Sunday, April 28, 2024

आद्रिजा रॉयचौधुरी का लेख: वास्तव में भक्ति आंदोलन मुगल काल में खूब फला-फूला

हाल ही में, मध्य प्रदेश की एक रैली में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 14 वीं शताब्दी के समाज सुधारक और भक्तिकाल के संत रविदास और मुगलों के बीच रिश्ता जोड़ा। संत रविदास के एक मंदिर की आधारशिला रखते हुए, मोदी ने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा कि वे अपनी बात पर अड़े रहे और उन्होंने मुगल साम्राज्य के “दमनकारी शासन” के खिलाफ लड़ने का साहस दिखाया।

मुगलों के संदर्भ में रविदास का जिक़्र काफी दिलचस्प है, क्योंकि अक्सर इस बात को भुला दिया जाता है, या अनदेखा कर दिया जाता है, कि जिस भक्ति परंपरा से रविदास संबंधित थे, वह उत्तर भारत के बड़े हिस्से में उसी समय उभरी और फली-फूली, जब उपमहाद्वीप में मुस्लिम शासन था। हालांकि भक्ति आंदोलन पहली बार छठी और नौवीं शताब्दी ईस्वी के बीच दक्षिण भारत के तमिल क्षेत्र में उभरा था, लेकिन उत्तर भारत में सल्तनत काल के अंत और मुगल काल के दौरान इसका खूब विस्तार हुआ। जैसा कि इतिहासकारों ने उल्लेख किया है, उत्तर भारत में इस भक्ति आंदोलन पर न केवल मुस्लिम शासकों द्वारा शुरू की गयी संस्कृति का प्रभाव था, बल्कि वास्तव में, सल्तनत और मुगल शासकों के तहत अस्तित्व में आयी राजनीतिक-प्रशासनिक संरचना के बदौलत यह बड़े पैमाने पर फला-फूला।

अपनी पुस्तक, ‘ए जीनोलॉजी ऑफ डिवोशन: भक्ति, तंत्र, योग एंड सूफिज्म इन नॉर्थ इंडिया’ (2019) में, धार्मिक अध्ययन के विद्वान पैटन बर्चेट बताते हैं कि उत्तर भारत का भक्ति आंदोलन जहां एक ओर, फ़ारसी साहित्यिक और राजनीतिक संस्कृति के मूल्यों, संस्थानों और दृष्टि से प्रभावित था, तो वहीं दूसरी ओर वह लोकप्रिय सूफ़ीवाद से प्रभावित था।

11वीं शताब्दी के गजनवी आक्रमणों के साथ एक फ़ारसी प्रभाव वाली महानगरीय संस्कृति ने दक्षिण एशिया में अपना रास्ता बना लिया था। यह इस राजनीतिक आदर्श पर आधारित थी कि समाज को एक न्यायप्रिय राजा द्वारा शासित किया जाना चाहिए जिसका शासन मूल रूप से दैवीय हो और जो विविध धार्मिक और सांस्कृतिक समूहों की भलाई और समृद्धि सुनिश्चित करता हो। गजनवियों के बाद दिल्ली सल्तनत आयी जिसने 13वीं और 16वीं सदी के बीच उत्तर और मध्य भारत पर शासन किया।

बर्चेट बताते हैं कि सल्तनत शासकों के तहत, इस इलाक़े में पहले से व्याप्त तांत्रिक अनुष्ठानों की परंपराओं में साफ तौर पर गिरावट आयी। यह समय ईरान और मध्य एशिया पर मंगोल आक्रमणों का था, जिसके नतीजे में फ़ारसी सांस्कृतिक अभिजात वर्ग के एक बड़े हिस्से का आप्रवासन भारत में हुआ। परोक्ष रूप से, इसके परिणामस्वरूप पूरे एशिया में एक नए आमजन-आधारित सूफीवाद का उदय हुआ। सूफीवाद के इस नये रूप की अधिक रुचि राजनीतिक संस्कृति और लोकप्रिय धार्मिक जीवन पर प्रभाव डालने में थी।

यही वह ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है, जिसमें उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन का उदय हुआ और इसने सूफी संप्रदाय की कई विशेषताओं को तुरंत आत्मसात कर लिया।

पिछले कुछ वर्षों में कई विद्वानों ने भक्ति आंदोलन और सूफीवाद के बीच की समानताओं पर टिप्पणी की है। उदाहरण के लिए, डायना एक्क लिखती हैं कि भक्ति और सूफीवाद दोनों ने “भक्ति और प्रेम के आंतरिक जीवन पर जोर दिया, न कि अनुष्ठानों और कर्मकांडों की बाहरी दुनिया पर।” दूसरी ओर, इतिहासकार शहाबुद्दीन इराकी लिखते हैं कि “भक्ति और सूफी आंदोलनों के तहत विकसित आध्यात्मिक विचारों की विभिन्न प्रवृत्तियां, कभी सचेत तौर पर, तो कभी अनजाने ही, एक-दूसरे से बहुत कुछ लेती रही हैं।”

बर्चेट बताते हैं कि सूफीवाद और भक्ति के बीच समानताएं तब और अधिक स्पष्ट हो जाती हैं जब उस निर्गुण भक्ति संप्रदाय की बात आती है जिससे रविदास संबंधित थे। निर्गुण संत ज्यादातर निचली जातियों के थे और वेदों और उनके ब्राह्मण प्रतिपादकों की धार्मिक सत्ता का विरोध करते थे। जहां मीराबाई और सूरदास जैसे सगुण संत कृष्ण जैसे भगवान के भक्त थे, वहीं निर्गुण संत निराकार ब्रह्म की उपासना में विश्वास करते थे। बर्चेट लिखते हैं, “सूफीवाद और इस्लाम के बरक्श निर्गुण परंपराओं की सीमाएं बहुत अधिक झिरझिरी थीं।” वे बताते हैं कि इसे विशेष रूप से सिख परंपरा और धर्मग्रंथों में देखा जा सकता है, जिसमें सूफी संतों के साथ-साथ रविदास और कबीर जैसे निर्गुण संतों की रचनाएं भी शामिल हैं।

दरअसल, भक्ति परंपरा वास्तव में मुगलों के अधीन ही फलने-फूलने लगी। अपनी किताब में, बर्चेट लिखते हैं कि मुगल सम्राट अकबर ने राजपूतों के साथ जो राजनीतिक गठबंधन बनाया था, उसने आधुनिक उत्तर भारत के शुरुआती दौर में भक्ति संस्थानों और साहित्य के पनपने में काफी मदद की। आमेर के कछवाहा, जो रामानंदी भक्ति समुदाय के अनुयायी थे, अकबर के मुगल दरबार में पदासीन थे और बादशाही नीतियों और शासकीय प्रथाओं को आकार देने में उनका काफी प्रभाव था।

उदाहरण के तौर पर, 1526 में, अकबर ने वृन्दावन में गोविंददेव मंदिर के कार्यवाहक पुजारी को भूमि दान में दिया। 1580 तक, मुगलों ने ब्रज क्षेत्र में कम से कम सात मंदिरों को जागीरें दान में दीं। मुगल-कछवाहा गठजोड़ द्वारा दिए गए संरक्षण के कारण ही वृन्दावन उस काल के सबसे महत्वपूर्ण भक्तिकालीन धार्मिक केंद्र के रूप में उभरा। बर्चेट लिखते हैं, कि “मुगल समर्थन के बिना भक्ति आंदोलन उस तरह से विकसित नहीं हो सकता था, जिस तरह से वह हुआ।”

साथ ही, यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि भक्ति आंदोलन ने मुगल शासकों को काम करने के लिए एक अत्यंत अनुकूल धार्मिक आधार प्रदान किया।

इतिहासकार हरबंस मुखिया ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ को बताते हैं, कि भक्ति आंदोलन ने मध्ययुगीन भारतीय समाज में शासकीय दृष्टि से एक अद्भुत सुविधाजनक समाधान पेश किया, जिसमें शासक मुस्लिम थे और बहुसंख्यक आबादी हिंदू थी। वे बताते हैं कि भक्ति आंदोलन के उद्भव से मुस्लिम राज्य को काफी लाभ हुआ। “इस्लाम एकेश्वरवाद पर जोर देते हुए ईश्वर और उसकी पूजा की एक बिल्कुल अलग अवधारणा लेकर आया था। यह उपमहाद्वीप की बहुसंख्यक आबादी के अनुसरण के बिल्कुल विपरीत था। इस संदर्भ में, भक्ति आंदोलन ने हमें एक अद्भुत मौलिक विचार दिया। इसने हमें एक सार्वभौमिक ईश्वर की अवधारणा दी जो अल्लाह और ईश्वर दोनों है।”

मुखिया बताते हैं कि मुस्लिम शासकों का भक्ति परंपराओं के प्रति कितना आकर्षण था, इसका प्रमाण इस तथ्य से मिलता है कि अकबर की ‘सुलह-ए-कुल’ या ‘सार्वभौमिक शांति’ की धार्मिक नीति कबीर के दर्शन का बिल्कुल शाब्दिक अनुवाद है। इसके अलावा, यह सर्वविदित तथ्य है कि अकबर के दरबारी इतिहासकार अबुल फज़ल ने अपने लेखन में कबीर को भावभीनी श्रद्धांजलि दी है। मुखिया बताते हैं कि अबुल फज़ल “वास्तव में अपने लेखन में ‘अल्लाह’ या ‘मोहम्मद’ की बात नहीं करते हैं। वह कबीर द्वारा घोषित सार्वभौमिक ईश्वर के उसी धार्मिक सूत्र को अपनाते हैं और अपने कार्यों में ‘इलाही’ शब्द का उपयोग करना पसंद करते हैं जिसका अर्थ है दिव्यता।”

जिन ऐतिहासिक परिस्थितियों में रविदास जैसे भक्तिमार्गी संत रहे और अपने सामाजिक दर्शन का प्रसार किया, उसे देखते हुए यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उन्हें मुगल प्रभुत्व के सामने टिके रहने की जरूरत नहीं थी। बल्कि, मुस्लिम सम्राटों के शासन ने शायद उनकी शिक्षाओं को फलने-फूलने के लिए आदर्श सामाजिक-राजनीतिक माहौल प्रदान किया।

(‘द इंडियन एक्सप्रेस’ से साभार,अनुवाद: शैलेश)

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