कोलम्बिया के नोबेल विजेता उपन्यासकार-पत्रकार गाब्रिएल गार्सीया मार्केस का वन हंड्रेड इयर्स आॉफ सॉलिट्यूड एक विश्व-प्रसिद्ध उपन्यास है, जो सिर्फ एक बेस्टसेलर ही नहीं रहा, दुनिया की अनेक भाषाओं में इसके अनुवाद भी हुए। पहली बार स्पेनिश में यह सन् 1967 में छपा। इसे मार्केस के जादुई यथार्थ की अनुपम कृति माना जाता है। एकाकीपन के सौ वर्ष मनीषा तनेजा द्वारा किया इसका हिन्दी अनुवाद है। उन्होंने यह अनुवाद मूल स्पेनिश से किया है। ‘एकाकीपन के सौ वर्ष’ सिर्फ एक शहर और उसकी कई पीढ़ियों की कहानी ही नहीं है, दरअसल वह अपने समय और समाज के विराट यथार्थ का एक जादुई रूपक पेश करती है। शहर और पीढ़ियों की लंबी और दिलचस्प कहानी के जरिये वह समाजों, देशों और सभ्यताओं के बसने और तबाह किये जाने की कहानी भी कहती है। सिलसिलेवार कथा-उपकथाओं, अतिरंजनाओं, रहस्य और हास्य-मजाक के बीच उपन्यास की मूल कहानी पर्त-दर-पर्त उभरती जाती है।
एकाकीपन के सौ वर्ष माकोन्दो नामक शहर के उदय से पतन के सौ सालों की दिलचस्प कहानी है। इस शहर की स्थापना खोसे अर्कादियो बुएन्दीया और उऩके कुछ दोस्तों ने मिलकर की थी। शहर के साथ यह अर्कादियो खानदान की सात पीढ़ियों की भी कहानी है। इस कहानी को जिस तरह पेश किया गया है, उसे विश्व साहित्य में मार्केस का जादुई यथार्थ कहा जाता है। एक ऐसा यथार्थ जो नानी-दादी की कहानियों की तरह दिलचस्प, मोहक और कई बार अविश्सनीय लगते हुए भी सच को सामने लाने का एक गैर-पारम्परिक रूप लेकर आता है। इस कहानीपन में मार्केस रूपक बुनते हैं और वह बेजोड़ है। उनकी यही शैली और अनकहा कंटेंट उन्हें विश्व का महान् उपन्यासकार बनाते हैं।
‘एकाकीपन के सौ वर्ष’ के बुएन्दीया परिवार की कई पीढ़ियों की महाकाव्यात्मक कथा सौ वर्षों तक फैली है। केले के उत्पादन और व्यापार में जमी बड़ी कंपनियों की लूट और षड्यंत्रकारी गतिविधियों के खिलाफ कर्नल औरेलियानो बुएन्दीया अपने समाज और लोगों के लिए लड़ता है। वह नायक के रूप में उभरता है पर बाद में वह स्वयं ही तानाशाह बन जाता है। लातीन अमेरिकी कई देशों की यह राजनीतिक कहानी उपन्यास के मूल कथानक का महत्वपूर्ण हिस्सा है। अनिद्रा, दरिद्रता, युद्ध और तकरीबन पांच वर्षों तक चलने वाले एक उष्णकटिबंधीय तूफान से तबाह हो गये माकोन्दो शहर की कहानी वैसे तो बुएन्दीया परिवार की सात पीढ़ियों के घटनाक्रम को सामने लाती है मार्केस इसे सभ्यता और समाज के विकास की कथा बना देते हैं। खोसे अर्कादियो बुएन्दीया द्वारा विशाल दलदल में बसाया शहर समाज और सभ्यता का रूपक बनकर उभरता है। अंत में मेल्कीय़ादेस की रहस्यमय पांडुलिपियों से यह कहानी सामने आती है। यही है मार्केस का जादुई यथार्थ जिसमें किसी पारम्परिक कथा से ज्यादा कहानीपन है और जहां कहानी के अंदर समाज और सभ्यता का उत्थान-पतन, संघर्ष और विकास अपनी पूरी जटिलता और गत्यात्मकता के साथ गुंथे दिखते हैं। इस महाकाव्यात्मक मानवीय गाथा में ढेर सारे बेढब और विचित्र दिखते कथा-मोड़ हैं जो ऊपर से मायावी और अतिरंजना-भरे दिखते हैं पर वे अपने समय के अच्छे-बुरे और भयावह-हर तरह के सच को दिलचस्प ढंग से पेश करते हैं।
दुनिया में मार्केस के इस उपन्यास की लाखों प्रतियां बिकी हैं। बताया जाता है कि अब तक दुनिया के विभिन्न देशों की पचास से ज्यादा भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ है। भारत में इसका हिन्दी के अलावा मराठी, मलयालम, पंजाबी, तमिल और बांग्ला में अनुवाद हो चुका है। हिन्दी का सौभाग्य है कि इसका हिन्दी में एक से अधिक अनुवाद हो चुका है। सिर्फ राजकमल प्रकाशन ने इसके दो-दो अनुवाद छापे हैं। उपन्यास का यह दूसरा और नया हिन्दी अनुवाद है, जिसे मनीषा तनेजा ने किया है। यह अभी दो महीने पहले ही नवम्बर, 2021 में छपा। उपन्यास का पहला हिन्दी-अनुवाद एकांत के सौ वर्ष (सन् 2007)के नाम से राजकमल ने ही छापा था। सोन्या सुरभि गुप्ता ने उसे मूल स्पेनिश से ही किया था। संयोगवश, मनीषा तनेजा और सोन्या सुरभि गुप्ता दोनों दिल्ली स्थित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्पेनिश भाषा केंद्र की छात्रा रही हैं। सुखद संयोग है कि सोन्या जेएनयू में अस्सी के दशक में हमारी समकालीन थीं। उन्हें हम लोग सोनिया कहकर पुकारते थे। मनीषा कुछ वर्ष बाद उसी विश्वविद्यालय से स्पेनिश पढ़ीं।
दोनों अलग-अलग विश्वविद्यालयों में स्पेनिश भाषा-साहित्य का अध्यापक बनीं। स्पेनिश भाषा और साहित्य की दोनों समर्थ जानकार और विद्वान हैं। दोनों अनुवादों की तुलना करना मेरे लिए संभव नहीं क्योंकि सोन्या सुरभि गुप्ता के पहले-पहल अनुवाद—एकांत के सौ वर्ष को मैंने नहीं पढ़ा। बरसों पहले मार्केस के इस उपन्यास को मैंने अंग्रेजी में पढ़ना शुरू किया था। लेकिन तब मैं उसे पूरा पढ़ नहीं सका था। मनीषा के अनुवाद से ही मैंने मार्केस के इस महानतम उपन्यास को पढ़ सका। लव इन द टाइम आफ कॉलरा के अलावा उनकी यह दूसरी औपन्यासिक रचना है, जिसे पढ़ने का मुझे सौभाग्य मिला। मार्केस की अन्य रचनाएं, खासतौर पर उनके पत्रकारीय लेखन से मैं पहले से ही प्रभावित रहा हूं, जो समय-समय पर अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं के जरिये पढ़ने को मिल जाते थे। उनके मुकाबले मैंने लातीन अमेरिका के दूसरे नोबेल-विजेता मशहूर लेखक पाब्लो नेरूदा को कुछ ज्यादा पढ़ा होगा।
उनके संस्मरणों के हिन्दी में कई अच्छे अनुवाद हुए हैं। जेएनयू के हमारे समकालीन मित्रों ने भी नेरूदा की कविताओं और लेखों के अच्छे अनुवाद किये थे। कुछ ने स्पेनिश से और कुछ ने अंग्रेजी से किये। जिन लोगों ने मूल स्पेनिश से हिन्दी में कुछ महत्वपूर्ण अनुवाद किये, उनमें एक उल्लेखनीय नाम प्रभाती नौटियाल का है। प्रभाती जी ने एक अन्य बड़े स्पेनिश लेखक ख्वान मान्वेल मार्कोस के एक विश्व-प्रसिद्ध उपन्यास का गुंतेर की सर्दियां(2012) नाम से हिन्दी में अनुवाद किया। संभवतः उसे साहित्य अकादमी ने छापा है। यह उपन्यास दुनिया की 45 भाषाओं में अनूदित है। दिल्ली विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफेसर कर्ण सिंह चौहान ने नेरूदा के संस्मऱणों का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद किया। उसे ग्रंथशिल्पी ने छापा। यह अनुवाद भले ही मूल स्पेनिश से नहीं है पर बेहद अच्छा लगा। अपने सहज भाषायी-प्रवाह के चलते वह किसी मूल रचना की तरह पाठक को अंत तक बांधे रखता है।
‘एकाकीपन के सौ वर्ष’ के रूप में हिन्दी में आने से पहले मार्केस के इस उपन्यास के अब तक कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो चुके हैं। लेखक के तौर पर भारत में मार्केस की बढ़ती लोकप्रियता का यह सबूत है। नेरूदा के बाद वह दूसरे बड़े लातीनी अमेरिकी लेखक हैं, जिन्हें समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में पसंद किया जाता है। पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी इन दोनों लेखकों के लाखों पाठक हैं और इनकी संख्या लगातार बढ़ती जा रही है।
मनीषा तनेजा के अनुवाद की कुछ खास बातों में एक बात जो मुझे अच्छी लगी, वो है लातीन अमेरिकी खास उच्चारण वाले पात्रों के नाम और उनकी वर्तनी का तनिक सहजीकरण। मोकोन्दो, खोसे अर्कादियो बुएन्दीया और मेल्कीयादेस जैसे नाम इसके खास उदाहरण हैं। स्थानिकता-बोध से सहेजे इस तरह के सहजीकरण से पाठकों को उपन्यास पढ़ने और उसमें डूबने में थोड़ी सहजता होती है। मनीषा शब्दों के चयन और वाक्यों की संरचना पर खास ध्यान देती हैं। आमतौर पर वह वाक्यों को छोटा-छोटा रखती हैं, इससे मार्केस के जटिल कथानक वाले उपन्यास के हिन्दी पाठ पर बोझिलता हावी नहीं होती। इस अनुवाद में उऩके कुछ वाक्य लंबे भी हैं, जहां एक ही लंबे वाक्य में बहुत सारे अर्द्धविराम आते हैं। मूल स्पेनिश से भाव प्रस्तुत करने में मुश्किलें रही होंगी पर शायद इन्हें और छोटा व प्रवाहपूर्ण बनाया जा सकता था। मनीषा का यह दूसरा अनुवाद है, जिसे मैंने पढ़ा। पिछले साल उनका एक और अनुवाद पढ़ा था। वह था-अमिताभ घोष के उपन्यास-गन आईलैंड का हिन्दी अनुवाद-बंदूक द्वीप । बहुत अच्छा अनुवाद था। जाहिर है, उसका अनुवाद मार्केस के इस उपन्यास जैसा चुनौतीपूर्ण नहीं था। पेशेवर अनुवादक न होने के बावजूद मैं महसूस कर सकता हूं कि मार्केस के इस उपन्यास का मूल स्पेनिश से हिन्दी में अनुवाद करना अनुवादक के लिए कितना चुनौतीपूर्ण प्रकल्प रहा होगा!
उपन्यास के आखिर में मार्केस का संसार शीर्षक अपनी टिप्पणी में मनीषा ने मार्केस के इस उपन्यास और उनके साहित्यिक सफर की संक्षिप्त जानकारी दी है। यह जरूरी टिप्पणी है। इसे थोड़ा और बढ़ाया जाता तो बेहतर ही होता। लातीन अमेरिकी साहित्य के संदर्भ में मार्केस के सफर और उनके योगदान की चर्चा को थोड़े और विस्तार से इसमें शामिल किया जा सकता था। अपनी एक अन्य अनुवादकीय टिप्पणी में मनीषा ने लिखा है कि इस अनुवाद को छपने लायक बनाने में उन्हें कुल पांच साल लगे। लेकिन यह अनुवाद बीस साल बाद छपा। उस दरम्यान समय-समय पर पांडुलिपि में संशोधन-परिवर्द्धन का दौर चलता रहा होगा। उन्होंने अनूदित पुस्तक के शीर्षक को लेकर कुछ विद्वानों और मित्रों में जारी विचार-विमर्श की भी चर्चा की है। अंततः मनीषा का दिया अपना शीर्षक ही तय हुआ और यह एकाकीपन के सौ वर्ष के रूप में आया। मनीषा को इस शानदार प्रस्तुति के लिए बधाई।
(उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और स्तंभकार हैं। आप आजकल दिल्ली में रहते हैं।)
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