दलित बर्बरताः अपराधियों का स्वागत न करने का विवेक

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राजस्थान के नागौर में दलित युवकों के साथ की गई अमानवीय बर्बरता की कारुणिक चीख और रुदन कानों से जा ही नहीं रही है, लेकिन इस बर्बरता के बाद जब ये अपराधी घर पहुंचे होंगे, तो उनकी मांओं ने उन्हें खीर और पूड़ी परोसकर खिलाया होगा। बहनों ने भैया-भैया कहकर चुहलबाजियां की होंगी। विवाहितों की पत्नियों ने गलबहियों से उनका स्वागत किया होगा।

बड़े भैया और पिता ने ऊपरी नाराजगी दिखाकर भी पर्याप्त इशारा दे दिया होगा कि चिंता मत कर। कोर्ट-पुलिस का मामला हम देख लेंगे। भारत भर में इस वीडियो को देख रहे लाखों गैर-दलित युवक और किशोर बर्बर हंसी हंस रहे होंगे। मजाकिया कैप्शन लगाकर इसे प्राइवेट व्हॉट्सऐप ग्रुप में शेयर कर रहे होंगे।

हम देखें कि हमने क्या हाल कर दिया है अपने ही बच्चों का। गुप्तांगों में पेंचकस और पेट्रोल डाल रहे ये बच्चे हमारे ही हैं। आज ये दूसरों के साथ ऐसा कर रहे हैं तो हमें आनंद आ रहा है, लेकिन मत भूलिए कि ये हमारे साथ भी ऐसा ही करेंगे। बल्कि करते भी हैं। बंद कमरों के भीतर करते हैं तो चीख चहारदीवारियों में ही दबकर रह जाती है।

होना तो यह चाहिए था कि बहनें ऐसे भाइयों को राखी बांधने से इंकार करने का सामूहिक और सार्वजनिक वक्तव्य जारी करतीं। मांएं उन्हें अपना बेटा मानने से इंकार कर देतीं। पत्नियां असहयोग शुरू कर देतीं। प्रेमिकाएं ऐसे हिंसक जाहिलों को पलटकर भी न देखतीं।

भाई और पिता भी आगे बढ़कर उन्हें कानून के हवाले करते। ऐसे गैर-दलित युवक-युवतियां जो इंसानी एकता और समानता में सचमुच विश्वास करते हैं, वे लाखों-करोड़ों की संख्या में आगे आकर ऐसे कृत्यों की भर्त्सना करते। अपने साथियों के प्रबोधन का हरसंभव प्रयास करते।

तब कम-से-कम यह संदेश जाता कि भारत का गैर-दलित समाज अपनी संतानों को मनुष्य बनाने को लेकर गंभीर है। लेकिन नहीं। जब स्वयं हममें ही मानवता नहीं बची है, तो हम अपनी संतानों को क्या बनाएंगे!

डॉ. लोहिया ने अपने प्रसिद्ध लेख ‘हिंदू बनाम हिंदू’ में लिखा है, “हिंदू शायद दुनिया का सबसे बड़ा पाखंडी होता है, क्योंकि वह न सिर्फ दुनिया के सभी पाखंडियों की तरह दूसरों को धोखा देता है, बल्कि अपने को धोखा देकर खुद अपना नुकसान भी करता है। …एक तरफ हिंदू धर्म अपने छोटे-से-छोटे अनुयायियों के बीच भी दार्शनिक समानता की बात करता है। वह केवल मनुष्य और मनुष्य के बीच ही नहीं, बल्कि मनुष्य और अन्य जीवों और वस्तुओं के बीच भी ऐसी एकता की बात करता है, जिसकी मिसाल कहीं और नहीं मिलती।

…लेकिन दूसरी तरफ इसी धर्म में गंदी से गंदी सामाजिक विषमता का व्यवहार चलता है। मुझे अक्सर लगता है कि दार्शनिक हिंदू खुशहाल होने पर गरीबों और शूद्रों से पशुओं जैसा और पशुओं से पत्थरों जैसा व्यवहार करता है। इसका शाकाहार और इसकी अहिंसा गिर कर छिपी हुई क्रूरता बन जाती है।

…हिंदू धर्म ने सचाई और सुंदरता की ऐसी चोटियां हासिल कीं जो किसी और देश में नहीं मिलतीं, लेकिन वह ऐसे अंधेरे गड्ढों में भी गिरा है जहां तक किसी और देश का मनुष्य नहीं गिरा। …जब तक हिंदू मानव जीवन की असलियतों को वैज्ञानिक और लौकिक दृष्टि से स्वीकार करना नहीं सीखता, तब तक वह अपने बंटे हुए दिमाग पर काबू नहीं पा सकता और न कट्टरता को ही खत्म कर सकता है, जिसने अक्सर खुद उसी का सत्यानाश किया है।”

यह कहा था डॉ. लोहिया ने आज से 70 साल पहले जुलाई, 1950 में। भारतीय समाज में एक आमूलचूल मानवतावादी पुनर्जागरण की आवश्यकता है। सुधिजन बताएं कि इसके लिए परिवार और समाज के स्तर पर क्या-क्या किया जाना चाहिए!

(हिमांशु कुमार की फेसबुक वाल से साभार)

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