पटेल राष्ट्रीय आंदोलन के सरदार ही नहीं,मौजूदा राजनीति में असरदार भी हैं !

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उपेन्द्र चौधरी

आज़ादी से पहले कांग्रेस विचारधाराओं के स्तर पर एक समन्वयवादी राजनीतिक संगठन थी। यह संगठन विचारों का एक ऐसा संगम था,जहां विचारों की अनेक धारायें आकर मिलती थीं। यहां प्रगतिवादियों के लिए उतनी ही जगह थी,जितना कट्टरवादियों के लिए स्थान और इन दोनों के बीच में जो कुछ होता है, वह सब कुछ यहां मौजूद थे। यही कारण है कि यहां गांधी थे, सुभाष थे और आरएसएस के संस्थापक हेडगेवार भी थे।

लेकिन आज़ादी के बाद कांग्रेस का चरित्र बदला। संगठन से एक राजनीतिक पार्टी बन गयी और धीरे-धीरे एक ऐसी राजनीतिक पार्टी में उसका विकास हुआ,जो एक ही परिवार की खींची गयी रेखाओं पर चलने को अभिशप्त होने लगी। ठीक वैसे ही,जैसे आज लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव, डीएमके या एडीएमके जैसी पार्टियां अपने परिवार की लीक पर चलने को अभिशप्त हैं। इन पार्टियों के नेतृत्व की पहली पीढ़ी संघर्ष के बूते राजनीति में आयी थी, लिहाजा वो उन नेताओं को याद ज़रूर करती रही,जिनसे वह पीढ़ी विचारों के स्तर पर पोषित और पल्लवित हुई थी। मगर दूसरी पीढ़ी ने अपने पिता-माता या रिश्तेदारों को ही माइलस्टोन माना। 

बेशक,इसकी शुरुआत कांग्रेस से हुई और फिर उन पार्टियों ने उसी लीक को अपना लिया,जिसका विरोध करके क्षेत्रीय पार्टियां सत्ता में आयी थीं। इस मायने में बीजीपी आज भी अलग है।लेकिन बीजेपी की सबसे बड़ी समस्या यही रही है कि उसके पास कोई ऐसा नेता नहीं रहा है,जिसका क़द,बीजेपी की विचारधारा के क़द को उस ऊंचाई तक ले जाय,जिस ऊंचाई वाले नेता बाक़ियों के पास है। बीजेपी की इस समस्या का समाधान कांग्रेस ने ही कर दिया। कांग्रेस ने परिवारवाद की लीक से उन नेताओं को दरकिनार करना शुरू कर दिया,जिनका योगदान बड़ा ही नहीं,बल्कि बहुत बड़ा रहा है।

दरकिनार किये गये राष्ट्रीय नायक सही मायने में भारत के सामाजिक और राजनीतिक घटनाक्रम के हिसाब से ‘ग्रैंड चेंजर’ थे। मगर सड़कों से लेकर योजनाओं तक के नाम से ये नदारद होते रहे। यहां तक फ़िल्मों में आये राष्ट्रीय गीतों में भी उन्हें वह जगह नहीं मिली,जिसके वो वास्तविक हक़दार थे। इन गीतों में भी लगातार गांधी,नेहरू और कभी-कभार बोस और लालबहादुर शास्त्री रिपीट होते रहे। सामाजिक न्याय के प्रतीक अम्बेडकर और राष्ट्रीय एकीकरण के प्रतीक बन चुके सरदार पटेल बहुत हद तक यहां से भी नदारद रहे। 

बीजेपी ने इन्हीं दरकिनार किये गये ग्रैंड ‘चेंजर’ नेताओं को अपना लिया। इन नेताओं के ज़रिये बीजेपी न सिर्फ़ अपनी जड़ें स्वतंत्रता संग्राम में धीरे-धीरे स्थापित करने में सफल होने लगी है,बल्कि एक राजनीतिक पार्टी के रूप में कांग्रेस पर ज़ोरदार हमला करने के एक हथियार के रूप में भी इस्तेमाल कर रही है। कांग्रेस ने अपनी परिवारवादी राजनीति से बीजेपी को अपने समानांतर खड़ा करने में मदद कर दी है। बीजेपी ने इस मौक़े का बहुत ही शानदार तरीक़े से इस्तेमाल किया है। संयोग से 31 अक्टूबर ही वह तारीख़ है, जिस दिन 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या हुयी थी और सरदार पटेल का 1875 में जन्म हुआ था। यह तारीख़ कुछ-कुछ 2 ऑक्टूबर की तरह ही है,इसी दिन महात्मा गांधी और लालबहादुर शास्त्री दोनों का जन्मदिवस है।

जिस तरह 2 अक्टूबर शास्त्री के जन्मदिन के बजाय गांधी के जन्मदिन की तरह ज़्यादा देखी-सुनी जाती है। ठीक उसी तरह,बीजेपी का प्रयास है कि 31 अक्टूबर को इंदिरा गांधी के शहादत दिवस से कहीं ज़्यादा सरदार पटेल को याद किये जाने की तारीख़ के रूप में जाना जाय। 

हर वाद-विवाद और घटनाक्रम को इवेंट में बदल देने में माहिर मोदी ने बीजेपी की तरफ़ से इस अहसास को गहरा करने के लिए सरदार पटेल के योगदान को लगातार बहस का मुद्दा बनाया है। सरदार को सुर्खियों में लाकर बीजेपी कांग्रेस के बरक्स एक नयी रेखा खींचने की तरफ़ कामयाब होती दिख रही है। सरदार पटेल की 182  मीटर ऊंची मूर्ति की स्थापना उस गहराई को और पक्का करने की कोशिश है। इस कोशिश की आलोचना उसी तरह की जा सकती है,जिस तरह जनता के विकास के पैसों को ख़ुद मायावती की अपनी,उनके राजनीतिक गुरु कांसीराम और पार्टी प्रतीक हाथियों की मूर्तियां बनवाने में अरबों रुपये खर्च कर दिये गये।

वहीं बेरोज़गारी और अर्थव्यवस्था की ख़स्ताहाली के बीच सरदार की मूर्ति लगभग 3,000 करोड़ रुपये ख़र्च कर दिये गये हैं। अपनी ज़मीदारी और चमकते बैरिस्टरी वाले करियर को राष्ट्रसेवा में छोड़ देने वाले और चमचमाते सूट-बूट का त्यागकर मामूली धोती-कपड़े तक में अपना काम चला लेने वाले सरदार पटेल को भी अपनी मूर्ति पर इतनी बड़ी रक़म खर्च किया जाना नामंज़ूर होता। मगर सरदार के व्यक्तित्व की पुनर्स्थापना से भला कौन अपने नाक-भौं सिकोड़ सकता है ? हार्दिक पटेल भी नहीं ? ये सवाल आगे आने वाले दिनों की राजनीतिक दिशा की तरफ़ कई इशारे देते हैं।

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