संविधान, लोकतंत्र, राष्ट्रीय एकता, सभ्य और बेहतर जीवन हमारा हक है

ऐतिहासिक रामलीला मैदान में विपक्षी गठबंधन की ‎‘लोकतंत्र बचाओ’‎ रैली सफलतापूर्वक शुभ-शुभ संपन्न हुई। सफल इसलिए कि उसका संदेश इस कठिन समय में लोगों का भरोसा हासिल करने में कामयाब रही है। कठिन समय में भारत के लोग अपनी मानसिक स्थिति को बहुत तेजी से संभालने में कामयाब होते हैं। भारत के लोग बहुत ही धैर्य और हौसले से अपने दर्द को दवा बना लेने में कामयाब होते आये हैं।

उदाहरण के लिए कई प्रसंग बताये जा सकते हैं। फिलहाल, एक उदाहरण तो 31 मार्च 2024 का ‎‘लोकतंत्र बचाओ’‎ रैली से भी निकल रहा है। अभी तो शुरुआत है। आगे न्याय का रास्ता लंबा है। रास्ते में ना मालूम मिलेंगे कितने कैसे रूपों में ठग ठाकुर बटमार! लेकिन इतनी आसानी से भारत के लोकतंत्र को पराजित करना आसान न होगा। हमारे पुरखों ने बहुत त्याग, तपस्या और बलिदान से भारत के लोकतंत्र का गठन किया है। यह उन पुरखों के प्रति सम्मान और समर्पण का अवसर है।

हमारे पुरखों के दिल और दिमाग में दूरंदेशी भरी पड़ी थी। वे अपने देश के प्रति भावुक सांद्रता से भरे थे। यहां से वहां तक अपने देश का विस्तार न सिर्फ उन्हें आनंदित करता था, बल्कि अचंभा से भी भर देता था। उन्होंने विदेश के छोटे-छोटे देशों की हालत को भी अपनी आंख देखा था। वे दरिद्रता में फंसे लोगों की नियति को देखकर दुखी थे।

भारत की आजादी के आंदोलन के ऐतिहासिक संदर्भों को संक्षेप में याद कर लेना ‎प्रासंगिक है। महात्मा गांधी अंग्रेजों के खिलाफ नहीं मानव दासता के खिलाफ ‎संघर्षशील थे। वे जीवन यात्री थे। सभ्यता के गलत रास्ते पर चले जाने से चिंतित ‎और दुखी थे। उनका मूल्य-बोध जीवन यात्रा के कठिन रास्तों पर गुजरते हुए हासिल ‎हुआ था। महात्मा गांधी पर फिर कभी, अभी तो इतना ही कि वे तमाम सहमति-‎असहमति के बावजूद भारत की आजादी के आंदोलन के जीवंत प्रतीक थे। ‎

हमारे पुरखे अंग्रेजों की औपनिवेशिक दासता से आजादी चाहते थे तो इसलिए कि उन्हें अपने देश के लोगों से प्यार था, मुहब्बत थी। यह देश के लोगों के प्रति प्यार और मुहब्बत की दीवानगी ही थी कि फांसी, गोली, डंडा, या किसी भी तरह के अत्याचार की परवाह किये बिना अंग्रेजों की औपनिवेशिक दासता के विरुद्ध वे लगातार, देश के लोगों के प्रति सम्मान, अपने लक्ष्य के प्रति समर्पण, वैश्विक परिस्थिति की समझ और पारस्परिक सहानुभूति के साथ सतत संघर्षशील बने रहे थे। प्यार और मुहब्बत यों ही नहीं हो जाती है! जिन्हें होती है देश के लोगों के प्रति प्यार और मुहब्बत की दीवानगी वे सिर्फ सपनों के नर्म आकाश में ही नहीं विचरते हैं, जीवन के हकीकत की कठोर भूमि को भी पहचानते हैं। उस जमीन की हल्की-सी ही, सही याद तो आनी चाहिए कि हम आज के हालात को समझ सकें।

हमारे पुरखों ने विश्व युद्धों के कारणों और परिणामों को करीब से महसूस किया था। विश्व युद्धों से विदीर्ण मानवता और औपनिवेशिक दासता के कारण अपने देश के लोगों को दरिद्रता (destitution) के अथाह सागर में डूबते-उतराते भी देखा था। भले ही राजे-रजवाड़े तोपों की सलामी गिनने में मस्त रहे हों, इतने बड़े देश के लोग रोजी-रोजगार के अभाव में गुलामी की सभी शर्तों को मान लेने के लिए मजबूर हो गये थे। फिर अंग्रेज सरकार बहुत ही अमानवीय एग्रीमेंट के आधार पर हजारों स्त्री-पुरुष मजदूरों को दक्षिण अफ्रीका एवं अन्य देशों में 1836 से भेजे जाने की नीति चालू की। उनके शोषण की कोई इंतिहा नहीं थी।

प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) और द्वितीय विश्व (1939-1945) के बीच गिरमिटिया प्रथा ने भारत के मजदूरों का कैसा और कितना भयावह शोषण किया, शक्ति का शाब्दिक वर्णन करना बहुत मुश्किल है। महात्मा गांधी ने इस अमानवीय प्रथा के विरुद्ध दक्षिण अफ्रीका से एक अभियान ‎शुरू कर दिया। इसमें गोपाल कृष्ण गोखले, सी एफ एंड्रयूज, मदन मोहन मालवीय, ‎हेनरी पोलाक, सरोजनी नायडू, जैसे भारतीय नेताओं के साथ फिजी के तोता राम ‎सनाढ्य और कुंती को भी याद किया जाता है। महात्मा गांधी की पहल पर 1912 में ‎इसे समाप्त करने का जो अभियान शुरू हुआ था, वह1936 में वह सफल हुआ, ‎गिरमिटिया प्रथा बंद कर दिया गया। गिरमिटिया शब्द एग्रीमेंट का ही रूप है।

आज भारत में बेरोजगारों की संख्या भयावह हो गई है। ऐसे में भयानक खबर आती रहती है कि भारत के लोगों को रोजी-रोजगार के लिए फिर से गिरमिटिया प्रथा का कोई विकृत रूप प्रचलन में लाया जा रहा है। भारत बहुत बड़ा बाजार बनेगा, कुछ लोग दुनिया के बेहतरीन उत्पादों का उपभोग करेंगे और उन उत्पादों के लिए भारत के बेरोजगार लोग विदेशों में फिर से गिरमिटिया जिंदगी जीने को मजबूर होंगे! एक क्षण सोचकर देखिए, महसूस कीजिए और कहिए कि आत्मा कांपती है या नहीं कांपती है। अगर फिर से ऐसा होता है, तो हम न पुरखों को मुंह दिखाने के काबिल रहेंगे और न बच्चों को।

एक बात हर किसी को ठीक से समझ लेनी चाहिए कि भारत भ्रष्टाचार के कारण ‎गुलाम हुआ था, लेकिन इसकी आजादी मतपेटी से सत्ता बदल जितनी आसानी से ‎नहीं मिली थी। आज भारत में भ्रष्टाचार का बहुत बड़ा फांस और फंदा बन गया है। यदि ‘हम भारत के लोग’ इस फांस और फंदे‎ को अभी और इस बार नहीं काट सके तो सुनिश्चित गुलामी में पड़ने के खतरे को झेल पाना आसान नहीं होगा। इस फांस और फंदे‎ को भी समझदार मतदान से काट पाना संभव दिख रहा है।

कहना न होगा कि खतरा संविधान पर है, लोकतंत्र पर है। हमें लोकतंत्र से संविधान मिला है या संविधान से लोकतंत्र! इसका जवाब ढूंढने के पहले यह समझ लेना चाहिए कि संविधान और लोकतंत्र एक ही यथार्थ के दो वास्तविक पहलू हैं। संविधान और लोकतंत्र की शक्ति ने ही देश को एकता और एकता के सूत्रों के लिए अनिवार्य संघात्मकता के सूत्रों में पिरोकर रखा है। संविधान का नागरिकों और संघात्मकता संरचना के प्रति कठोर होते जाना लोकतंत्र को कठिन, असाध्य और अंततः अलभ्य बनाते जाता है।

भारत के संघात्मक ढांचे से छेड़-छाड़ भारत के संविधान की मूल भावनाओं के साथ ही छेड़-छाड़ है। संविधान में साफ-साफ लिखा है India, that is Bharat, shall be a Union of States.(इंडिया, जो भारत है, राज्यों का संघ होगा।) लेकिन ऐसा लगता है कि इस समय जो भारत की सत्ता में हैं, वे मानते हैं कि भारत ‎‎‘राज्यों का संघ’ नहीं, बल्कि ‎‘एकात्मक राज्य’ ‎है। उनके अनुसार इकाइयां ‘एकात्मक‎ राज्य’ का अंगभूत है।

बहुत विचार विमर्श के बावजूद संविधान सभा में ‘India, that is Bharat, shall be a Union of States’ को स्वीकृत हुआ। लेकिन संविधान सभा की भावनाओं और स्वीकृति के विपरीत मनोभाव वर्तमान सत्ताधारी दल का बना हुआ है। कहना न होगा कि विविधता और बहुलता से संपन्न भारत की राष्ट्रीय एकता संघात्मकता की बुनियाद पर टिकी हुई है। इस बुनियाद को तहस-नहीं करने की तार्किक परिणति कितनी भयावह हो सकती है, इसका अनुमान लगाना इतना मुश्किल तो नहीं है!

व्यक्ति की एककेंद्रिकता सर्वसत्तावादी रुझान के कारण न ‘शक्ति के पृथक्करण’ की भावना के प्रति कोई सम्मान बचा है, न वैज्ञानिक मनोभाव के प्रति कोई आग्रह और अपील बचा है। आजादी के आंदोलन के तपे-तपाये हमारे पुरखे भारत की राष्ट्रीय एकता के मामले में बहुत संवेदनशील थे। संवेदनशीलता और भावुकता में अंतर ‎होता है। संवेदनशीलता का बुद्धिमत्ता से कभी ‎भी विच्छेद नहीं हो सकता है। ‎संवेदनशीलता और बुद्धिमत्ता के अलगाव ‎से कोरी भावुकता का जन्म ‎होता है। भावुकता को संवेदनशीलता समझ लेने से बहुत सारी गलतफहमियां पैदा हो जाती हैं। ऐसी गलतफहमियां किसी को भी भरमा सकती है।

आजादी के आंदोलन के दौरान संवेदनशीलता के साथ निष्कंप और ‎निष्कपट बुद्धिमत्ता और कोरी भावुकता दोनों ‎एक साथ सक्रिय थी। धर्म के आधार पर सांप्रदायिक हो-हल्ला और देश विभाजन के उस भयानक दौर में भी संवेदनशीलता के साथ निष्कंप बुद्धिमत्ता अधिक प्रभावी साबित हुई और इसी ‎प्रभा-‎प्रक्रिया में भारत का संविधान बना। भावुकता को संविधान के बनने की प्रक्रिया के विभिन्न प्रावधानों ‎से गहरी असहमति थी, विरोध भी ‎था। धीरे-धीरे इसका ‎प्रभाव और राजनीतिक साहस भी बढ़ता गया।

बहुदलीय लोकतंत्र की यही खूबसूरती है कि सत्ता से कोई शिकायत हो तो उसके पास विकल्प हमेशा मौजूद रहता है। सत्ता और शासन कोई भी हो उससे जनता को कोई-न-कोई शिकायत तो हो ही जाती है। दलों के बीच सत्ता का अदल-बदल होना बहुत ही स्वाभाविक घटना होती है। क्योंकि, कोई भी लोकतांत्रिक दल इतना योग्य नहीं हो सकता है, जो लोकतांत्रिक जनता को निर्विकल्प बना दे।

जनता को निर्विकल्प बना देने की ‘भयानक योग्यता’ रखनेवाला कोई दल यदि लोकलुभावन राजनीति के माध्यम से सत्ता पर काबिज हो जाता है तो वह न खुद लोकतांत्रिक रह जाता है और न सत्ता के मिजाज को ही लोकतांत्रिक रहने देता है। भारत में ठीक यही हुआ। भारतीय जनता पार्टी ने सत्ता में आते ही कांग्रेस मुक्त का नारा लगाते-लगाते विपक्ष मुक्त भारत बनाने के ‘एकोअहं’ के खेल में लग गया। इस खेल का सबसे बड़ा बाधक खुद लोकतंत्र होता है। लोकतंत्र कभी भी ‎‘एकोअहं’ ‎के मंसूबे को सफल नहीं होने देता है।

‎‘एकोअहं’ ‎ का मंसूबा रखनेवाला लोकतंत्र के उच्छेद में लग जाता है। यह इतना आसान नहीं होता है। बाकी दल मिलकर लोकतंत्र के बचाने की राजनीतिक कोशिश में लग जाते हैं। ध्यान से देखिए तो 31 मार्च 2024 को दिल्ली के ऐतिहासिक रामलीला मैदान में इं.ड.इ.आ (I.N.D.I.A – इंडियन नेशनल डेवलेपमेंटल इनक्लुसिव अलायंस) की ‘लोकतंत्र बचाओ’ रैली में यही तो हुआ! इस ऐतिहासिक रैली में विपक्ष मिलकर ‎‘एकोअहं’ ‎की ‎‘भयानक योग्यता’ से भारत के लोकतंत्र को बचाने का आह्वान किया है। विपक्ष के मुख्यमंत्रियों को जेल में बंद कर दिया गया है, कांग्रेस पार्टी का बैंक खाता बंद कर दिया है।

कमाल है कि आदर्श आचार संहिता (Model Code of Conduct) ‎बिल्कुल ‘मनदुरुस्त’ और केंद्रीय चुनाव आयोग का संवैधानिक दायित्व बिल्कुल अक्षुण्ण है। स्वतंत्र निष्पक्ष निर्भय एवं दबाव से मुक्त वातावरण में आम चुनाव संपन्न करवाने संघर्ष के समान अवसर (Level Playing Field)‎ को अद्भुत डिजिटल बना दिया गया है। केंद्रीय चुनाव आयोग से शिकायत कर, उन्हें कष्ट न दें। अब आम मतदाताओं की बारी है कि फिजिटल Phygital‎ (Physical+Digital)‎ भूमिका का पालन करना है।

भय-भूख-भ्रष्टाचार से खस्ता हाल बने लोगों, महंगाई, बेरोजगारी से परेशान लोगों स्त्री-पुरुष आदि सभी आम मतदाताओं को अपना फिल्ड समान रखते हुए शांतिपूर्ण ढंग,पूर्वग्रह मुक्त मन-मस्तिष्क और खुले दिल से अपना मतदान अवश्य करना है। संविधान, लोकतंत्र, राष्ट्रीय एकता, सभ्य और ‎बेहतर जीवन हमारा हक है। इस हक के लिए लोकतंत्र को बचाना होगा। हां, सात चरण में मतदान होंगे। जिस भी चरण में मतपेटी की तरफ बढ़ने का शुभ अवसर मिले आगे बढ़कर भारत के लोकतंत्र को बचाना जरूर है।

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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