Tuesday, April 23, 2024

डिलीटः डार्विन के सिद्धांत में ये शब्द नहीं है!

डार्विन के सिद्धांत में डिलीट शब्द नहीं है। वह विकासवाद की अवधारणा लेकर आये थे। इसने विज्ञान, पर्यावरण और यहां तक कि नृविज्ञान के अध्ययन में एक नई दिशा दे दी थी। इसने विकास, चुनाव, अनुकूलन और विकास की एक ऐसी पद्धति को पेश किया, जिसमें प्रत्येक जीव, इसमें पौधा भी है, अपने पीछे अपने चिन्ह को छोड़ता हुआ चलता है और एक उन्नत मंजिल को हासिल करता है।

इसने इतिहास के अध्ययन, खासकर प्राक-इतिहास के अध्ययन में एक सहायक की भूमिका का निर्वाह किया और इतिहास को उसके पर्यावरण के साथ अध्ययन को संभव बनाया। डार्विन के सिद्धांत के साथ साथ कुछ और भी विकास की संभावना के संदर्भ में सिद्धांत आये। इसमें उत्परिवर्तन की अवधारणा भी कम रोचक नहीं रही है। लेकिन, इन सारी अवधारणाओं में किसी भी मंजिल पर डीलीट की उपस्थिति नहीं है।

डार्विन के सिद्धांत की अगली कड़ी बाद के वैज्ञानिकों ने जोड़नी शुरू की। खासकर, इंसान में जो व्यवहारगत विकास हुआ है, उसकी विकास की कड़ियां क्या क्या हैं? खासकर, भोजन और प्रजनन से जुड़ी आदतें और उनके विकास पर काफी काम हुआ। इसी तरह मनोभाव, शरीर और पर्यावरण के बीच का रिश्ता आज के समय में शोध का अहम हिस्सा बना हुआ है।

हम अक्सर कुछ मनोरंजक खबरों को विदेशी न्यूज ऐजेंसियों के हवाले से पढ़ते हैं कि संगीत का पौधों पर कैसा असर रहा, क्या पौधे भी रोते हैं, क्या वे आपको बुलाते हैं, आदि, आदि। हम अक्सर ही ऐसी खबरों को बड़ी रूचि और आश्चर्य से पढ़ते हैं।

ज्यादा समझदार लोग अक्सर बोल जाते हैं; ठीक ही तो है, जब सभी को ईश्वर ने बनाया है, जान डाला है तो भाव भी तो सबमें डाला ही होगा। ऐसे पाठकों की ऊंसास भरी आह से, डार्विन का विकासवाद डीलीट नहीं होता। शोध चलते रहते हैं और अगले रोज कुछ और ऐसी मनोरंजन करती खबरें आ ही जाती हैं।

ऐसी ही एक खबर की ओर आपका ध्यान ले जाना चाहता हूं। हमारे खेतों में अक्सर पाया जाने वाले केंचुएं पर वैज्ञानिकों ने 40 साल अध्ययन किया और कुछ निष्कर्ष निकाला। पत्ती और मिट्टी खाने वाला यह जीव जमीन की उर्वरता बढ़ाता है। डार्विन ने अपने अध्ययन में इसके बारे में लिखा था कि इसने मानव इतिहास में किसी भी जीव से ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है।

उन्होंने बताया कि मानवीय संदर्भ में यह न तो देख सकता है और न ही सुन सकता है, लेकिन अपने शरीर के स्पर्श से किसी वस्तु की जानकारी जरूर हासिल कर लेता है। इसके बाद, अभी हाल में वैज्ञानिकों ने ‘खुशी’ के प्रभावों का अध्ययन इसी जीव पर किया। उन्होंने देखा कि जब भी केचुआ गांजा की पत्तीयों को खाता है तब उसमें ज्यादा कैलोरी लेने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है। ठीक वैसे ही जैसे गांजा का प्रयोग इंसानों में भोजन करने की क्षमता को बढ़ा देता है।

यहां वैज्ञानिक एक और तथ्य पर जोर दे रहे हैं, और वह है गांजा का पौधा जो खेतों में यूं ही खूब उग आता है, उसका असर हमारे खेतों, जीवों और पर्यावरण पर क्या पड़ रहा है।

जीवों की विकास यात्रा के करोड़ों वर्ष पहले की ओर जायें, तब जीवों की अलग अलग विकास यात्राएं पीछे की ओर मुड़ते हुए आपस में मिलती हुई दिखती हैं। बहुत सारी सहज या असहज लगने वाली प्रवृत्तियां विकासवाद के सिद्धांत से समझने पर हमें अपने समाज, जीवन और पर्यावरण के ज्यादा करीब ले जाती है, और भाव के स्तर पर इंसान को ज्यादा उदात्त बनाती हैं।

तेजी से बढ़ रहे शहरीकरण का पक्षियों पर क्या असर पड़ रहा है, इस संदर्भ में 137 शहरों की 3,768 पक्षियों पर प्राथमिक अध्ययन किया गया। शहर को झेल पाने के लिए निश्चित ही इन पक्षियों के शरीर में रातों-रात बदलाव नहीं आने वाला है। यह बदलाव बहुत ही धीमी गति से होता है और ऐसे बदलाव के लिए सिर्फ जरूरत ही नहीं पूरे पर्यावरण में बदल रही स्थितियां भी होती हैं। लेकिन, शहरीकरण इनके सामने चुनौती जरूर पेश कर रहा होता है।

शहरीकरण को झेल सकने की क्षमता उन पक्षियों में अधिक पाई गई है, जो छोटी हैं, समूह की बजाय थोड़े बिखराव के साथ रह रही हों, भोजन की विविधता हो, पंजे मजबूत हों और कम ऊंचाई पर उड़ने की क्षमता हो। हालांकि, अलग अलग शहरों में परिस्थितियां और जरूरतें बदलती हैं, तब पक्षियों के व्यवहार और उनके बने रहने की संभावनाएं भी अलग अलग हो जाती हैं।

यदि कोई सरकार, संस्थान या व्यक्ति शहर में जैव विविधता और जैविक संरक्षण के लिए बहुत ही फिक्रमंद है, तब सिर्फ उसे अपनी भावनाओं, दावों आदि पर निर्भर होने की बजाय, जीवों के व्यवहार और देय परिस्थियों का अध्ययन बेहद जरूरी होगा। यह मानकर चलना कि बदलाव तो अनिवार्य है और इसके साथ जो परिस्थितिकी बनेगी उसमें सभी अनुकूलन कर लेंगे, एक खतरनाक अवधारणा है।

यहां हम भूल जाते हैं कि बदलाव का मुख्यकारक इंसान की हरकते हैं, जो बहुत ही सचेत और तयशुदा हस्तक्षेप कर रहा होता है, इसका प्रभाव परिस्थितिकी पर एक तरफा होता है और इसका परिणाम बेहद घातक होता है। यह अनुकूलन की परिस्थिति के बजाय, विनाश की परिस्थिति पैदा करता है।

एक ऐसा ही खतरनाक परिणाम कोलकाता में एक आदमी के प्लांट फंगस से ग्रसित होने का मामला सामने आया है। यह अजीबोगरीब सी लगने वाली खबर, बेहद चिंतित करने वाली है। यह पहली प्लांट फंगस बीमारी है जो इंसान को लगी है। बीमारी से ग्रस्त इंसान की आवाज कर्कश हो गई, उसे थकान रहने लगी और निगलने में कठिनाई होने लगी। उसे लगातार बुखार रह रहा था। उसे यह समस्या तीन महीने तक रही। यह व्यक्ति पौधों को होने वाली बीमारी सिल्वर लीफ डिसीज को बनाने वाले चोंड्रोस्टेरियम परप्यूरियम नामक एक प्लांट फंगस की चपेट में आ गया था।

यदि हम नियतिवाद को मानते हों तो, यही कहेंगे कि बीमारी तो बीमारी है, क्या पौधा, क्या इंसान, सभी चपेट में आते हैं। लेकिन, यदि हम थोड़ा भी विज्ञान से परिचति हों तब यह खबर परेशान कर देगी। आमतौर पर कवक-फंजाई 12 डीग्री सेंटिग्रेड से लेकर 30 डीग्री सेंटिग्रेड पर सक्रिय रहते हैं। लेकिन, यह देखा गया है कि कुछ 37 डीग्री सेंटिग्रेड पर भी जीवित रह गये हैं।

मुनष्य के शरीर का तापमान आमतौर पर 33 डीग्री से ऊपर रहता है। ऐसे में अमूमन शरीर के कुछ हिस्सों को छोड़कर फंगस लगने की संभावना कम ही रहती है। शरीर के आंतरिक हिस्से में इसकी संभावना और भी कम हो जाती है। विज्ञानिकों ने कोलकाता में हुए पहले इंसानी संक्रमण पर चिंता व्यक्त किया है, और इसके लिए ग्लोबल वार्मिंग से पड़ने वाले प्रभाव को एक कारण के रूप में चिन्हित किया है।

ग्लोबल वार्मिंग यानी धरती के कुल तामपान में हुई वृद्धि में पौधों और उन्हें लगने वाली बिमारियां अब ऊंचे ताममान में बने रहने की अनुकूलन क्षमता हासिल कर रही हैं। यह खतरनाक स्थिति है। हम डार्विन को पढ़ें या न पढ़ें, परिस्थितिकी में हो रहे बदलाव को समझने की खिड़की डार्विन के सिद्धांत से ही खुलती है।

यदि आपने ‘घासीराम कोतवाल’ नाटक पढ़ा या देखा हो तो, तब आप जरूर ही उस दृश्य से गुजरेंगे जिसमें ईश्वर के प्रति रची गई श्रृंगार-रस की कविता का पाठ राजा में कामुकता पैदा करती है। उदात्तता के संदर्भ में यह दृश्य राजा की लंपटता और सतहीपन को सामने ला देता है। हम यौन-शुचिता और व्यवहार को लेकर पूरी दुनिया में अलग-अलग नैतिकता पाते हैं और उसी से जुड़े हुए कानून भी, जिसका उलघंन होने पर सजा तय होती है।

आमतौर पर अनैतिकता को पशुओं के यौन-व्यवहारों से जोड़कर देखा जाता है और उनके संदर्भ में मनुष्य से उदात्त व्यवहार की उम्मीद की जाती है। उदात्तता की पराकाष्ठा आमतौर पर ईश्वरीय व्यवहारों से जोड़ दी जाती है। हालांकि हम जानते होते हैं, कि यौन व्यवहार किसी तयशुदा नियमों के बाद विकसित नहीं हुए, बल्कि यह समाज के विकास की विभिन्न मंजिलों से गुजरते हुए बने हैं। और, समाज बनने के पहले इंसान बनने की प्रक्रिया में वह उन्हीं यौन व्यवहारों के साथ आगे आये जिसे वह अपने पूर्ववर्तियों से हासिल किये थे।

यहां तक कि मधुमक्खियों के यौन व्यवहार, खासकर संगी चुनने की प्रक्रिया के चिन्ह इंसानों तक आते हैं। स्तनपायी जानवरों के बहुत से यौन व्यवहार, यहां तक कि कथित अल्फा की दावेदारी, इंसानों के व्यवहार में दिखायी देता है। हम भले ही कुत्तों, बिल्लियों या बंदरों को अपनी नैतिकता पर परखने की आदत डाल रखे हों, लेकिन अक्सर ही हम उससे भी बदतर स्थितियों का सामना तब करते हैं जब अपने ही परिवार, समाज, देश के लोगों पर उन्हीं नैतिकताओं के आधार पर जान तक लेने पर उतर आते हैं।

यौन-शुचिता और व्यवहार पर बल पूर्वक नियंत्रण एक उद्देश्य के तहत ही किया जाता है। इसका सबसे अधिक स्पष्ट लक्ष्य श्रम और श्रमिक पर नियंत्रण करना ही होता है। भारत जैसे समाज में यौन-शुचिता और व्यवहार को जाति के आधार पर अलग-अलग निर्धारित किया गया और इसके उलघंन पर जाति के अनुसार ही दंड निर्धारित किया गया। और, इन सब विभाजनों और दंड के लिए ईश्वरीय मान्यताएं स्थापित की गईं और इसे नियति की तरह स्थापित किया गया।

खानों में बंटा हुआ समाज अपनी नियति के साथ विकसित हुआ और नियतिवाद से ग्रस्त रहा। जबकि, शासक वर्ग उदात्तता की बात करते हुए पूरी तरह से लंपट, अर्थहीन, विनाशकारी व्याभिचार भरी जिंदगी जीता रहा है। आज भी इसमें कमी नहीं आई है। इसके लिए विकासवाद का सिद्धांत उसके नियतिवाद के अनुकूल नहीं है। इस शासकवर्ग में अनुकूलन की क्षमता भी नहीं है। ऐसे में उसने तय किया डार्विन को ही डीलीट कर दिया जाये। डार्विन डिलीट नहीं हो सकता, विकासवाद का सिद्धांत बना रहेगा।

(अंजनी कुमार स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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राजेश आज़ाद
राजेश आज़ाद
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11 months ago

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