महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोशियारी ने जो किया, यह कोई पहली बार नहीं हुआ है। गटर जब गंदगी से लबालब भर जाए तो तिलचट्टे बाहर आ ही जाते हैं। आधुनिकता विरोधी जिहालत पहले भी धर्म-निरपेक्षता को बीच चौराहे पर घेर कर कूटती रही है। पहले उचक्के क्या करते थे कि कूट कर भाग जाते थे। यह काम छुप कर किया करते थे। ‘मुक्त बाज़ार’ में अब धर्म-निरपेक्षता भी बाजारू हो गई है। पहले घी बेचने वाले घी को घी कहने भर से बात नहीं बनती थी तो देसी घी कहते थे। फिर बड़ी कंपनियां देसी घी को असली देसी घी बताने लगीं और यह बात विज्ञापनों में दारा सिंह के मुंह से कहलवाई जाती।
इसी तर्ज़ पर रथ यात्रा पर निकले अल्पसंख्यक विरोधी मुहिम चला रहे लाल कृष्ण आडवाणी दबी ज़ुबान में खुद को धर्म-निरपेक्षता के ‘छद्म’ संस्कारण के बजाए ‘सच्चे वाले असली देसी धर्म-निरपेक्ष’ बताया करते थे। रथयात्रा में बेचारे आडवाणी ने जिसे रथ पर बिठाया था उसी ने उन्हें धक्का दे कर नीचे गिरा दिया और सारे देश को बताया कि यह असली-नकली क्या होता है और सेकुलर शब्द को अपनी ट्विटर सेना की मदद से ‘सिकुलरिस्ट’ (sickularist) एक गाली बना दिया गया। अब यह गाली खुले-आम दी जाती है।
महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोशियारी ने भी यही किया है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को यह गाली खुलेआम दी है। देश की रक्षा की शपथ लेने वाले रक्षा मंत्री भी कहते पाए गए थे कि केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा है कि देश में ‘सेक्युलर’ शब्द का सबसे ज़्यादा दुरुपयोग हुआ है और इसे बंद किया जाना चाहिए। नरेंद्र मोदी ने तो प्रधानमंत्री का कार्यभार संभालते ही भारत के धर्मनिरपेक्ष लोगों और धर्मनिरपेक्षता की हंसी उड़ाने का काम, विदेशी ज़मीन पर प्रवासी भारतीयों के बीच शुरू कर दिया था।
सुनते आए थे कि लोकतंत्र शासन का वह तरीका है, जिसमें खोपड़ियां गिनी जाती हैं, तोड़ी नहीं जातीं, लेकिन जो शासक अब के हमें नसीब हुए हैं वह खोपड़ियों को तोड़ने का काम कर रहे हैं। सामाजिक विच्छेदन की इस प्रक्रिया को कुछ सयाने ‘वर्म्स आई व्यू’ और ‘बर्ड्स आई व्यू’ – यानि दूर से देखने और नजदीक से देखने का फ़र्क़ हैं। धरती को तिलचट्टे की दृष्टि से देखने वाले के लिए धरती गटर से ज्यादा बड़ी नहीं होती। जिन्हें इंसान को हिंदू-मुसलमान की दृष्टि से देखना है वह समूची मानवता के कल्याण की बात नहीं सोच सकते। यह जो कुछ किया है कोशियारी ने, अल्पसंख्यकों के चुनिंदा बहिर्वेशन सांप्रदायिक नफ़रत फैलाने वाली हिन्दू-एकता परियोजना का ही एक हिस्सा है।
मणि रत्नम की फिल्म बॉम्बे से लेकर हाल ही में बनी आभूषणों की एक विज्ञापन फ़िल्म में हिंदू-मुसलमान विवाह के माध्यम से सेकुलर आधुनिकता पर आधारित राष्ट्रीय अस्मिता रचने की एक कोशिश का जिस तरह से आधुनिकता विरोधियों ने विरोध किया है, उनकी हिमायत में खड़े बुद्धिजीवी जिस तरह से अपना पक्ष रखते हैं, उन्हें सेकुलरवाद के खिलाफ घोषणा पत्र लिख कर आशीष नंदी जैसे विद्वान और दिग्भ्रमित नहीं करते?
गुजरात में हिंदुत्व की राजनीति के रथ पर सवार होकर ही मोदी ने भारतीय राजनीति में अपनी यह जगह बनाई है। धीरुभाई शेठ की मानें तो गुजरात में भाजपा का आधार मध्यवर्ग है। गुजरात में देश के अन्य हिस्सों की तुलना में शिक्षित और शहरी मध्यवर्ग की संख्या अपेक्षाकृत ज्यादा है। शिक्षित होने का मतलब आधुनिक हो जाना नहीं होता, इसलिए वो स्वयं को हिंदू के रूप में इस तरह से देखते हैं कि जातिवाद भी वहां बिहार और उत्तर प्रदेश से ज्यादा देखने को मिलता है। यही वजह है कि मतदान-व्यवहार में वहां हिंदुत्व एक आधार की तरह काम करता है। यह पहचान की एक परा-श्रेणी है जो हिंदुत्व के जरिये उभरी है। यह हिंदुत्व मोदी की चुनावी सफलता के पीछे एक महत्वपूर्ण कारक है।
कांग्रेस जानती है कि मोदी की चुनावी सफलता का राज क्या है, इसलिए राहुल ने भी कई मंदिरों में जाकर अपना जनेऊ उघाड़ा, लेकिन लोगों ने सोचा कि अगर कुर्सी पर पंडा ही बिठाना है तो जनेऊ वाले की जगह डंडे-वाला ही ठीक है, उसे अनुभव भी ज्यादा है। मोदी को भी इस बात की समझ है कि हिंदुत्व एक धार्मिक-सामाजिक श्रेणी है। वह महज एक दल का फ़िक्स्ड डिपॉज़िट नहीं है। गिनती थोड़ी कम ज्यादा हो सकती है, लेकिन कांग्रेस में भी हिंदुत्ववादी उतने ही हैं जितने भाजपा में, लेकिन हिंदुत्व एक राजनीतिक शक्ल इख्तियार करके भाजपा की पहचान बन चुका है। उसे हाईजैक करना उतना आसान नहीं है, जितनी आसानी से मोदी ने गुजरात के सरदार पटेल को लगभग ‘हाइजैक’ कर लिया है। भाजपा के लिए अब हिंदुत्व हर मुसीबत की घड़ी में बचाने वाला एक ट्रंप-कार्ड भी है।
फिरहाल मोदी की राजनीतिक मंच पर स्थिति अच्छी नहीं है। अपने खास दोस्त ट्रंप के चक्कर में चीन से अपने बीस बच्चों की बलि देकर जो मुंह काला करवाया, उससे दिमागी संतुलन पहले से ज्यादा बिगड़ा हुआ नज़र आ रहा है। भारत को युद्ध में झोंक कर अगर ट्रंप हार गया तो उसके बाद क्या होगा यह चिंता अलग से खाए जा रही है। जहां तक कृषि-कानून का सवाल है, किसान हैं कि मानते नहीं। डिजाइनर वस्त्र तो पहले जैसे ही हैं, लेकिन सियासी शौर्य, और वीरमुद्रा की भाषण कला अब पहले की तरह शबाब पर नहीं है।
टर्बाइन के माध्यम से ही हवा में से ऑक्सीजन निकाल कर ऑक्सीजन का भी मार्केट कैप्चर करने की बात पर जो जगहंसाई हुई वो तो लोग दो-चार दिन में भूल जाएंगे, लेकिन हाथरस और उसके बाद लगातार बलात्कार और हिंसा की घटनाओं के बाद बुजुर्ग स्टेन स्वामी को गिरफ्तार करवाने के बाद जो दुनिया भर में थू-थू हो रही है, उससे तो वृद्धि-दर और विकास वाले फ्रंट पर जो होगा स्पष्ट नज़र आ रहा है। ‘फील गुड’ और ‘इंडिया शाइनिंग’ की तरह ही उनका ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ वाला बुलबुला अब फूट चुका है। पीएम केयर्स फंड पर भी सवाल उठने लगे हैं। इस हिंदुत्व के ट्रंप-कार्ड से प्रधानमंत्री मोदी का बचाव करके कोशियारी ने जो होशियारी दिखाई है, उससे उम्मीद की जा सकती है कि उससे कुछ दिनों के लिए ही सही लोग हाथरस, स्टेन स्वामी की गिरफ्तारी और किसान आंदोलन के बारे में बातें करना भूल जाएंगे।
कोशियारी के ख़त से जो खुन्नस और तनाव का माहौल पैदा हुआ है, उसमें कोरोना के खौफ़ से घरों में क़ैद लोगों को संविधान की दुहाई, सेकुलरवाद की ठुकाई और गांधी की धार्मिक-ढिठाई को लेकर बहुत कुछ पढ़ने को मिल रहा है और आगे भी मिलेगा।
हिंदी के पाठक अभय कुमार दुबे की संपादित की, एक महत्वपूर्ण किताब ‘बीच बहस में सेकुलरवाद’ भी आप पढ़ सकते हैं। फिलहाल मैं तो क्रांतिकारियों के दस्तावेज़ पढ़ रहा हूं। सांप्रदायिकता और धार्मिक जुनून के सवाल को उन्होंने सिरे से खारिज किया था और देशवासियों को इससे दूर रहने की सलाह दी थी।
1927 में काकोरी के चार शहीदों को फांसी दे दी गई थी। उन्हें याद करते हुए शहीद भगत सिंह अपने इस लेख ‘रामप्रसाद बिस्मिल का अंतिम संदेश’ में लिखते हैं: ‘अशफ़ाक़उल्ला को सरकार ने राम प्रसाद का दायां हाथ बताया है। अशफ़ाक़ कट्टर मुसलमान होते हुए भी राम प्रसाद-जैसे कट्टर आर्य समाजी का क्रांति में दाहिना हाथ हो सकता है तो क्या भारत के अन्य हिंदू-मुसलमान आज़ादी के लिए अपने छोटे-मोटे लाभ भुला कर एक नहीं हो सकते। अशफ़ाक़ तो पहले ऐसे मुसलमान हैं, जिन्हें बंगाली क्रांतिकारी पार्टी के संबंध में फांसी दी जा रही है। …. अब यह कहने की हिम्मत किसी में नहीं होनी चाहिए कि मुसलमानों पर विश्वास नहीं करना चाहिए।…. अब देशवासियों के सामने यही प्रार्थना है कि यदि उन्हें हमारे मरने का ज़रा भी अफ़सोस है तो वे जैसे भी हो, हिंदू-मुस्लिम एकता स्थापित करें- यही हमारी आखिरी इच्छा थी, यही हमारी यादगार हो सकती है।… फिर वह दिन दूर नहीं जब अंग्रेजों को भर्तियों के आगे शीश झुकना होगा।’
शहीद भगत की इन पंक्तियों को पढ़के क्या आपको नहीं लगता कि जो हिंदुत्व की राजनीति भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ वाले कर रहे हैं, जिस तरह का जहर हमारे समाज में घोल रहे हैं वह शहीद भगत सिंह समेत हमारे तमाम क्रांतिकारियों, वीरों की शहादत और इच्छाओं के विरुद्ध राजनीति कर रहे हैं। शहीद भगत सिंह और उनके तमाम साथी भी विश्व-बंधुता की बात करते थे और सेकुलरवाद में यकीन रखते थे। किसी सेकुलर को ‘सिकुलर’ की गाली देना ही भगत सिंह को गाली देना है।
माता मोतिमा देवी और पिता गोपाल सिंह कोशियारी ने तो शहीद भगत सिंह की शहादत से प्रेरित होकर बेटे का नाम भगत सिंह रखा होगा और सोचा होगा कि शहीदों के जो सपने पूरे नहीं हुए, बेटा बड़ा होकर उन्हें पूरा करेगा। पर उसने तो अपने माता-पिता के नाम पर ही कालिख पोत दी। उन्हें क्या पता था कि भगत सिंह नाम रख देने से कोई भगत सिंह नहीं हो जाता।
बहरहाल, जो हिंदुत्ववादी भाषा भगत सिंह कोशियारी ने अपने ख़त में इस्तेमाल की है, वह शहीद भगत सिंह का अपमान है।
(देवेंद्र पाल वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल जालंधर में रहते हैं।)