रहे थे।

जिन नेताजी के पास से यह जब्ती-बरामदगी हुई थी, वे उस समय जनसंघ के बड़े और सम्मानित नेता थे। लोकप्रिय भी थे। वह दिन उनके लिए पुण्यत्व हासिल करने का दिन था। वे संघ-जनसंघ की मुख्य मेस के कर्ता-धर्ता थे, सो चम्मच-चम्मच करके जो घी जुटाया भी होगा, वह अपने बंधु-बांधवों की कटोरी में से ही बचाया होगा। अपना क्या! हम लोगों की एकमात्र और तीव्र जिज्ञासा लाइफबॉय साबुन को लेकर थी। लोगों को सप्ताह भर के लिए एक साबुन कम पड़ जाता था-आखिर ऐसे कौन थे, जिनके साबुन बच जाते थे-फिर भैया जी उन्हें जोड़-जोड़कर छुपाते कहाँ रहे होंगे? जो हो, यह उनकी उस दिन की क्रिया रिहा होने तक उनकी संज्ञा बनी रही। अस्पताल जाएँ तो स्टाफ बोले, गेट पर जाएँ तो गार्ड बताए: घी चोर।

ये सज्जन शहर के रईसों में से एक थे। शहर के सबसे महँगे बाज़ार में उनकी दुकान थी, जो खूब चलती थी। कई संस्थान और भी थे। उनका यह कृत्य उनकी आर्थिक आवश्यकता का नहीं, लोभ, लालच, जैसे भी हो वैसे-भले अपनों की ही रोटी या उसकी चुपड़न चुराकर-खुद हड़प लेने की गलीज़ इच्छा की रिसन का प्रतीक था। इसका सीधा ताल्लुक उस सोच से था, जो आपके दिमाग में भरा हुआ है-उस दिशा से, जिस पर आप चल रहे हैं, उस लक्ष्य से, जिसे आप हासिल करना चाहते हैं।

यह संयोग नहीं है कि इसी वंश की विषबेल जब से केंद्र और जिन-जिन राज्यों में सत्तासीन हुई है-चोरी, भड़ियाई और भ्रष्टाचार के नए और अब तक अकल्पित मौलिक उदाहरण सामने आए हैं। तो ये हैं असली संस्कार-जिनके ज़रिए घी चोर, साबुन चोर बनाएंगे नया राष्ट्र।

भय के मारे छाप तिलक सब छोड़ी

सीपीएम और समाजवादी धारा के मीसा बंदी जेल परिसर में मई दिवस पर जुलूस निकालते थे, अक्टूबर क्रांति का जश्न मनाते थे, भगत सिंह के दिन से लेकर लक्ष्मीबाई के दिन तक हर दस-एक दिन में कभी इस तो कभी उस बहाने सभाएँ करते थे। मगर संघी कुनबे में इंदिरा गांधी से भय और डर इतना ज़बरदस्त था कि तीन सौ से अधिक की तादाद में होने के बाद भी इमरजेंसी की जेल की पूरी अवधि में न कभी शाखा लगाई, न विजयादशमी का चल-अचल समारोह किया, न किसी गुरु को याद किया।

सरकारी प्रश्रय में उत्पात करना, नफरती मुहिम चलाकर लोगों को उन्मादी बनाना और उनके ज़रिए फसाद कराना अलग बात है-दमन के मुश्किल दौर में अडिग खड़े रहना दूसरी ही बात है और यह तभी आता है, जब विचारधारा सच्ची हो और उसके साथ हुई परवरिश अच्छी हो। जब यह दोनों ही गैरहाज़िर हों, तो नाखून कटाकर शहीद बनने के स्वांग के सिवा कोई चारा नहीं बचता। इमरजेंसी की आधी सदी पर संघी कुनबे का पाखंड इसी की-एक और-मिसाल है।

(बादल सरोज लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं)

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