चीफ ऑफ डिफेंस स्टॉफ: आशाएं और आशंकाएं

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प्रधानमंत्री ने अपने स्वतंत्रता दिवस उद्बोधन में सेना के तीनों अंगों में बेहतर समन्वय स्थापित करने के लिए चीफ ऑफ डिफेंस स्टॉफ के पद के सृजन की घोषणा की। उन्होंने कहा कि चीफ ऑफ डिफेंस स्टॉफ जल, थल और वायु सेना तीनों के ही समन्वित विकास के लिए कार्य करेगा। यद्यपि चीफ ऑफ डिफेंस स्टॉफ के अधिकारों और उत्तरदायित्वों के संबंध में अभी बहुत कुछ स्पष्ट नहीं है किंतु जैसा अनुमान लगाया जा रहा है यह प्रधानमंत्री का प्रमुख सैन्य सलाहकार होगा जो सेना से संबंधित दीर्घावधि योजना निर्माण, खरीद, प्रशिक्षण और जटिल सैन्य तंत्र के प्रचालन का कार्य करेगा। सेना की आवश्यकताएं निरंतर बढ़ रही हैं किंतु उस परिमाण में बजट उपलब्ध नहीं है। इसलिए उपलब्ध संसाधनों का बेहतर उपयोग चीफ ऑफ डिफेंस स्टॉफ की पहली प्राथमिकता होगी। भविष्य में होने वाले युद्ध छोटे, तीव्र गति से संपन्न होने वाले और अल्पकालिक होंगे और इनमें सफलता के लिए सेना के तीनों अंगों में जबरदस्त समन्वय आवश्यक होगा।

चीफ ऑफ डिफेंस स्टॉफ भावी युद्ध की समन्वित सैन्य गतिविधियों की रूपरेखा का निर्धारण कर इनके क्रियान्वयन हेतु आवश्यक तकनीकी कौशल विकसित करने हेतु उत्तरदायी होगा। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने हाल ही में कहा कि भारत की परमाणु हथियारों की नो फर्स्ट यूज़ की नीति भावी परिस्थितियों के अनुसार बदली भी जा सकती है। इस बयान के परिप्रेक्ष्य में चीफ ऑफ डिफेंस स्टॉफ की भूमिका और महत्वपूर्ण हो जाएगी क्योंकि उसकी सलाह पर ही प्रधानमंत्री नाभिकीय हथियारों के प्रयोग का निर्णय लेंगे।

प्रधानमंत्री की इस घोषणा का सैन्य विशेषज्ञों ने व्यापक स्वागत किया है। सेना के तीनों अंगों में समन्वय की कमी कारगिल युद्ध के समय महसूस की गई थी जब हमारी थल सेना की सहायता करने के लिए वायु सेना के पास रणनीति और हथियारों का खलने वाला अभाव देखा गया था। कारगिल युद्ध के बाद 29 जुलाई 1999 को गठित के सुब्रमण्यम की अध्यक्षता वाली कारगिल रिव्यु कमेटी की 23 फरवरी 2000 को संसद में पेश की गई रिपोर्ट में सर्वप्रथम सीडीएस की नियुक्ति का सुझाव दिया था।

इसके बाद नरेश चंद्र टास्क फोर्स ने 2012 में किसी फाइव स्टार सीडीएस की नियुक्ति की संकल्पना को लगभग खारिज करते हुए परमानेंट चीफ ऑफ स्टॉफ कमेटी की नियुक्ति का सुझाव दिया जिसके कार्यकाल, योग्यताओं और दर्जे के विषय में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं था। सीडीएस की नियुक्ति का सुझाव सेवा निवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल डी बी शेकटकर समिति की दिसंबर 2016 की 99 सिफारिशों का एक हिस्सा है किंतु यह सीडीएस आज के भावी सीडीएस जितना शक्तिशाली और अधिकार सम्पन्न नहीं होता।

जहाँ तक वैश्विक परिदृश्य का संबंध है विश्व के अधिकांश परमाणु हथियार सम्पन्न देशों में चीफ ऑफ डिफेंस स्टॉफ अथवा इससे मिलता जुलता पद और थिएटर कमांड मौजूद हैं। भारत का रक्षा मंत्रालय यूनाइटेड किंगडम के मॉडल पर आधारित है। यूके में भी सीडीएस ब्रिटिश सशस्त्र सेनाओं का प्रोफेशनल हेड होता है। वह सैन्य रणनीति का निर्धारक होता है और यह तय करता है कि ऑपरेशन्स किस प्रकार सम्पन्न किए जाएं। वह प्रधानमंत्री और सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फ़ॉर डिफेंस का प्रधान सलाहकार होता है। चीन में भी जल,थल, नभ और रॉकेट सेनाएं पांच थिएटर कमांड्स में सेंट्रल मिलिट्री कमीशन के माध्यम से एकीकृत हैं और इनका एक संयुक्त मुख्यालय भी है और वह भी सीडीएस जैसे पद के सृजन के बहुत करीब है।

भारत में चीफ ऑफ डिफेंस स्टॉफ की नियुक्ति मात्र से ही सेना के तीनों अंगों में समन्वय स्थापित हो जाएगा ऐसा विश्वास करना अतिशय आशावादी होना है। सेना से जुड़े हुए हलकों में सेना के तीनों अंगों के मध्य हो रही तनातनी की खबरें प्रायः सुनने में आती हैं। मोहन गुरुस्वामी ने स्क्रॉल.इन में अपने एक लेख में यह बताया है कि किस प्रकार भारतीय वायु सेना अनेक बार थल सेना और जल सेना के साथ समन्वय स्थापित करने में असफल रही है। गुरुस्वामी के अनुसार वायु सेना का कमांड सिस्टम सेना के अन्य दो अंगों के साथ तालमेल नहीं रखता; वायु सेना ने सैन्य हेलीकॉप्टरों को अपने अधीन रखने का अनुचित आग्रह लंबे समय तक बनाए रखा और अंततः थल सेना को चुनिंदा सैनिक कार्यों के लिए केवल चेतक हेलीकॉप्टर देने को राजी हुई; जल सेना की समुद्री कार्रवाईयों के लिए जैगुआर विमानों में मेरीटाइम राडार लगाने में उसने एक दशक लगा दिया, ऐसा ही एक दशक का विलम्ब उसने मिग 21 विमानों के आधुनिकीकरण में लगाया ताकि उसे नए और आधुनिक विमान मिल सकें।

गुरुस्वामी के अनुसार वायु सेना हाल ही में भी राफेल विमानों के लिए हठ करती रही है जबकि वह इसके स्थान पर एसयू 30 या एसयू 35 के लांग रेंज मिसाइल्स से सुसज्जित आधा दर्जन स्क्वाड्रन प्राप्त कर सकती थी। वायु सेना आधुनिक युद्ध की जान है और इसका महत्व उत्तरोत्तर बढ़ रहा है। सैन्य बजट का एक बड़ा हिस्सा वायु सेना को समर्पित होता है इसलिए उसके पास थल सेना और बहुत छोटी भूमिकाओं तक सीमित जल सेना पर अपनी श्रेष्ठता दिखाने के अधिक अवसर मौजूद हैं। लेकिन कई बार थल सेना भी वायु सेना के साथ काम करने की अनिच्छा के कारण अनेक मांगें रखती है।  थल सेना द्वारा पहाड़ी इलाकों के लिए स्ट्राइक कॉर्प्स की मांग की गई और इसके लिए 67000 करोड़ रुपए का बजट प्राप्त किया गया जबकि पर्वतीय क्षेत्रों की रक्षा के लिए यह रणनीति कई मायनों में अप्रायोगिक थी।

चीफ ऑफ डिफेंस स्टॉफ का चयन किस आधार पर होगा? क्या वह सेना का ही कोई वर्तमान अथवा भूतपूर्व सर्वोच्च अधिकारी होगा या गुप्तचर सेवा का कोई प्रमुख अथवा सैन्य अधिकारियों की प्रतिस्पर्धा को देखते हुए इन विषयों का जानकार कोई ब्यूरोक्रेट इस पद पर नियुक्त कर दिया जाएगा? इन प्रश्नों के उत्तर आने वाला समय ही देगा। वायु सेना न्यूनतम मानव संसाधन और न्यूनतम प्रयास द्वारा आधुनिक युद्ध को नियंत्रित करने की अपनी क्षमता के कारण चाहेगी कि उससे जुड़ा कोई व्यक्ति इस पद पर आए। थल सेना के अनुसार हमारे लिए रक्षा और युद्ध हेतु कॉन्टिनेंटल स्ट्रेटेजी ही सर्वोत्तम है इसलिए वह चाहेगी कि स्वाभाविक रूप से सीडीएस भी थल सेना का कोई व्यक्ति हो और थिएटर कमांड में थल सेना की केंद्रीय भूमिका हो।

ब्यूरोक्रेसी अब तक यह मानती रही है कि वैश्विक खतरों और जिम्मेदारियों का सामना करते देशों के लिए सीडीएस आवश्यक है किंतु भारतीय सेना की भूमिका तो हमारी सीमाओं की थल-जल और नभ में रक्षा तक सीमित है अतः सीडीएस की जरूरत नहीं है। अभी तक रक्षा मामलों की बारीकियों से अनभिज्ञ रक्षा मंत्रियों को अपने परामर्श के आधार पर चलाने वाले और सेना के तीनों अंगों को एक दूसरे के विरुद्ध मुकाबले में उतार कर अपनी मर्जी चलाने वाले ब्यूरोक्रेट क्या सीधे प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री को रिपोर्ट करने वाले सीडीएस से सहयोग करेंगे? यदि सीडीएस सेना से बाहर का कोई व्यक्ति होगा तो क्या उसे सैन्य प्रमुखों का आदर सम्मान और सहयोग मिलेगा। इन सवालों पर भी तब रोशनी पड़ेगी जब सरकार नियुक्ति प्रक्रिया का खुलासा करेगी। एक सवाल सीडीएस के कार्यकाल को लेकर भी है। वर्तमान में तीनों सेना प्रमुखों में से वरिष्ठतम प्रमुख, चेयरमैन ऑफ द चीफ्स ऑफ स्टॉफ कमेटी की अतिरिक्त भूमिका निभाता है।

एयर चीफ मार्शल बी एस धनोवा ने 31 मई 2019 को निवर्तमान नेवी चीफ एडमिरल सुनील लांबा से इस पद का कार्यभार ग्रहण किया। जब 30 सितंबर 2019 को वे सेवानिवृत्त होंगे तब थल सेना प्रमुख जनरल विपिन रावत इस पद पर काबिज होंगे जिनका रिटायरमेंट 31 दिसंबर 2019 को होगा। किन्तु भावी सीडीएस बिना लंबे कार्यकाल के दीर्घकालिक नीतियों का निर्माण और क्रियान्वयन नहीं कर सकता। यदि अन्य सैन्य प्रमुखों और ब्यूरोक्रेसी का दृष्टिकोण सीडीएस के प्रति सकारात्मक एवं उनका रवैया सहयोगपूर्ण नहीं रहता है तो यह आशंका बनी रहेगी कि सीडीएस सैन्य मामलों में एक नया शक्ति केंद्र न बन जाए और समस्याएं सुलझने के स्थान पर उलझ जाएं।

लेफ्टिनेंट जनरल एच एस पनाग के अनुसार राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार श्री अजीत डोभाल मोदी सरकार में डी फैक्टो सीडीएस का दर्जा रखते हैं, वे केवल एक कार्यकारी आदेश के द्वारा डिफेंस प्लानिंग कमेटी और स्ट्रेटेजिक प्लानिंग ग्रुप के प्रमुख हैं। पहले भी डिफेंस सेक्रेटरी डी फैक्टो सीडीएस का दर्जा रखते रहे हैं। यह रक्षा सचिव भी तीनों सेना प्रमुखों से स्टेटस की दृष्टि से जूनियर होते हैं। अब डिफेंस सेक्रेटरी का स्थान एनएसए ने ले लिया है। कई बार महत्वपूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नए पदों का सृजन किया जाता है और उस पर योग्य व्यक्ति की नियुक्ति की जाती है।

किन्तु कभी कभी ऐसा भी होता है कि किसी पद का सृजन करते समय सरकार के प्रमुख के मस्तिष्क में कोई ऐसा व्यक्ति होता है जो उसका प्रिय पात्र और विश्वसनीय होता है तथा जिसे इस पद के योग्य भी ठहराया जा सकता है बल्कि ऐसा कहें कि सत्ता प्रमुख यह पद उस व्यक्ति लिए ही गढ़ता है। आशा करनी चाहिए कि सीडीएस के पद का सृजन राष्ट्रीय आवश्यकताओं के आधार पर ही हुआ है और इस पर नियुक्ति भी योग्यता के उच्चतम मानकों के आधार पर ही होगी।

भारतीय लोकतंत्र की इन 72 वर्षों की यात्रा में पहली बार ऐसा हुआ कि 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी ने राष्ट्रीय सुरक्षा को एक प्रमुख मुद्दा बनाया और सफलता प्राप्त की। यद्यपि हमारे संविधान के अनुसार सेना पर लोकतांत्रिक सरकार का स्पष्ट नियंत्रण होता है इसके बावजूद जन प्रतिनिधियों के मन में यह आशंका बनी रही कि किसी एक व्यक्ति के पास समूची सैन्य शक्ति का केंद्रीकरण लोकतंत्र के लिए घातक हो सकता है, यही कारण है कि सीडीएस का विचार परवान न चढ़ पाया। राष्ट्रीय सुरक्षा पर कितना खतरा है और क्या इस खतरे का निराकरण केवल सैन्य कार्रवाई और युद्ध द्वारा संभव है तथा क्या पहले से भयानक मंदी की ओर बढ़ रही अर्थव्यवस्था इस युद्ध से पूर्णतः तबाह नहीं हो जाएगी-  यदि इस बहस में न भी पड़ा जाए तब भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि हमारी विदेश नीति के संचालन में सैन्य कूटनीति उत्तरोत्तर हावी हो रही है। सैन्य समाधान हिंसक होते हैं और शायद अस्थायी भी। यही स्थिति आंतरिक सुरक्षा के संदर्भ में भी है।

अब तक जिन समस्याओं को राजनीतिक प्रक्रिया और विचार विमर्श द्वारा सुलझाने का प्रयास होता था उनके भी समाधान का तरीका बदल रहा है। कई क्षेत्रों में सुरक्षा बलों और पुलिस को जन असंतोष से अपने तरीके से निपटने के अधिकार दे दिए गए हैं। हम जानते हैं कि यह तरीके कैसे होते हैं। सरकार को यह समझना होगा कि निर्णायक युद्ध जैसी अपरिपक्व अवधारणाएं प्रायः समाधान से दूर ले जाती हैं। कई बार गांठों को खोलने की हड़बड़ी उन्हें और मजबूत बना देती है और बल प्रयोग उस रस्सी को ही तोड़ देता है जिसे गांठों से मुक्ति दिलाई जा रही है। यथास्थितिवाद अच्छा नहीं है किंतु यह अविचारित निर्णायक कार्रवाइयों से तो बेहतर है। बहरहाल आने वाले समय में शायद सीडीएस देश के लोकतंत्र और इसके अन्य देशों के साथ रिश्तों के बारे में सबसे महत्वपूर्ण फैसले लेने वाला पद बन जाए। किंतु जिस दिन लोकतंत्र के फैसलों पर राजनीतिक दृष्टिकोण के स्थान पर सैन्य मानसिकता हावी हो जाएगी उस दिन लोकतंत्र भी खतरे में आ जाएगा। खतरा केवल सैन्य मानसिकता के हावी होने का ही नहीं है।

सीडीएस को सरकारी दल की राजनीतिक प्रतिबद्धताओं से भी स्वयं को निर्लिप्त रखना होगा। यह भारतीय राजनीति का ऐसा दौर है जब धर्म,जाति और क्षेत्र का विमर्श जनता के एक बड़े वर्ग को चिंताजनक रूप से आकर्षित कर रहा है। भारतीय सेना का संगठन अंग्रेजों ने जाति, धर्म और क्षेत्र के आधार पर बनाया था। भारतीय सेना की 22 रेजिमेंट्स ऐसी थीं जो जाति, क्षेत्र और धर्म के आधार पर बनाई गई थीं। आज की भारतीय सेना में यद्यपि कोई भी भारतीय नागरिक प्रवेश पा सकता है किंतु सेना स्वयं सुप्रीम कोर्ट के सम्मुख एक हलफनामे में यह स्वीकार कर चुकी है कि सेना की कुछ रेजिमेंट्स को सामाजिक, सांस्कृतिक और भाषाई समानता के आधार पर संगठित किया गया है ताकि इन सैनिकों के मध्य बेहतर तालमेल से सेना की शक्ति बढ़े और युद्ध में विजय प्राप्त हो। आज जब सोशल मीडिया के देशभक्त- जो वस्तुतः किसी दल विशेष के प्रचार तंत्र का भाग होते हैं- यह गणना करने लगते हैं कि किस जाति और किस धर्म के कितने जवान शहीद हुए तो चिंतित होना ही पड़ता है।

ऐसे ही जब सोशल मीडिया पर मौजूद इन राजनीतिक दलों के स्वयंभू रक्षा विशेषज्ञ यह संदेह करने लगते हैं कि अपनी ही जाति के या अपने ही धर्म को मानने वाले शत्रु या आतंकी से मुकाबले में हमारे सैनिकों के मन में कोई दुविधा पैदा हो सकती है तो यह चिंता और बढ़ जाती है। जब वीर जवानों की शहादत को चुनावी पोस्टरों में इस्तेमाल किया जाता है तब भी खतरे की आशंका से मन कांप उठता है क्योंकि इन जवानों की कुर्बानी देशभक्ति के उनके जज़्बे को दर्शाती है न कि किसी राजनेता और उसके राजनीतिक दल की सरकार के प्रति उनकी वफादारी को। जब सरकार की प्रदर्शनप्रियता का विरोध करने के स्थान पर सैनिकों के शौर्य और पराक्रम पर सवाल उठाए जाते हैं तब भी एक गलत परंपरा के प्रारंभ पर मन व्यथित हो जाता है। यह ऐसा दौर है जब उच्च सैन्य अधिकारी राजनेताओं की भांति बयानबाजी करते देखे जाते हैं और शीर्ष राजनेता एयर स्ट्राइक जैसी कार्रवाइयों के संचालन का श्रेय लेते फूले नहीं समाते। नियंता से प्रार्थना ही की जा सकती है कि वह चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ को आधुनिक राजनीति की इन विद्रूपताओं से बचाए रखे और उसे लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति आस्थावान भी बनाए रखे।

(डॉ. राजू पाण्डेय स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं और आजकल रायगढ़ में रहते हैं।)

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