हाल ही में, 21 दिसंबर 2021 को, संसद में एक क़ानून पास किया गया जिसके प्रमुख प्रावधान के तहत वोटर कार्ड को ‘आधार’ से लिंक किया जाएगा। इस क़ानून को चुनाव क़ानून (संशोधन) विधेयक 2021 के नाम से जाना जाएगा। आइए, देखते हैं कि ‘आधार’ की बढ़ती भूमिका हमारी ज़िंदगी में क्या बदलाव लाई है, अध्ययन करने वाले लोग इसे कैसे देखते हैं और इस नए क़ानून को लेकर हमें क्यों फ़िक्रमंद होना चाहिए।
अध्ययनों व आँकड़ों के आइने में ‘आधार’ के दावे
28 फ़रवरी 2020 को ‘द हिंदू’ में Aadhaar, no standout performer in welfare delivery (आधार, लोगों तक कल्याण योजनाओं के लाभ पहुँचाने में कोई कमाल नहीं है) के नाम से प्रवीण चक्रवर्ती का एक लेख छपा था। इस लेख में उन्होंने एक अध्ययन के आधार पर समझाया कि ‘आधार’ द्वारा जनता के पैसों की बर्बादी रोकने और फ़रेब पकड़ने के दावे सही साबित नहीं होते हैं। ख़ास बात यह है कि लेखक पहले न सिर्फ़ ‘आधार’ के कट्टर पैरोकार थे, बल्कि 2010 में ख़ुद ‘आधार’ टीम के सदस्य रह चुके हैं! 2017-18 की अपनी वार्षिक रपट में UIDAI (‘आधार’ की संस्था) ने दावा किया कि ‘आधार’ की मदद से सरकार को 90,000 करोड़ रुपये की बचत हुई है। ‘आधार’ को शुरु करते वक़्त ये कहा गया था कि भारत हर साल विभिन्न जन कल्याण योजनाओं में लगभग 3 लाख करोड़ रुपये ख़र्च करता है जिसमें से 30-40% झूठी पहचान या डुप्लीकेट लाभार्थियों के चलते लीक हो जाता है। ये दावा किया गया कि विशिष्ट बायोमेट्रिक पहचान से ये चोरी रुक जाएगी। प्रोफ़ेसरान कार्तिक मुरलीधरन, पॉल नीहाउस और संदीप सुकठणकर ने इन दावों को परखने के लिए एक अध्ययन किया है (https://bit.ly/2T2wSe8)।
उन्होंने झारखंड में राशन लेने वाले डेढ़ करोड़ लोगों के बारे में एक अध्ययन किया। लोगों को दो समूहों में बाँटा गया जिसमें से एक ‘आधार’ का इस्तेमाल करके राशन लेता था और दूसरा पुराने तरीक़े से। उन्होंने पाया कि ‘आधार’ बर्बादी/लीक रोकने पर कोई असर नहीं डालता है। इसके उलट उन्होंने पाया कि ‘आधार’ की मदद से राशन लेने वाले लोगों का ख़र्चा बढ़ गया! 40 रुपये का राशन लेने के लिए ‘आधार’ इस्तेमाल करने वालों को, अन्य लोगों की तुलना में, 7 रुपये अलग से ख़र्च करने पड़ रहे थे – केंद्र पर बायोमेट्रिक पहचान साबित करने के लिए कई चक्कर लगाने और इस खोये वक़्त की क़ीमत के रूप में।
हालात तब और बुरे हो गए जब ‘आधार’ वाले तरीक़े में असल हक़दार/पात्र लोगों को ग़लत ढंग से राशन से बेदख़ल कर दिया गया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि या तो उनका राशन कार्ड ‘आधार’ से लिंक नहीं था या फिर बुढ़ापे, बीमारी व मेहनत के खुरदुरे हाथों के चलते मशीन उनकी पहचान नहीं कर पा रही थी। प्रोफ़ेसरान इस नतीजे पर पहुँचे कि जहाँ एक तरफ़ ‘आधार’ से जनता के पैसे की कोई बचत नहीं हुई, वहीं दूसरी तरफ़ इससे 10% असल हक़दारों को राशन से वंचित होना पड़ा और जिन्हें मिला भी उन्हें इसके लिए 17% अधिक क़ीमत चुकानी पड़ी। साफ़ है, UIDAI और सरकार का दावा कोरी बकवास है। ये नतीजे भारत में नीतियाँ बनाने के तरीक़े पर भी गंभीर सवाल खड़े करते हैं। डुप्लीकेट लाभार्थी और कल्याणकारी योजनाओं में लीक की समस्या के दावों को कभी परखा ही नहीं गया, बल्कि इसे केवल इसलिए सच मान लिया गया क्योंकि भारत का संपन्न, राज करने वाला तबक़ा ऐसी रट लगा रहा था।
फिर मीडिया के माध्यम से लोगों के बीच एक कहानी गढ़ी गई और ग़लत-सलत तरीक़े से ‘आधार’ का क़ानून बना दिया गया। अब कई अध्ययन ये साबित कर चुके हैं कि जिस भी स्तर पर लीक है भी, उसके पीछे प्रमुख कारण डुप्लीकेट और आम लोगों द्वारा फ़रेब करना नहीं है। क्या समझदारी की बात ये नहीं होती कि पूरे देश पर एक क़ानून थोपने से पहले एक जगह पर एक अध्ययन करा लिया जाता? ‘आधार’ के इस अध्ययन की बिना पर प्रवीण नीति निर्माण का एक और नुक़्स सामने लाते हैं। वो कहते हैं कि एक लोकतंत्र में नीतियाँ इंजीनयरों के तौर-तरीक़ों से नहीं बनाई जा सकतीं। एक इंजीनयर की नज़र में वो नीति कामयाब हो सकती है जिसकी वजह से 1000 लोगों को कारगर रूप से लाभ हो रहा है, भले ही उससे 10 लोगों का वंचित होना तय हो, मगर एक मानवीय व संवेदनशील लोकतांत्रिक समाज में ऐसी नीतियाँ लागू नहीं की जाएँगी जिनसे, छोटी संख्या में ही सही, हक़दारों का हक़ मारा जाता हो। ‘आधार’ इंजीनयर की नज़र से बनाया गया है, मानवीय संवेदना से नहीं।
30 दिसंबर 2021 को द हिंदू में ही छपे एक अन्य लेख The efficiency myth of Aadhaar linking (‘आधार’ लिंकिंग के फ़ायदों का मिथक) में लेखक राजेंद्रन नारायणन आँकड़ों व अध्ययनों की बिना पर ‘आधार’ के कार्यकुशल होने के दावों की पोल खोलते हुए वोटर कार्ड को ‘आधार’ से लिंक करने के लिए बनाए गए क़ानून के ख़तरे को सामने लाते हैं। केंद्र सरकार ने लगातार ‘आधार’ से होने वाली बचत के दावे किए हैं। जबकि इन दावों को ज्याँ द्रेज़ और ऋतिका खेड़ा सहित कई अध्ययेताओं ने ग़लत साबित किया है, सरकार टस-से-मस नहीं हुई है। सरकार के एक दावे के अनुसार ” ‘आधार’ की बदौलत मार्च 2021 तक मनरेगा (ग्रामीण रोज़गार गारंटी क़ानून) में कुल मिलाकर लगभग 33,475 करोड़ रुपये की बचत हुई है।” इस बारे में सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत अर्ज़ियों के जवाब ग़ौर करने लायक़ हैं।
एक में सरकार ने कहा कि “मंत्रालय संभावित डीबीटी बचत के बारे में डीबीटी मिशन पर इस अंदाज़े से रपट पेश करता रहा है कि साल का 10% वेतन बचता होगा।” एक अन्य जवाब में कहा गया था कि बचत की संख्या बेहतर कार्यकुशलता और वेतन के भुगतान में देरी में आई कमी का नतीजा है। इसका साफ़ मतलब है कि बचत के ये दावे महज़ अनुमान या कल्पना हैं। लेखक बताते हैं कि असल में तो मनरेगा में देर से वेतन का भुगतान होना एक बड़ी समस्या है। लिबटेक इंडिया द्वारा 2021-22 के पहले हिस्से के 18 लाख से अधिक मनरेगा भुगतानों का विश्लेषण किया गया। इनमें से 71% भुगतान ख़ुद सरकार द्वारा तय समय के बहुत बाद हुए थे। इन 18 लाख में से 7 लाख भुगतान ‘आधार’ की मदद से हुए थे, जबकि 11 लाख बैंक खातों की जानकारी के ज़रिए। दोनों तरीक़ों में भुगतान में एक-समान देरी हुई। (जबकि क़ानून के तहत देरी से भुगतान के लिए सरकार को मज़दूर को अतिरिक्त राशि अदा करनी होती है, असल में सरकार इस मामले में अपने ही बनाए क़ानून का कभी पालन नहीं करती।) यह बड़ा अध्ययन बताता है कि सरकार का यह दावा सरासर झूठा है कि ‘आधार’ से भुगतान जल्दी होता है।
सरकार के कार्यकुशलता के दावे भी संदेहास्पद हैं। कैसी कार्यकुशलता और किसके लिए? 2015 से 2019 के बीच फ़ील्ड कर्मचारियों पर योजनाओं में ‘आधार’ को लिंक करने के लिए बेहद दबाव था। अंजोर भास्कर व प्रीति सिंह द्वारा हाल में लगभग 3000 मनरेगा मज़दूरों पर किये गए अध्ययन से यह बात सामने आई कि 100% लिंकिंग दिखाने के लिए 57% असल हक़दारों के मनरेगा कार्ड रद्द कर दिए गए। जब सिर्फ़ लिंक हो चुके कार्ड को ही पास किया जाएगा तो ज़ाहिर है कि 100% कामयाबी का दावा करके चोरों और धोखेबाज़ों को पकड़ने के ऐलान भी किए जाएँगे। बस, कभी यह नहीं बताया गया कि जिन चोरों और धोखेबाज़ों को पकड़ा गया और जिन भ्रष्ट अफ़सरों/बाबुओं ने उनकी मदद की थी, उनके ख़िलाफ़ क्या कार्रवाई हुई, उन्हें क्या सज़ा दी गई। चाहे वो ‘आधार’ वाला भुगतान हो या बिना ‘आधार’ वाला, दोनों ही फ़ेल हो सकते हैं। बिना ‘आधार’ वाली व्यवस्था में इसकी एक आम वजह खाता संख्या का ग़लत लिखा जाना है। इस भूल को ब्लॉक स्तर पर ठीक कर लिया जाता है।
मगर ‘आधार’ से जुड़े भुगतान की नाकामी की सबसे आम वजह का नाम ‘निष्क्रिय आधार’ है। ऐसा नहीं है कि इन लोगों के ‘आधार’ निष्क्रिय हो जाते हैं। मगर यह तब होता है जब ‘आधार’ वाली भुगतान की प्रणाली में केंद्रीय नैशनल पेमेंट्स कॉर्पोरेशन ऑफ़ इंडिया के साथ सॉफ़्टवेयर मिलान नाकाम हो जाता है। मज़दूरों और अफ़सरों दोनों को ही इस समस्या के समाधान का दूर-दूर तक कोई अता-पता नहीं है। इससे भी बढ़कर, ‘आधार’ वाली प्रणाली में कई बार एक व्यक्ति की ‘आधार’ संख्या के दूसरे के खाते से लिंक हो जाने के चलते एक का भुगतान दूसरे के खाते में पहुँच जाता है। जबकि लोग इन ग़लत भुगतानों का सर-पैर नहीं समझ पाते हैं, सरकार और UIDAI की किताब में इनकी गिनती कामयाब भुगतान के रूप में होती है! UIDAI के अनुसार इसके काम में लोगों की शिकायतों का निवारण करने के लिए केंद्र चलाना शामिल है, मगर ऐसी कोई व्यवस्था खड़ी नहीं की गई है। तो चाहे वो दावे जल्दी भुगतान को लेकर हों या कार्यकुशलता या शिकायतों के समाधान के बारे, तीनों ही आयामों पर मनरेगा में भुगतान के लिए ‘आधार’ को इस्तेमाल करना नाजायज़ साबित होता है।
अच्छे प्रशासन के लिए तकनीकी चालों की नहीं, बल्कि संवैधानिक मर्यादाओं और तकनीकी को जनता के प्रति जवाबदेह बनाने की ज़रूरत है। गणितज्ञ कैथी ओ’ नील हमें चेताती हैं कि सामाजिक नीतियों के लिए कंप्यूटर के तर्क पर टिके मॉडल या तकनीकी इंसाफ़ के ख़िलाफ़ जा सकती हैं। उनके अनुसार इंसाफ़ एक विचार है, और अपनी तमाम जटिलताओं के बावजूद कंप्यूटर विचार करने में लड़खड़ाते हैं, न ही कंप्यूटर प्रोग्राम तैयार करने वाले विचार को कोड में डाल सकते हैं। बेशक, इंसाफ़ के साथ खिलवाड़ करते हुए लोगों को ‘आधार’ अपनाने के लिए मजबूर किया गया, जबकि इसके फ़ायदे-नुक़सान का कोई पूर्व या स्वतंत्र अध्ययन नहीं हुआ था। न ही लोगों या अफ़सरों से इसके बारे में ज़मीनी अनुभव जमा किए गए हैं। लेखक इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि जब जन कल्याण के मामले में ही, जिस उद्देश्य के लिए ‘आधार’ को बनाने व लाने का दावा किया गया था, ‘आधार’ का इस्तेमाल अपारदर्शिता, अविश्वसनीयता और हक़दारों की बेदख़ली से ग्रस्त है, तो फिर वोटर कार्ड को ‘आधार’ से लिंक करने के क़ानून को लेकर हमें बहुत चिंतित होना चाहिए। यह सरकार की जवाबदेही को और भी खोखला कर सकता है।
5 जनवरी 2021 को ‘द हिंदू’ अख़बार में वैंकट कृष्ण कग्गा और चक्रधर बुद्धा ने अपने एक लेख The eligible denied benefits (पात्र व्यक्तियों को जन कल्याण के लाभों से महरूम किया गया) में लोगों के हक़ों, सेवाओं व लाभों के हनन की समस्या को रखा। उन्होंने तेलंगाना सरकार की एक योजना के ज़मीनी अध्ययन से बताया कि कैसे बैंकों से जुड़ी तकनीकी समस्याओं के चलते लोगों के खातों में पैसे नहीं आते या सूची से उनका नाम ही हट जाता है। ख़ास बात यह है कि ऐसे में लोगों को वजह पता नहीं चलती है और बैंक कर्मी या योजना के अफ़सर भी कोई जानकारी नहीं दे पाते हैं। इस तरह से सरकारी योजनाओं और हक़ों को लेकर लोगों को अँधेरे में रखा जाता है। यह सब उन नीतियों व क़ानूनों की वजह से हो रहा है जो जनता पर ऐसा तकनीकीकरण थोप रही हैं जिसमें न कोई पारदर्शिता है और न कोई जवाबदेही। इसे विकास के नाम पर परोसा जा रहा है, मगर यह स्थिति लोकतंत्र के ख़िलाफ़ है। इस लेख में इस समस्या का एक शानदार समाधान पेश किया।
मदद लेने वाले से बेहतर कौन बता सकता है कि उसे मदद हाथ में चाहिए या खाते में!
उन्होंने प्रस्ताव दिया कि तेलंगाना सरकार की इस योजना में सभी पात्र व्यक्तियों के लाभ सुनिश्चित करने के लिए यह लोगों की मर्ज़ी पर छोड़ दिया जाना चाहिए कि वो राशि अपने खातों में पाना चाहते हैं या सीधे हाथ में। यह सरलतम समाधान सभी सरकारी योजनाओं के लिए कारगर होगा। स्कूली शिक्षक जानते हैं कि जब विद्यार्थियों के वज़ीफ़े सीधे उनके या उनके माता-पिता के हाथ में दिए जाते थे (या जब वर्दी का पैसा नहीं, वर्दी का कपड़ा या वर्दी दी जाती थी), तब एक भी विद्यार्थी का हक़ मारा नहीं जाता था। अब जबकि विद्यार्थियों को मिलने वाली सारी मदद उनके ‘आधार’ से जुड़े खातों में ही देने का नियम है तो कई विद्यार्थी छूट जाते हैं। जिन्हें खातों में पैसा मिलता भी है उनके परिवारों को इस काम के लिए अपना पैसा और बेशक़ीमती वक़्त ख़र्च करना पड़ता है। आख़िर, जब बैंक खातों में पैसे देने की शर्त इन दावों के आधार पर रखी गई है कि इससे ‘चोरी रुकती है’ और ‘सबसे कमज़ोर को मदद पहुँचती है’, तो फिर इससे बेहतर क्या होगा कि मदद लेने वाले से ही उसकी मर्ज़ी पूछ ली जाए कि वो ये पैसा किस तरह से पाना चाहती है – खाते में या सीधे हाथ में। लाभार्थी को इस तरह से विकल्प देना लोकतंत्र के हिसाब से भी सटीक होगा क्योंकि लोकतंत्र में लोगों की इच्छाओं व आज़ादी को सरकार या अफ़सरशाही की मनमर्ज़ी से ज़्यादा अहमियत दी जाती है।
जहाँ विद्वान, शोधार्थी व ज़मीनी कार्यकर्ता लगातार इस बात के सबूत सामने लाते जा रहे हैं कि ‘आधार’ को विभिन्न योजनाओं व क़ानूनों से जोड़ने (लिंक करने) से जनता के हक़ कैसे मारे जा रहे हैं, वहीं सरकारी एजेंसियाँ इस विषय में इनके सवालों के कोई जवाब नहीं देती हैं। ‘आधार’ से जुड़े खातों की सनकभरी शर्त के चलते आज समाज कल्याण की अधिकतर अर्ज़ियाँ व लाभ जनता की नज़र से ओझल व समझ से परे हैं। ‘आधार’ व खातों से जुड़ी ऑनलाइन प्रक्रिया के चलते हमें पता ही नहीं चलता कि हमारी या किसी की भी अर्ज़ी क्यों ठुकरा दी गई, उसमें क्या कमी थी। हम यह भी नहीं जान पाते कि हमारे खाते में पैसा क्यों नहीं आया, आया तो किस हिसाब से आया और कटा तो क्यों कटा। कभी-कभी तो हमारे बिना जाने खाता ही बंद हो जाता है। सरकार कहती है कि कंप्यूटर व मशीन की प्रक्रिया से काम बढ़िया ढंग से हो रहा है, मगर हम देखते हैं कि सब घालमेल मशीन के पीछे छुपा दिया जाता है। जबकि अगर अर्ज़ियों को एक खुली सभा में हाथों-हाथ लेने और कारण बताकर स्वीकार या अस्वीकार करने की व्यवस्था हो तो हमें पता भी रहेगा और सरकार बाबू की आड़ में छिपकर धोखा भी नहीं दे पाएगी।
अभी तो हाल ये है कि जब विद्यार्थियों के अभिभावक स्कूली शिक्षकों से वज़ीफ़ों के बारे में कुछ पूछते हैं, तो कंप्यूटरीकृत पटल में छिपी अबूझ और अपारदर्शी प्रक्रिया के चलते, उनके पास इस बात को लेकर कोई संतोषजनक जवाब या माता-पिता के काम की जानकारी नहीं होती है कि किसी अर्ज़ी का पैसा क्यों नहीं आया या वो कहाँ अटकी हुई है। ये हैरानी की बात नहीं है कि छत्तीसगढ़ में कई आदिवासी गाँवों में शिक्षा को लेकर जो जनांदोलन चल रहा है उसकी एक प्रमुख माँग यह है कि विद्यार्थियों के सारे पैसे उनके हाथों में दिए जाएँ, न कि बैंक खातों में। आज जिस तरह से सरकारी योजनाओं व लोगों के हक़ों को तकनीकीकरण के हवाले किया जा रहा है वह अपने रंग-ढंग तथा बुनावट में ही इतना जटिल व इलिटिस्ट है कि जनता की समझ से बाहर है; इसलिए प्रशासन का यह तरीक़ा अलोकतांत्रिक भी है क्योंकि लोकतंत्र में सार्वजनिक तंत्र पानी की तरह साफ़ होना चाहिए।
हक़ीक़त तो यह है कि डायरेक्ट बेनेफ़िट ट्रांसफ़र (डीबीटी) नाम की इस प्रक्रिया में कुछ भी डायरेक्ट (सीधा) नहीं है! पहले समय और पैसा गँवा कर ‘आधार’ बनाओ, फिर इसी तरह खाता खुलवाओ, फिर यह सुनिश्चित करो कि दोनों में कोई आपसी गड़बड़ न हो, फिर खाते में न्यूनतम राशि रखो, हर कुछ दिन के बाद समय बर्बाद और अपमानित करने वाली लाइनों में लगो, फिर शायद उस दिन नंबर न आए या सर्वर डाउन हो….. ये है ‘सीधे मिलने वाला लाभ’ यानी डीबीटी! यह भी विचित्र है कि जो सरकारें आँकड़ों के अनुसार योजनाएँ बनाने का दावा करती हैं वो न तो ‘आधार’ को थोपने के पक्ष में कोई सबूत पेश कर रही हैं और न ही जनता के ‘आधार’ से जुड़े कड़वे अनुभवों पर ध्यान दे रही हैं।
एक ख़तरा यह है कि बिना कोई जाँच या सबूत पेश किए, सिर्फ़ ये रट लगाने से कि ‘आधार धोखाधड़ी ख़त्म करता है’, पिछले कुछ सालों में एक माहौल बना है जिसमें अगर इस अपारदर्शी सत्ता के चलते कुछ लोगों के जायज़ हक़ मारे जाते हैं तो बाक़ी लोग ये मान लेते हैं कि वो झूठे या फ़रेबी रहे होंगे। आम लोग न सिर्फ़ दूसरे आम लोगों पर, बल्कि ख़ुद पर भी शक करने लगे हैं। इससे सत्ता वर्ग को अपने हित साधना आसान हो जाता है। ‘आधार’ एक ऐसा जिन्न है जिसे बोतल के बाहर आने ही नहीं देना चाहिए था। जब तक ये जिन्न बाहर रहेगा तब तक सरकारें इससे नित नई कारस्तानियाँ अंजाम देकर मेहनत-मज़दूरी करने वालों की ज़िंदगी में दुख व परेशानी लाती रहेंगी।
जारी…
(लेखक फिरोज अहमद एक्टिविस्ट हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)
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