Friday, March 29, 2024

नागरिकता संशोधन कानून पर जनमत संग्रह है दिल्ली का नतीजा

दिल्ली के चुनाव की वस्तुगत विश्लेषण की जरूरत है। जिस चुनाव में देश की सबसे मजबूत केंद्रीय सत्ता ने अपने सभी कैबिनेट मंत्रियों को उतार दिया हो। जिसके सारे सांसद गलियों-गलियों में प्रचार कर रहे हों। पार्टी से जुड़े तमाम मुख्यमंत्रियों की धुंआधार सभाएं हो रही हों। पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा हो। मीडिया के पूरे लश्कर को अपने पक्ष में माहौल बनाने के लिए तैनात कर दिया गया हो। और इस तरह से जीत के लिए कोई कोर-कसर न छोड़ी गई हो। इसके साथ ही चुनाव एक ऐसे मौके पर हो रहा हो जब एक खास मुद्दा पूरे देश में गरम हो। और खुद केंद्र सरकार उस पर एक कदम पीछे न हटने की बात कर रही हो। तब इस चुनाव को सामान्य चुनाव नहीं कहा जा सकता है।

राज्य छोटा होने के बावजूद मौका बड़ा था। इसलिए उसके नतीजे भी बड़े माने जाएंगे। लिहाजा संक्षेप में कहा जा सकता है कि यह चुनाव पूरी तरह से राजनीतिक था। और केंद्र सरकार के सीएए और एनआरसी पर अपनी तरह का जनमत संग्रह था। साथ ही अपने आखिरी नतीजे में यह नफरत और घृणा के खिलाफ प्यार, भाईचारे और एकता के पक्ष में खड़ा होने का संदेश देता है।

केवल फ्री बीज की जीत बताना थोड़ी और राजनीतिक परिपक्वता की मांग करता है। इस बात में कोई शक नहीं कि इसकी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका थी। लेकिन प्राथमिक रूप से यह बीजेपी के खिलाफ जनादेश है। जनता ने सांप्रदायिक उन्माद को खारिज कर दिया है। और उसके खिलाफ गोलबंदी निचले स्तर से हुई है। जिस तरह से अमित शाह ने शाहीन बाग को मुद्दा बनाया। और केंद्रीय मंत्रियों द्वारा गोली मारने से लेकर बलात्कार और हत्या की डरावनी चेतानियां दी गयीं उसके बाद किसी को इस बात का भ्रम नहीं रह जाना चाहिए कि बीजेपी किस एजेंडे पर चुनाव लड़ रही थी। लेकिन यहां भी जनता उसके मुकाबले के लिए तैयार थी।

अनायास नहीं आप के अलावा दूसरे विपक्षी दलों के मत प्रतिशत सिमटकर 5-7 फीसदी रह गए। 15 सालों तक सत्ता में रही कांग्रेस पांच फीसदी भी मत नहीं हासिल कर सकी। सीट तो बहुत दूर की बात है। बीजेपी के खिलाफ वोटों के बंटवारे को रोकने के लिए जनता खुद मुस्तैद थी। नतीजतन एकजुट होकर उसने बीजेपी के खिलाफ वोट डाला।

इसका सबसे बड़ा उदाहरण खुद ओखला है जिसमें शाहीन बाग आता है। यहां बताया जाता है कि हिंदुओं की आबादी 42 फीसदी है और मुसलमान 55 फीसदी से ऊपर हैं। लेकिन यहां आम आदमी पार्टी के अमानतुल्लाह खान को 66 फीसदी वोट पड़े हैं। अगर मुसलमानों की सारी की सारी आबादी वोट कर दे जबकि ऐसा कहीं होता नहीं है, फिर भी उसका वोट प्रतिशत 55 से ऊपर नहीं जाएगा। ऐसे में अमानतुल्लाह के बाकी 10-12 फीसदी वोट किसके हैं? जाहिरा तौर पर हिंदुओं के हैं।

बताया जा रहा है कि इलाके में डेढ़ वार्ड हिंदू बहुल हैं। जिसमें जसोला समेत उसके पास के कई इलाके आते हैं। समझा जा सकता है कि अगर जसोला के इन हिंदुओं को शाहीन बाग रोड के बंद हो जाने पर एतराज नहीं है जिनको कि सबसे ज्यादा परेशानी उठानी पड़ रही है तो फिर बाकी हिंदुओं पर उसका क्या असर पड़ने जा रहा है। लिहाजा कहा जा सकता है कि शाहीन बाग से जुड़े बीजेपी के नरेटिव को खुद वहीं के हिंदुओं ने खारिज कर दिया। 

यह बात सही है कि केजरीवाल के बिजली, पानी, सड़क और तमाम बुनियादी सुविधाओं को मुहैया कराने का मुद्दा चुनाव के केंद्र में रहा है। लेकिन दूसरा सच यह भी है कि फ्री बीज में बीजेपी इससे भी आगे थी। उसने लड़कियों को स्कूटी देने से लेकर जनता को तमाम तरह के मुफ्त सामान बांटने के वादे किए थे और इन सबसे बढ़कर अवैध कॉलोनियों के रजिस्ट्री का वादा ही नहीं किया था बल्कि बताया जा रहा है कि चुनाव से पहले उस पर काम भी शुरू हो गया था। जिसके पूरा हो जाने पर पांच लाख के एक मकान की कीमत 50 लाख हो जाती।

ये मुद्दे केजरीवाल के फ्रीबीज पर भारी थे। लेकिन जनता ने उन पर भरोसा नहीं जताया। यही नहीं कांग्रेस ने  5-7 हजार रुपये प्रति माह का बेरोजगारी भत्ता देने का ऐलान किया था। जो किसी भी लिहाज से केजरीवाल द्वारा दी जा रही तमाम सुविधाओं से बड़ा था। लेकिन जनता ने उसे दरकिनार कर दिया।

इस बात में कोई शक नहीं कि केजरीवाल लगातार शाहीन बाग, सीएए और एनआरसी पर कोई स्टैंड लेने से बचते रहे। खुद उन्होंने या फिर उनके किसी नेता ने एक बार भी शाहीन बाग जाना जरूरी नहीं समझा। नतीजे बताते हैं कि इस मामले में जनता उनसे आगे खड़ी हो गई। इस मामले को लेकर एक निष्कर्ष तो निकाला जा सकता है कि बीजेपी के वैचारिक हमले के खिलाफ अभी भी कोई राजनीतिक दल मोर्चा लेने के लिए तैयार नहीं है। और कमोबेश उसी के वैचारिक दायरे में रहकर काम कर रहा है।

वह केजरीवाल हों या कि अखिलेश या फिर मायावती और एक हद तक आरजेडी के तेजस्वी भी। यहां तक कि कांग्रेस भी। विरोध के नाम पर कुछ टोटकों के अलावा उसके पास अपना कोई स्वतंत्र कार्यक्रम नहीं है। लेकिन जनता के स्तर पर होने वाले प्रतिरोध ने इसे एक नया आयाम दे दिया है। राजनीतिक नेतृत्व भले नहीं खड़ा हुआ लेकिन जनता खड़ी हो गई। इस लिहाज से यह जीत आप से ज्यादा जनता और उसके प्रयासों की जीत है।

दअरसल आप अभी तक एक राजनीतिक पार्टी के तौर पर विकसित ही नहीं हो पाई है। किसी भी राजनीतिक दल का देश और समाज के तमाम सवालों पर एक स्पष्ट रुख होता है। और कोई भी पार्टी उससे बच नहीं सकती है। लेकिन आप के मामले में देखा जाता है कि आरक्षण से लेकर सांप्रदायिकता जैसे तमाम मुद्दों पर वह बिल्कुल ढुलमुल रवैया अपनाती है। और खुद को एक गवर्नेंस की पार्टी तक सीमित रखना चाहती है। जिसका किसी विचारधारा से कुछ लेना-देना ही न हो। लेकिन यह किसी राजनीतिक दल के लिए आदर्श स्थिति नहीं कही जा सकती है।

इसी में एक हिस्से की तरफ से यह बात कही जा रही है कि जनता का यह फैसला राज्य के लिए है लेकिन जब केंद्र की बारी आएगी तो वह दूसरे तरीके से विचार और व्यवहार करेगी। कभी-कभी ऐसा सच भी होता है। लेकिन आम तौर पर ऐसा नहीं होता है। बीजेपी ने उन्हीं सवालों को मुद्दा बनाने की कोशिश की थी जो केंद्र से जुड़े हुए हैं। लेकिन जनता की प्रतिक्रिया न केवल उदासीन बल्कि खारिज करने के स्तर तक नकारात्मक रही। और क्या यह कभी संभव है कि एक के बाद दूसरा राज्य आप हारते जाएंगे और फिर एकाएक अगले लोकसभा चुनाव में वही जनता आप के पक्ष में खड़ी हो जाएगी?

हमें नहीं भूलना चाहिए कि 2011 से ही कांग्रेस का अवसान शुरू हो गया था। और उसके खिलाफ बने मोमेंटम का सबसे ज्यादा फायदा बीजेपी ने उठाया। और अब जबकि देश भर में बीजेपी के खिलाफ मोमेंटम बन रहा है तो इसका फायदा विपक्ष को मिलेगा। ऐसा नहीं होगा कि लोग खुद अपने ही खिलाफ खड़े हो जाएंगे और बीजेपी को फिर से लाकर सत्ता में बैठा देंगे। रही नेतृत्व की बात तो जनता अपना नेतृत्व पैदा कर लेती है। न 1977 में कोई नेता था और न ही 1989 में कोई प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया गया था। लेकिन जरूरतें और परिस्थितियां सब कुछ हल कर देती हैं।

इसके साथ ही एक आखिरी बात कहे बगैर यह लेख पूरा नहीं होगा। नतीजे के बाद कुछ लोग जनता को गाली दे रहे हैं। कोई उसे मुफ्तखोर करार दे रहा है तो कोई लालची। और परोक्ष रूप से यह पूछ रहा है कि वह सांप्रदायिक क्यों नहीं हो गई। ऐसा पूछने वालों को इस बात को समझना चाहिए कि देश की असली तासीर सेकुलर है। भारत जेहनी तौर पर प्रेम और भाईचारे में विश्वास करता है। विविधता इसकी बुनियादी पहचान है। लिहाजा जनता उसको बनाए रखते हुए उसके भीतर से एकता के सूत्र तलाश लेती है।

दरअसल फ्री बीज से नफरत करने वालों को नागरिक शास्त्र की प्राथमिक शिक्षा की जरूरत है। उन्हें नागरिक होने का अभी बोध नहीं हुआ है। नागरिक समाज की आधुनिक श्रेणी से वो अभी भी बाहर हैं। और एक तरह के भक्त और प्रजा की मन:स्थिति में हैं। उन्हें नहीं पता कि राज्य का क्या काम होता है। उन्हें समझना चाहिए कि राज्य का गठन ही जनता के कल्याण के लिए होता है। यही उसका बुनियादी कर्तव्य है। उसका गठन पुलिस से जनता को पिटवाने के लिए नहीं होता है।

तमाम पश्चिमी पूंजीवादी देश जिसको यह तबका आदर्श के तौर पर देखता है लेकिन शायद उसकी व्यवस्था और इतिहास से परिचित नहीं है, इसीलिए इस तरह की नादानी करता है। पश्चिमी यूरोप में 1930 में ही फ्री बीज की यह अवधारणा आ गयी थी। जिसे कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के तौर पर परिभाषित किया जाता है। और यह आज भी वहां बदस्तूर जारी है। स्वास्थ्य, शिक्षा समेत तमाम बुनियादी क्षेत्रों की जिम्मेदारी राज्य के ऊपर है। और अब जबकि इनकी सरकारें उन्हें वापस लेने की कोशिश कर रही हैं तो उनका हर स्तर पर तीखा विरोध हो रहा है।

फ्रीबीज का विरोध करने वालों को इस बात का उत्तर जरूर देना चाहिए कि आखिर जनता के टैक्स से इकट्ठा रकम कहां खर्च की जानी चाहिए। आदर्श राज्य और व्यवस्था के लिहाज से यह जनता के ऊपर और उसमें भी सबसे पहले गरीब और वंचित उसके हकदार होते हैं। साथ ही एक आधुनिक राज्य और व्यवस्था के लिहाज से तमाम इनफ्रास्ट्रक्चर के निर्माण का क्षेत्र उसकी बुनियादी जिम्मेदारी के हिस्से बन जाते हैं। जैसा कि दिल्ली में केजरीवाल ने किया। 

या फिर मोदी का वह मॉडल सही है जिसमें उन्होंने पिछले छह सालों में कारपोरेट घरानों के चार लाख करोड़ रुपये से ज्यादा एनपीए माफ कर दिए। 30 फीसदी कारपोरेट टैक्स को घटाकर 25 फीसदी कर दिया और इस तरह से कई लाख करोड़ रुपये की छूट दे दी। मामला यहीं नहीं समाप्त हुआ। जन-धन खातों और नोटबंदी के जरिये जनता के सारे पैसों को पहले बैंक में डाला गया और फिर उन्हें धीरे-धीरे कारपोरेट के हवाले कर दिया गया।

वह कभी रिजर्व बैंक से लेकर हुआ तो कभी एलआईसी और दूसरी मुनाफे वाले सार्वजनिक क्षेत्र के पैसों से किया गया। और इस प्रक्रिया में सभी बैंकों को न केवल कंगाल कर दिया गया बल्कि सार्वजनिक क्षेत्र के तमाम संस्थानों को भी औने-पौने दामों पर कारपोरेट की जेब में डालने की शुरूआत कर दी गई।

और एक आखिरी बात से इस लेख को समाप्त करेंगे। दिल्ली में बीजेपी 22 सालों से सत्ता से बाहर है। लेकिन इस चुनाव में जनता ने उसे यमुनापार कर दिया। बृजेंद्र गुप्ता की रोहिणी की सीट छोड़ दिया जाए तो बाकी सात सीटें यमुनापार इलाके की हैं। जो 1980 के बाद विकसित हुए हैं। दूसरे तरीके से कहा जा सकता है कि जनता ने बीजेपी को दिल्ली से खदेड़ दिया है।   

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